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Tuesday, 24 December, 2024
होममत-विमतजनरल नरवणे कहते हैं- क्या भारत पाकिस्तान-चीन खतरे के लिए तैयार है? दो मोर्चों पर लड़ाई का मतलब है हार

जनरल नरवणे कहते हैं- क्या भारत पाकिस्तान-चीन खतरे के लिए तैयार है? दो मोर्चों पर लड़ाई का मतलब है हार

भारत उस बॉक्सर के जैसा है जो रिंग में पाकिस्तान और चीन का सामना कर रहा है. उसे दोनों खतरों से अलग-अलग मुक़ाबला करने की तैयारी करनी चाहिए.

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भारत को अपनी पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान, और उत्तरी सीमा पर चीन जैसे परमाणु शक्ति से लैस उग्र पड़ोसियों के कारण अपनी तरह की खास चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. वह इन दोनों देशों से युद्ध लड़ चुका है, और इस दोनों के एक साथ मिल जाने का खतरा हमेशा बना हुआ है.

लेकिन इस बात को समझना काफी महत्व रखता है कि एक साथ दो मोर्चों के लिए तैयारी करने और दो मोर्चों पर वास्तव में लड़ाई लड़ने में बड़ा अंतर है. इस तरह के मुहावरों में अक्सर समझदारी की कमी के कारण घालमेल कर दिया जाता है.

दो मोर्चों पर आसन्न खतरे के लिए तैयारी करने में सेनाओं की संरचना हर एक मोर्चे पर संभावित खतरे का मुक़ाबला करने के लिहाज से ढालनी पड़ती है.

भारतीय संदर्भ में, इसका अर्थ होगा पश्चिमी मोर्चे पर ज्यादा मेकेनाइज्ड व्यूह रचना और उत्तरी मोर्चे पर पैदल सेना की ज्यादा तैनाती.

हर एक मोर्चे के लिए भिन्न-भिन्न तरह की आर्टिलरी की भी जरूरत पड़ेगी और युद्ध के मद्देनजर कम्बैट सपोर्ट तथा प्रशासनिक तत्व भी भिन्न-भिन्न तरह की करनी होगी.

इन मोर्चों पर ऑपरेशन्स के सिद्धांत भी भिन्न-भिन्न होंगे और सेनाओं को भिन्न-भिन्न तरह से प्रशिक्षित भी करना होगा. पश्चिम में मैदानी और रेगिस्तानी इलाकों में मेकेनाइज्ड सेनाओं को तेजी से आगे बढ़ने की चाल अपनानी पड़ेगी; जबकि उत्तर के पहाड़ी इलाकों में पैदल सेना को लंबे समय तक जूझते रहना पड़ेगा.

ज़ाहिर है, दो मोर्चों पर खतरे के मद्देनजर तैयारी करना दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ने के समान नहीं है. झूठी बहादुरी या जोश के उबाल में दो मोर्चों पर लड़ने के बारे में गंभीरता से विचार करने के जाल में नहीं उलझना चाहिए.

संचार तंत्र

ऑपरेशन की तैयारी में सेना के लिए, और रणनीति के स्तर पर देश के लिए दो मोर्चों वाली परिस्थिति कुल मिलाकर इस सवाल पर आकर टिकती है कि ऑपरेशन संचार तंत्र की आंतरिक लाइन पर हो रहा है या बाह्य लाइन पर.

‘बेस’ (जहां से सेना को ताकत मिलती है) को जोड़ने वाली लाइनें और मोर्चे (युद्धस्थल) अलग-अलग हैं तब सेना संचार तंत्र की आंतरिक लाइन पर कार्रवाई कर रही होती है.

इसके विपरीत, अगर बेस और मोर्चों को जोड़ने वाली लाइनें अगर जुड़ रही हैं तब सेना संचार तंत्र की बाहरी लाइन पर कार्रवाई कर रही होती है.

ऑपरेशन्स जब आगे बढ़ते हैं तब आंतरिक लाइन पर ऑपरेट कर रही सेना और फैल जाती है, जबकि बाहरी लाइन पर ऑपरेट कर रही सेना एक लक्ष्य के लिए एकजुट हो जाती है जिससे सेना इकट्ठा हो जाती है.

यही युद्ध का मुख्य सिद्धांत है. 1971 का बांग्लादेश मुक्ति युद्ध इसका उम्दा उदाहरण है कि बाहरी लाइन पर ऑपरेट कर रही सेना ने आंतरिक लाइन पर उतनी ही मजबूत सेना को किस तरह परास्त कर दिया था.

सम्मिलन (कन्वरजेंस) का यह सिद्धांत ऑपरेशन और सामरिक कड़ी के हर स्तर पर लागू होता है. ऑपरेशन के स्तर पर ‘एनवेलपमेंट’ की कार्रवाई (एकल ‘एनवेलपमेंट’ हो या डबल ‘एनवेलपमेंट, जर्मन पिंसर मूवमेंट) बाहरी क्षेत्र से आंतरिक क्षेत्र में गतिशील ऑपरेशन ही होता है जो निर्णायक मौके पर ज्यादा युद्ध शक्ति उपलब्ध कराता है.

यह सामरिक स्तर के लिए भी उतना ही सच है, जहां एक लक्ष्य के लिए एक साथ कई दिशाओं से हमला किया जाता है. घुसपैठ करके या हवाई ऑपरेशन के जरिए दुश्मन सेना के पिछले भाग में अपनी सेना को तैनात करने का अर्थ है कि दुश्मन को एक साथ दो दिशाओं (मोर्चों) से हमले का सामना करने को मजबूर करना.

बाहरी लाइनों पर ऑपरेशन कर रही सेना को इस चाल से दस में से नौ बार सफलता मिलती है. यह वैसा ही है जैसे कोई बॉक्सर रिंग में एक ही क्षमता वाले दो बॉक्सरों का सामना कर रहा हो. पर्याप्त समय मिले तो दोनों बॉक्सर एक पर हावी हो जाएंगे.

देखा जाए तो भारत उस बॉक्सर के जैसा है जो दो विरोधियों का सामना कर रहा है. एक देश के रूप में हमें दोनों खतरों से अलग-अलग और मिलकर मुक़ाबला करने की तैयारी करनी चाहिए.

इसके लिए अपनी राष्ट्रीय शक्ति के सभी उपकरणों— कूटनीति, सूचना तंत्र, सेना, और अर्थव्यवस्था (‘डाइम”)— का इस्तेमाल करना चाहिए.

कूटनीति के स्तर पर संधियां और समझौते टकराव को रोकने और युद्ध छिड़ जाए तो एक दुश्मन को परे रखने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.


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इतिहास गवाह है

दो मोर्चों की चुनौती से निबटने में भारत की सफलता का साफ उदाहरण यह है कि अगस्त 1971 में भारत ने पूर्व सोवियत संघ के साथ शांति, मैत्री, और सहयोग की संधि करके बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में चीन को दखल देने से रोक दिया था.

उसे दो मोर्चों से मिलने वाले खतरे का पूरा अहसास था कि इस तरह का युद्ध व्यावहारिक नहीं है. फिर भी, भारत दो मोर्चों— पाकिस्तान और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान— पर लड़ा लेकिन दुश्मन एक ही था, जिसके पास संसाधन सीमित थे.

इसी तरह, जर्मनी ने 23 अगस्त 1939 को पूर्व सोवियत संघ के साथ मोलोतोव-रिब्बेनट्रोप समझौता किया था, जो 1 सितंबर 1939 को जर्मनी द्वारा पोलैंड पर हमला किए जाने से पहले मूलतः नॉन-एग्रेशन समझौता था.

इसने यह पक्का कर दिया था कि जर्मनी को पश्चिमी यूरोप में केवल एक मोर्चे पर लड़ना पड़ेगा. लेकिन बदकिस्मती से जर्मनी ने जून 1941 में पूर्व सोवियत संघ के खिलाफ ‘ऑपरेशन बार्बारोस्सा’ शुरू करने की गलती करके दूसरा मोर्चा खोल दिया, जबकि पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध को शांत नहीं किया था.

इसने मित्र देशों की सेनाओं को ‘ऑपरेशन ओवरलॉर्ड’ शुरू करने का मौका दे दिया. इसके तहत फ्रांस के नोर्मांडी के समुद्र तट पर नौसेना-थलसेना ने धावा बोल दिया, और इस तरह दूसरा मोर्चा खुल गया था.

दो मोर्चों पर युद्ध जर्मनी की पराजय का प्रमुख कारण बना. जर्मनी को आंतरिक लाइन पर बिलकुल विपरीत दो दिशाओं में लड़ने को मजबूर होना पड़ा, जबकि मित्र देशों की सेनाएं इटली के जरिए दक्षिणी क्षेत्र समेत बाहरी लाइन पर तैनात थीं.

कई मोर्चों पर एक साथ युद्ध में प्रायः हर बार हार के उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है. दस में एकाध बार शायद ऐसा हुआ है कि आंतरिक लाइन पर लड़ रही सेना हावी हुई है, लेकिन ऐसी जीत की वजह कुछ और रही.

ये लड़ाइयां ऐसी अपवाद हैं जो नियम को सिद्ध करती हैं. शानदार रणनीति के स्तर पर देखा जाए तो दो मोर्चों पर लड़ाई अपेक्षित नहीं है, चाहे यह भारत के लिए हो या किसी और देश के लिए.

(पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, एडीसी जनरल मनोज मुकुंद नरवणे भारतीय सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. यहां व्यक्त उनके विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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