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Friday, 20 December, 2024
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बालिकाओं की शिक्षा की समस्या मांग नहीं बल्कि स्कूलों, नौकरियों और सूचनाओं की कमी की है

विकास की शुरुआती सोच आर्थिक विकास जिसे जीडीपी से मांपा जाता था और जो देशों को गरीबी से उबार सकता था, पर केंद्रित थी. पर इस मॉडल में लैंगिक समानता नहीं थी.

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मेलिंडा गेट्स के अनुसार, ‘जब आप किसी लड़की को स्कूल भेजते हैं, तो इस भले काम का असर हमेशा के लिए रहता है. यह पहल पीढ़ियों तक जनहित के तमाम कार्यों को आगे बढ़ाने का काम करती है, स्वास्थ्य से लेकर आर्थिक लाभ, लैंगिक समता और राष्ट्रीय समृद्धि तक.’

दुनिया भर में लगभग 132 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर हैं और भारत में लगभग 40 प्रतिशत किशोरियां स्कूल नहीं जाती हैं. दूसरे शब्दों में, यदि स्कूल नहीं जा पा रही कुल लड़कियों की एक देश के रूप में कल्पना करें, तो यह दुनिया का 10वां सबसे बड़ा देश होगा. कोविड-19 संकट ने इस स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है. मलाला फंड का अनुमान है कि महामारी खत्म होते-होते सेकेंडरी स्कूल वय की अतिरिक्त 20 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर हो सकती हैं.

नीति निर्माता और सिविल सोसायटी दशकों से प्रत्येक बालिका को शिक्षित करने की ज़रूरत पर चर्चा कर रहे हैं. लेकिन लाखों लड़कियां शिक्षा के दायरे से बाहर रहने को मजबूर हैं, जबकि अध्ययनों ये पता चलता है कि लड़कियों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नतीजे हमेशा गरीबी की कम दर और बेहतर स्वास्थ्य मानकों के रूप में सामने आते हैं. बालिका शिक्षा का समाज और मानव विकास पर सकारात्मक प्रभाव दीर्घकालिक और दूरगामी होता है. आगे चलकर मां बनने वाली शिक्षित बालिकाओं के अपने बच्चों को स्कूल भेजने और उनका बेहतर पोषण सुनिश्चित करने की संभावना रहती है. स्कूली शिक्षा पूरी करने वाली लड़कियों पर बाल विवाह और मातृत्व के दौरान मृत्यु के खतरे कम होते हैं. उनके कम बच्चे पैदा करने की संभावना रहती है, और उन्हें स्वास्थ्य एवं प्रसव काल के लिए उपलब्ध सेवाओं का बेहतर ज्ञान होता है. शिक्षा के सकारात्मक प्रभावों में शोषणकारी श्रम और मानव तस्करी जैसे खतरों से बच्चों की रक्षा भी शामिल हैं.


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अपर्याप्त विकास

अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा लड़कियों के लिए शिक्षा की तत्काल आवश्यकता को लेकर प्रतिबद्धता जताने के बावजूद, डेवलपमेंट सेक्टर अभी भी बड़े पैमाने पर निवेश के लिए इसे प्राथमिकता नहीं देता है. इसके कारण जटिल हैं, और दोषपूर्ण विकास मॉडल पर निर्भरता से संबद्ध हैं.

विकास के बारे में शुरुआती धारणा इस विश्वास में निहित थी कि सकल घरेलू उत्पाद के पैमाने पर मापे जाने वाला आर्थिक विकास, देशों को गरीबी की जकड़ से बाहर निकालने और असमानता को कम करने का काम करेगा. इस मॉडल में लैंगिक समता को जगह नहीं दी गई थी और न ही पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्थिति और ‘अनपेड केयर’ वाली अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका पर विचार किया गया था. जब 1980 के दशक में विकास के मॉडल लड़खड़ा गए, तो संरचनात्मक समायोजन — खर्च को कम करना तथा कीमतों और प्रोत्साहनों को बाजार में अपना स्तर स्वयं निर्धारित करने के अधिक अवसर देना — को बढ़ावा दिया गया. इसके परिणामस्वरूप शिक्षा, स्वास्थ्य और खाद्य सब्सिडी पर किए जाने वाले खर्च में भारी कटौती हुई, जिसकी मार गरीबों पर अपेक्षाकृत अधिक पड़ी और कोई खास आर्थिक विकास भी नहीं हुआ.

एक दशक बाद जाकर हमें समझ आया कि मानव विकास से भी आर्थिक विकास को गति मिल सकती है. फिर शिक्षा को विकास मॉडल में केंद्रीय महत्व दिया गया और हम लैंगिक विभेद को समाप्त करने के महत्व को पहचानने लगे. हालांकि, ये मानने की गलती की गई कि सामान्य सर्वशिक्षा अभियान चलाने मात्र से ही लैंगिक विभेद की समस्या कम हो जाएगी.
हमारी बालिकाओं के अशिक्षित छूटने के पीछे सिर्फ गलत नीतियों और रोडमैप की ही भूमिका नहीं है. सुरक्षा या अर्थव्यवस्था संबंधी चिंताओं पर आधारित फैसलों समेत लैंगिक भूमिकाओं को लेकर स्थानीय नज़रिया भी लड़कियों को पीछे रखने के लिए ज़िम्मेवार होता है. हालांकि, इस बात को लेकर आम सहमति दिखती है कि यह समस्या मांग पक्ष की उतनी नहीं है. ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब स्थानीय स्तर पर स्कूलों की उपलब्धता बढ़ाई जाती है, या ट्यूशन फीस को समाप्त किया जाता है, तो माता-पिता उत्साहपूर्वक अपनी बेटियों को स्कूल भेजते हैं.

यह समस्या आपूर्ति पक्ष की दिखती है — यानि सुरक्षित, सुलभ, लैंगिक समता के लिए संवेदनशील स्कूलों की उपलब्धता; परिवारों के लिए शिक्षा संबंधी जानकारी; और महिलाओं के लिए रोजगार की संभावनाओं से संबंधित.


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बालिकाओं पर गरीबी की दोहरी मार

शैक्षिक अवसरों का अभाव और गरीबी की समस्या परस्पर संबद्ध हैं. गरीबी में बसर करने वाले बच्चों के लिए शिक्षा में लैंगिक असमानता काफी अधिक है. इस परिस्थिति में लड़कियों को दोहरे संकट का सामना करना पड़ता संकट है, क्योंकि उन्हें लैंगिक विभेद और गरीबी दोनों की मार झेलनी पड़ती हैं.

इसका समाधान विकास के मानवाधिकार और विविध सेक्टरों पर आधारित मॉडल में है जो लड़कियों की शिक्षा में निवेश के बहुगुणक प्रभावों को अधिकतम प्रभावी बना सकेगा.

कोई भी देश मानव संसाधन और महिला सशक्तिकरण में पर्याप्त निवेश किए बिना सतत आर्थिक विकास प्राप्त नहीं कर सकता है. मानव संसाधन सिद्धांत के अनुसार शिक्षा सरकार के लिए उपभोग केंद्रित खर्चीला साधन नहीं, बल्कि एक ऐसा निवेश है जो व्यक्तियों की आर्थिक उपयोगिता को बढ़ाता है, जिसके परिणामस्वरूप देश की समग्र उत्पादकता और आर्थिक प्रतिस्पर्धा की क्षमता बढ़ती है. यानि, शिक्षा हर दृष्टि से विकास के मूलभूत कारकों में से एक है. सतत विकास लक्ष्य 5 (एसडीजी 5) — सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा — की दिशा में सफलता ने विकास को बेहतर स्वास्थ्य, गरीबी में कमी, और लैंगिक समानता से जोड़ दिया है; और यह सभी बच्चों की ज़िंदगी और सारे राष्ट्रों के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है.

और हमें आशा की किरण नज़र आती है. यह आशा कि हमने कोविड-19 से समग्र मानवता को पहुंचे नुकसान पर गौर करते हुए एक अधिक समतापूर्ण दुनिया बनाने की सीख ली है — एक ऐसी दुनिया जहां अवसरों की समानता को प्राथमिकता दी जाती हो.

यहां 10 टू 19 कम्युनिटी ऑफ प्रैक्टिस (10 टू 19 कम्युनिटी ऑफ प्रैक्टिस एक प्रभावी मंच है जहां लोग एक जुट होकर झारखंड के किशोर-किशोरियों की समस्या पर काम करते हैं) के अभियान अब मेरी बारी का उदाहरण लिया जा सकता है जिसके तहत किशोरियां मानदंडों में बदलाव और सामाजिक जवाबदेही तय करने के अभियान की अगुआई करती हैं. खुद को सुलभ शिक्षा के बल पर वे किशोर वय से जुड़े मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने हेतु विभिन्न गतिविधियों और चर्चाओं पर केंद्रित टास्क फोर्स बनाने के लिए प्रेरित हुईं. राजस्थान और झारखंड में 300 से अधिक किशोरियों ने शिक्षा, सुरक्षा और यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी सरकारी योजनाओं और नीतियों के कार्यान्वयन के आकलन के लिए सर्वे किया. साथ ही, उन्होंने अपने क्षेत्र के सरकारी प्रतिनिधियों को पत्र लिखकर बताया कि बेहतर किशोर केंद्रित सेवाएं प्रदान करने के लिए उनके स्कूलों और समुदायों में किस तरह के सुधार किए जा सकते हैं. यह शिक्षित बालिकाओं द्वारा अपने हितों के साथ ही अपने समकक्षों और समुदाय के अन्य लोगों के कल्याण की भी ज़िम्मेदारी उठाने की एक मिसाल है.

ये सुनिश्चित करना समय की मांग है कि हमारे बच्चों — तमाम बालक-बालिकाएं — को आसान, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुलभ हो और उन्हें स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के लिए बराबरी का अवसर मिले, ताकि वे 21वीं सदी की नौकरियों और उद्यमशीलता के अवसरों का लाभ उठाकर भारत के विकास में योगदान कर सकें.

(अदिति प्रेमजी एक समाजसेवी हैं और रणनीतिक परोपकारी संगठन डासरा से एक अध्येता के रूप में जुड़ी हुई हैं. वह सेस्मी वर्कशॉप के सलाहकार बोर्ड और टीच फॉर इंडिया के क्षेत्रीय बोर्ड में भी शामिल हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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