दो हजार साल पहले रोम एक बर्बर गृहयुद्ध की विभीषिका से गुजरा था जिसका अंत तब हुआ जब एक गणतंत्र एक अत्याचारी शासन में तब्दील हो गया. कवि लुकान के लिए वह गृहयुद्ध तलवारबाजी का एक तरह का तमाशा था जिसमें गणतंत्र का जिस्म छलनी-छलनी हो रहा था और भीड़ तालियां बजा रही थी. उन्होंने लिखा था- ‘तलवार के एक वार करने के बाद भी जीभ लपलपाती हुई मानो हवा की शून्यता को भंग कर रही थी. एक वार से कान कटकर गिर गए. एक और वार ने आंखों के कोटरों को खाली कर दिया. छलनी हुए शरीर से आंखों की पुतलियां निकल गईं.’
65 सीई में, बादशाह नीरो का तख़्ता पलटने की नाकाम कोशिश के बाद खुदकशी को मजबूर कवि लुकान ने अपने गणतंत्र की नियति को लेकर आक्रोश में भर कर लिखा, ‘तकदीर, अगर तुमने युद्ध के बाद जन्में लोगों पर किसी मालिक को थोपने का फैसला किया था तो तुम्हें उन्हें एक युद्ध भी सौंपना चाहिए था.’
पिछले सप्ताह, जर्मनी में पुलिस ने धुर दक्षिणपंथी राइशबर्गर आंदोलन के दर्जनों कार्यकर्ताओं को जर्मन गणतंत्र का तख़्ता पलटने की साजिश के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया. साजिश में सेना का एक कर्मचारी, एक पाइलट, एक शेफ भी शामिल था. वे जर्मनी की संसद को बम से उड़ा देने, सांसदों को गिरफ्तार करने और नाबालिग सामंत हाइनरिख रुएस को बादशाह बनाना चाहते थे.
राइशबर्गर आंदोलन हास्यास्पद लग सकता है. इसके मुख्यतः बुजुर्ग साजिशकर्ताओं ने सूक्ष्मदर्शियों से सलाह की, यह एक ऐसे पार्टी के लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है जिसकी स्थापना एक ऐसे आदमी ने की थी जिसे कानूनी तौर पर पागल घोषित किया जा चुका है. उन्हें प्रेरणा दूसरी बातों के साथ ही अमेरिकी ‘क्यूअनोन’ नेटवर्क्स की विचित्र फंतासियों से मिली है. इस नेटवर्क्स का मानना है कि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने शैतानी बाल प्रेमियों के खिलाफ गुप्त लड़ाई छेड़ दी है. लेकिन इसने जो सवाल खड़े किए हैं वे बेहद गंभीर हैं.
कवि लुकान हमें सीख देते हैं कि सबसे धनी और नफीस समाज भी खुद को टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं.
जर्मनी के जाने-पहचाने-से नाज़ी
अपने फ्लैट से बाहर देखते हुए पत्रकार राइमुंद प्रेत्ज़ेल ने प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आई जबरदस्त महंगाई से त्रस्त बर्लिन की सड़कों के निराशाजनक नज़ारे पर टिप्पणी की थी, ‘माहौल कयामत का है’. हर जगह ‘लंबे बालों वाले, उजड़े बालों वाले लोग इस तरह घूमते नज़र आते हैं मानो ईश्वर ने उन्हें दुनिया को बचाने के लिए भेजा हो.’ शराब के डीलर रहे लुडविग हाउज़र ने अपने विज्ञापन कौशल को इंजिलवाद में बदल दिया था. फ़्रेडरिक मक-लैंबर्टी लोकगीतों और लोकनृत्यों के जरिए मोक्ष प्राप्ति का उपदेश दे रहे थे.
प्रेत्ज़ेल ने लिखा कि म्यूनिख के मसीहा को एडोल्फ हिटलर के नाम से जाना जाता है लेकिन वे अपने दिलचस्प रूप से भदेस भाषणों के कारण बर्लिन के अपने प्रतिद्वंद्वियों से भिन्न थे. अधिकतर समकालीनों के लिए, हजार साल के राइश का उनका वादा ईसा की वापसी (सेकंड कमिंग) से ज्यादा वास्तविक नहीं था.
1923 में, एक नाकाम (और हास्यास्पद) तख्तापलट के बाद हिटलर जेल में था. इसके दस साल बाद, वह सत्ता में था, और इतिहासकार उलरिख वोकर याद दिलाते हैं कि यह सत्ता उसे बिना लोकतांत्रिक बहुमत हासिल किए मिली थी.
हालांकि इसकी संभावना नगण्य है कि छिटपुट हथियारबंद गुट आधुनिक जर्मन राज्यतंत्र पर कब्जा कर लेंगे लेकिन खतरों के संकेत उभरे हैं. दो साल पहले, जर्मन सरकार को एक पूरी तरह कुलीन स्पेशल फ़ोर्सेज यूनिट को मजबूरन इसलिए भंग करना पड़ा कि उसमें धुर दक्षिणपंथी विचारधारा का प्रवेश हो गया था.
रूढ़िपंथी नेता वाल्टर लुबके की हत्या कर दी गई क्योंकि वे प्रवासियों का ज्यादा संख्या का समर्थन करते थे. इस साल के शुरू में, अधिकारियों ने स्वास्थ्य मंत्री कार्ल लॉतरबाख का अपहरण करके तख्तापलट की साजिश का पर्दाफाश किया.
राइशबर्गर आंदोलन को जन्म रेलवे से बर्खास्त कर्मचारी वूल्फगैंग एबेल ने दिया, जिन्होंने खुद को प्रांतीय इंपीरियल राइख का चांसलर घोषित कर दिया था. इस आंदोलन का मानना यह है कि जर्मन राज्यतंत्र विदेशी कब्जे की अवैध रचना है. राइशबर्गर के सदस्यों ने जर्मनी को वास्तव में एक कॉर्पोरेट साजिश बताते हुए टैक्स देने से इनकार कर दिया है और अपने छद्म राष्ट्र भी बना लिए हैं.
जर्मनी की खुफिया सर्विस का अनुमान है कि 21,000 से ज्यादा समर्थकों (जिनमें एक हजार से ज्यादा सदस्य बेहद हिंसक है) वाले इस गुट के सदस्यों ने कथित तौर पर बंदूकों का भंडार जमा कर रखा है और हथियारों के प्रशिक्षण शिविर चलाए हैं. जर्मनी की फौजी खुफिया सेवा ने 2019 में जो जांच की थी कि सेना में दक्षिणपंथियों की कितनी घुसपैठ हुई है उसमें इस संगठन का नाम आया था.
राइशबर्गर की तरह, हिंसा में विश्वास रखने वाले कई दूसरे गुट भी हैं— कंबैट-18, जो एक व्यक्ति द्वारा सामूहिक हत्याओं (‘लोन वुल्फ़ अटैक’) का आह्वान करता है; इस्लाम विरोधी पेगीडा, प्रवासी विरोधी फ्रेटल ग्रुप, और वुल्फ़्स ब्रिगेड-44, जो नाज़ी निज़ाम की वापसी चाहता है. गृह मंत्री हॉर्स्ट सीहोफ़र ने पिछले साल कहा था कि 10 साल पहले जब से इस आंकड़े का हिसाब रखा जा रहा है तब से धुर दक्षिणपंथियों ने राजनीतिक मंशा से 23,064 आपराधिक घटनाओं को अंजाम दिया है.
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‘थर्ड राइश’ की छाया
कवि लुकान उस दौर में हुए थे जब गहरा सामाजिक पुन:संयोजन हो रहा था, जो हमारे यहां के सामाजिक पुन:संयोजन से बहुत भिन्न नहीं था. साहित्यकार शाडी बार्थ ने लिखा है कि कुलीनों के अधिकार छीन लिये गए थे, सामाजिक उथलपुथल ने स्थापित श्रेणियों में उलटफेर कर दिया था. जातीय पहचान बदल गई थीं क्योंकि साम्राज्य ने नागरिकता का विस्तार कर दिया था, और इतिहासकर डगलस बोइन याद दिलाते हैं कि प्रवासियों को समान अधिकार भले न दिए गए हों मगर उन्हें नागरिकता प्रदान की गई थी.
कवि जुवेनल ने विदेशी भाषाओं, रिवाजों, और उत्सवों पर निकाले जाने वाले जुलूसों के बारे में कड़वी शिकायत की है. कवि लुकान ने अफसोस जाहिर किया है कि वे जिन्हें विदेशी के रूप में देखते हैं वे नेता के रूप में उभर रहे हैं.
‘थर्ड राईख’ के अवशेषों से उठकर खड़े हो रहे जर्मन धुर दक्षिणपंथियों ने कुछ समय तक नयी व्यवस्था में खामोश रहे लेकिन जल्दी ही नस्ल, पहचान और राजनीतिक सत्ता को लेकर बहसों में अपनी मौजूदगी जताने लगे, अक्सर हिंसक तरीके से भी.
नाज़ी नस्लीय कानून लाने मंत्री हान्स ग्लोब्के जैसे प्रमुख नाज़ियों को 1949 से 1963 के बीच जर्मनी के चांसलर रहे कोनराड आदेनौएर के राज में पुनर्स्थापित किया गया. विद्वान थॉमस क्लिकौएर याद दिलाते हैं कि पूर्व नाज़ी कर्ट-जॉर्ज किसिंगर 1966 में चांसलर बने और हान्स फिलबिंगर और कार्ल कार्स्टेंस ऊंचे पदों पर पहुंचे.
प्रमुख नाज़ी नौकरशाहों को, जिनमें से कई पर युद्ध संबंधी अपराधों के आरोप लगाए गए थे, फिर से सरकार में शामिल किया गया. 1960 में, विद्वान जॉन गिंबेल ने लिखा, ‘स्थायी तौर पर बहिष्कृत किए जाने खतरा अस्थायी और तात्कालिक ही था, और जल्दी ही उसे भुला दिया गया.’
पत्रकार हराल्ड जानर का कहना है कि सामूहिक स्मृति की हत्या ने राज्यसत्ता के पुनर्गठन में मदद की और जर्मन लोगों को नाज़ी अपराधों में उनकी मिलीभगत की अनदेखी करने की गुंजाइश बनाई. उन्होंने लिखा है, ‘उन्होंने खुद को भुक्तभोगी के रूप में देखा, इसलिए उनकी खुशकिस्मती रही कि उन्हें असली खतरों के बारे में नहीं सोचना पड़ा.’
कट्टरपंथी नाज़ी तत्व, जो 1948 के अंत तक मित्र देशों की काबिज सेनाओं पर आतंकी हमले करते रह, सत्तातंत्र से अलग पुनर्संगठित होते रहे. नव-नाज़ी नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी ने संसद में प्रतिनिधित्व हासिल करने के ली बहुत ज़ोर लगाया मगर 1969 में चुनाव में विफल रही. धुर दक्षिणपंथियों के दो खेमे उभर आए. एक खेमा लोकतंत्र को हिंसक तरीके से उलटना चाहता था, दूसरा खेमा आंदोलन के लिए नया बौद्धिक आधार बनाना चाहता था.
पूर्व खुफिया अधिकारी ब्रूस हॉफमैन ने लिखा है कि 1980 के बाद यूरोप में दक्षिणपंथी आतंकवाद का ज़ोर बढ़ा. उस साल नव-फासीवादियों ने बोलोना रेलवे स्टेशन पर बम धमाका किया जिसमें 84 लोग मारे गए, इसके बाद म्युनिख और पेरिस में भी आतंकी हमले किए गए. इससे पहले जर्मनी में प्रवासियों से जुड़े ठिकानों पर तीन बम विस्फोट किए गए.
हालांकि हिंसा के इस विस्फोट को काबू में कर लिया गया है लेकिन धुर दक्षिणपंथी अभी बेकाबू हैं. बुद्धिजीवियों की नयी पीढ़ी ने कहा कि युद्ध-बाद का जर्मनी इसके बाद के दशकों में पहचान के सवालों का समाधान करने में विफल रहा, जिनमें प्रमुख था राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने के लिए इतिहास की पुनर्व्याख्या का सवाल और प्रवास की समस्या के कारण नस्ल के जैविक अस्तित्व का सवाल.
राजनीतिशास्त्री हान्स-जॉर्ज बेट्ज़ का कहना है कि नव-नाज़ी आंदोलन ने ‘असंतोष की राजनीति’ का भी इस्तेमाल किया. 1982 से 1996 तक चांसलर रहे हेल्मुट कोल ने ऐसी आर्थिक नीतियां लागू की कि दो तिहाई आबादी संपन्न हुई मगर कम हुनर वाले कामगार, बुजुर्ग, किसान और युवा इसमें शामिल नहीं थे. गरीब पूर्वी इलाके से आने वालों में धुर दक्षिणपंथियों को नये रंगरूट मिले और उन्होंने उनकी मदद से प्रवासियों पर घातक हमले किए. कहा जाता है कि इन कुछ मामलों में पुलिस की भी मिलीभगत रही, जबकि कुछ हमलों को रोकने में वह अक्षम साबित हुई.
बंधक लोकतंत्र
कवि लुकान को प्लेग महामारी में रोम की रुग्णता की सटीक उपमा नज़र आती थी, जो सड़ती लाशों से पैदा होती थी और जिसने गृहयुद्ध के दोनों पक्षों में भेदभाव किए बिना मौत का तांडव किया. विद्वान नाश्मान बेन येहुदा ने लिखा है कि 14वीं सदी के मध्य में ‘ब्लैक डेथ’ के नाम से बदनाम प्लेग महामारी जब यूरोप में फ़ैली तो आतंकित आबादी ने यहूदियों, डायनों, जादूगरों की हत्या शुरू कर दी क्योंकि उसे लगा कि ऐसा करके वह राज्य-व्यवस्था को दुष्टात्माओं से मुक्त कर रही है. इतिहासकार नॉर्मन कोन ने लिखा है कि उग्रपंथियों ने शहरों पर कब्जा कर लिया और धार्मिक कट्टरपंथ थोप दिया.
आज जो महामारी फैली है उसमें भी दहशत ने साजिश की अटकलों और छिटपुट आंदोलनों को बढ़ावा दिया है. आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञ टेउन वान दोंजेन ने लिखा है कि पूरे पश्चिमी जगत में धुर दक्षिणपंथी गुटों ने इस विचार को फैलाया है कि वे समाज पर संपूर्ण निरंकुशतावादी नियंत्रण स्थापित करने की कुलीनों की साजिश के खिलाफ लड़ रहे हैं.
यूरोप के कई आतंकवाद विरोधी विशेषज्ञों को डर है कि यूक्रेन युद्ध धुर दक्षिणपंथी नेटवर्क को आसानी से हथियार और फौजी ट्रेनिंग हासिल करा सकता है. कहा जा रहा है कि पूरे यूरोप में फैले नाज़ी गुट भी यूक्रेन में रूस के साथ लड़ाई लड़ रहे हैं. एक दक्षिणपंथी लड़ाके ने ऑनलाइन पर दावा किया कि ‘मैं एक राष्ट्रवादी, देशभक्त, और साम्राज्यवादी हूं. मैं साफ कहूंगा कि मैं एक नाज़ी हूं.’
यूरोप के लोकतांत्रिक देश के लिए ये कोई नये खतरे नहीं हैं. जनरल चार्ल्स डि गॉल की अल्जीरिया नीति से निराश उग्रपंथी जनरलों ने 1961 में उनकी सरकार को गिराने की कोशिश की थी. 1970 में, फासीवादियों ने इटली की सरकार को उलटने की कोशिश की थी. 1981 में, पूर्व फौजी शासक फ्रांसिस्को फ़्रांको के समर्थकों ने स्पेन की संसद पर कब्जा करने की कोशिश की थी. यूरोप ने अपना जुझारूपन साबित तो किया लेकिन वह विचारधाराओं के आधार पर पहले से ज्यादा विभाजित हो गया. अब ऐसे ही नतीजे की गारंटी नहीं दी जा सकती.
9/11 कांड के बाद से, पश्चिम के विद्वान कमजोर नेतृत्व और बदहाल अर्थव्यवस्था के दबाव में विफल हुए देशों के कारण वैश्विक व्यवस्था को पहुंच रहे खतरों का विश्लेषण किया है. इस आंदोलन से यह साफ हो रहा है कि खतरे में केवल उपनिवेशवाद के बाद के दौर में लड़खड़ाते तबाह देश नहीं हैं. अमेरिका में हथियारबंद श्वेत- राष्ट्रवादी गुट मजबूत हो रहे हैं. पूर्व फ्रांसीसी फौजी कमांडरों ने प्रवासियों की बहुलता वाले उपनगरों में ‘बानलिएउ के झुंडों के साथ नस्लीय युद्धों की चेतावनी दी है.’ यानी पूरे पश्चिमी जगत में लोकतांत्रिक देश खुद को आंतरिक तत्वों के हाथों बंधक बने महसूस कर रहे हैं.
(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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(संपादन: अलमिना खातून)
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