सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) तबके के लिए आरक्षण का प्रावधान किए जाने के बाद इस पर सवाल उठने लगे हैं. पिछले शनिवार को राष्ट्रपति की ओर से इस कोटे को मंजूरी मिलने के बाद सबसे पहले गुजरात और उसके बाद तेलंगाना की सरकारों ने ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर भी दिया.
सरकार के नियम के मुताबिक यह 10 प्रतिशत आरक्षण उन लोगों को ही मिलेगा, जिन्हें अभी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग के रूप में आरक्षण नहीं मिल रहा है. आम भाषा में आरक्षण न पाने वालों को सवर्ण कहा जाता है और इस 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान सवर्णों के लिए किया गया है. इसमें कुछ आर्थिक शर्तें जोड़ी गई हैं.
अब सवाल उठ रहा है कि सरकार इस 10 प्रतिशत गरीब सवर्ण को कहां समायोजित करेगी, जबकि ज्यादातर सरकारी विभागों में 60 से 95 प्रतिशत तक सवर्णों का पहले से ही कब्जा है. जैसे जैसे उच्च पदों की ओर पढ़ते हैं सवर्णों का दबदबा बढ़ता चला जाता है.
राज्यसभा में सवर्ण कोटे पर हो रही चर्चा के दौरान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मनोज झा ने इस कोटे पर सवाल उठाते हुए कहा था कि सवर्ण का कब्जा देखने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ संसद में से कार्यपालिका के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों से लेकर संसद के निचले पायदान पर काम कर रहे लोगों का अध्ययन कर लिया जाए.
संसद में समय समय पर सांसदों ने ओवर रिप्रजेंटेशन और कुछ जाति विशेष या उच्च जाति के कब्जे को लेकर सवाल उठाए हैं. समाजवादी पार्टी नेता धर्मेंद्र यादव ने सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री के संसद में दिए गए जवाब के हवाले से लोकसभा में बताया कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 2371 प्रोफेसर में 1 ओबीसी, 4708 एसोसिएट प्रोफेसर में 6 ओबीसी, सहायक प्रोफेसर में 9521 में 1,745 ओबीसी हैं. उन्होंने बार बार मंत्री से जानना चाहा कि 27 प्रतिशत कोटा लागू होने के बाद यह लूट कैसे मची है और ओबीसी तबके को उनकी हिस्सेदारी कब मिलेगी.
इंडियन एक्सप्रेस के श्यामलाल यादव ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के माध्यम से कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और मानव संसाधन मंत्रालय (एचआरडी) से आंकड़े निकाले हैं. 16 जनवरी 2019 को प्रकाशित खबर के मुताबिक 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, जहां ओबीसी आरक्षण लागू है, ओबीसी असिस्टेंट प्रोफेसर की संख्या उनके 27 प्रतिशत कोटे की करीब आधी 14.38 प्रतिशत है. वहीं ओबीसी प्रोफेसरों और एसोसिएट प्रोफेसरों की संख्या शून्य है. आंकड़ों के मुताबिक 95.2 प्रतिशत प्रोफेसर, 92.9 प्रतिशत एसोसिएट प्रोफेसर और 66.27 प्रतिशत असिस्टेंट प्रोफेसर सामान्य श्रेणी के हैं. हालांकि इनमें भी कुछ एससी, एसटी और ओबीसी श्रेणी के हो सकते हैं, जिन्होंने आरक्षण का लाभ न लिया हो.
यह हालात सिर्फ विश्वविद्यालयों में नहीं है. सरकार की सूचना के मुताबिक क्लास वन और क्लास टू नौकरियों में रेलवे, एचआरडी मंत्रायल, कैबिनेट सचिवालय, नीति आयोग, राष्ट्रपति के सचिवालय, उपराष्ट्रपति के सचिवालय, यूपीएससी, सीएजी सहित 71 अन्य विभागों में कहीं भी आरक्षित कोटे के 49.5 प्रतिशत लोग नहीं हैं.
अब फिर आते हैं सरकार के 10 प्रतिशत सवर्ण कोटे पर. अगर विश्वविद्यालयों में 95.2 प्रतिशत प्रोफेसर सामान्य श्रेणी के हैं तो 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस कोटे में सामान्य श्रेणी के किन लोगों को रखा जाएगा, यह सवाल अहम हो जाता है. साथ में यह भी सवाल उठता है कि किसने यह दुष्प्रचार किए हैं कि सरकारी नौकरियों पर आरक्षित वर्ग के लोगों का कब्जा हो जा रहा है, जबकि आंकड़े बताते हैं कि रिजर्वेशन लागू होने के बाद भी आरक्षित वर्ग के लोगों को उतनी भी जगह नहीं मिल पाई है, जितना उनके लिए आरक्षित किया गया है.
इसमें सबसे बुरा हाल अन्य पिछड़े वर्ग का ही है. इंडियन एक्सप्रेस को मिले आंकड़ों के मुताबिक ग्रुप ए और ग्रुप बी की नौकरियों में ओबीसी का प्रतिनिधित्व रेलवे में 8.05 प्रतिशत, 71 विभागों में 14.94 प्रतिशत, मानव संसाधन मंत्रालय में 8.42 प्रतिशत, कैबिनेट सेक्रेट्रिएट में 9.26 प्रतिशत, नीति आयोग में 7.56 प्रतिशत, राष्ट्रपति सचिवालय में 7.69 प्रतिशत, उपराष्ट्रपति सचिवालय में 7.69 प्रतिशत, यूपीएससी में 11.43 प्रतिशत, सीएजी में 8.24 प्रतिशत है. वहीं इन विभागों में सामान्य श्रेणी के अधिकारियों की संख्या 62.95 प्रतिशत से लेकर 80.25 प्रतिशत तक है. स्वतंत्रता के समय से ही लागू एससी-एसटी आरक्षण के बावजूद इस तबके के लोगों का प्रतिनिधित्व उनके लिए तय कोटे के मुताबिक नहीं हो पाया है.
ऐसे में सवाल उठने लाजिमी हैं. संविधान के अनुच्छेद 16(4) में प्रावधान किया गया था कि समाज के जिन वर्गों का शासन प्रशासन में प्रतिनिधित्व नहीं है, उन्हें सरकार उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था कर सकती है. इसी को देखते हुए अन्य पिछड़े वर्ग के लिए प्रावधान किया गया. लेकिन मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के 30 साल बाद हालत यह है कि अन्य पिछड़ा वर्ग सरकारी सेवाओं से करीब गायब है.
मंडल कमीशन की रिपोर्ट पेश करते हुए बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और कमीशन के अध्यक्ष बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल ने कहा था, “हमारा यह दावा कभी नहीं रहा है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हजार नौकरियां देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे. लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई का जरूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ी जानी है.“
भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताकत का पैमाना माना जाता रहा है. सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे. जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है. लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है. पूरे पिछड़ा वर्ग समाज को लगता है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठा है. भले ही पूरे समुदाय को ठोस या वास्तविक लाभ नहीं मिलता है, लेकिन उसे यह अनुभव होता है कि उसका ‘अपना आदमी’ अब ‘सत्ता के गलियारे’ में पहुंच गया है. यह उसके हौसले व मानसिक शक्ति को बढ़ाने का काम करता है.”
ऐसे में जब सरकार ने गरीबी के आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण सवर्णों के लिए कर दिया गया है तो पहला सवाल यही उठता है कि सरकार की इस योजना से कितनों की गरीबी दूर होगी. दूसरा सवाल यह आता है कि अगर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 95 प्रतिशत प्रोफेसर गैर आरक्षित तबके के यानी सवर्ण हैं तो 10 प्रतिशत गरीब तबके के सवर्णों का समायोजन सरकार कहां करने जा रही है?
साथ ही यह भी कि देश की 52 प्रतिशत ओबीसी आबादी को किस तरह से अहसास दिलाया जा सकेगा कि भारत उनका भी देश है और उन्हें भी देश की सुख सुविधाओं, अवसरों, प्रतिस्पर्धाओं में बराबर का हिस्सा मिलेगा, जबकि देश के निर्णायक और मलाईदार पदों पर उनका प्रतिनिधित्व नगण्य है.
(लेखिका सामाजिक और राजनीतिक मामलों की टिप्पणीकार हैं.)
Mc fake hai ya