राजस्थान के बूंदी शहर के निवासी, बैंक में सहायक प्रबंधक कन्हैया लाल मेघवाल के बेटे अक्षय की आगामी 10 फरवरी को शादी होने जा रही है. मेघवाल का परिवार बाबा साहब की बहुजन विचारधारा को समर्पित हैं, मगर रहते तो उन्हीं सब लोगों के बीच ही, जो ब्राह्मणी कर्मकांडों में डूबे हुये हैं. ऐसे में यह शादी उनके लिये एक चुनौती के रूप में हैं, जहां उन्हें अपनी वैचारिकी को साबित करना है, जिसे वे मंचों पर कहते आये हैं. उसे आचरण में उतार कर दिखलाना है.
मेघवाल परिवार ने इसकी भव्य शुरुआत की शादी के कार्ड पर नवाचार करके. उन्होंने शादी को ‘जश्ने विवाह’ का नाम देते हुये जो कार्ड छापा है, उसमें भारत के संविधान और बहुजन महापुरुषों के चित्र व विचार लोगों तक पहुचाये हैं. इस अनूठे कार्ड में भारत के संविधान की प्रस्तावना, बुद्ध व अम्बेडकर के तार्किक विचार तथा त्रिशरण मुद्रित किया गया है. उन्होंने न सिर्फ कार्ड बदला है, बल्कि तमाम वैवाहिक रस्मों के नाम तक बदल दिये हैं. वे अब ‘विनायक स्थापना’ की जगह पर ‘बुद्ध वन्दना’ व ‘भीम कलश’ स्थापित करेंगे. परिणय सूत्र बंधन को सम्यक मिलन तथा सात फेरों के बजाय सम्यक संकल्प लेना तय किया है. वे विवाह के प्रीति भोज को भी भीम भोज में बदल चुके हैं तथा अंत में धम्म देशना का कार्यक्रम आयोजित करने जा रहे हैं.
कन्हैया लाल मेघवाल बताते हैं कि वे मेहमानों को बाबा साहब का साहित्य उपहार स्वरुप देंगे. उनका कहना है, ‘हमने तमाम मनुवादी परम्पराओं को ठोकर मार दी है. मैं तो शादी के इस कार्ड पर बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञा तक छपवाना चाहता था, पर इस बार यह नहीं हो सका. मेघवाल के लिये अपने बेटे की यह शादी बहुजन समाज के लिये वैचारिक प्रशिक्षण का एक मौका बनाने की कवायद है, जिसकी चारों ओर प्रशंसा हो रही है.
मनुवादी मकड़जाल से मुक्त होती बहुजन शादियां!
महाराष्ट्र और तमिलनाडु में तो ऐसी कर्मकांड रहित शादियां आम हैं. लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, बिहार व गुजरात इत्यादि में भी अब यह प्रवृति काफी दिखलाई पड़ रही है. अधिकांश दलित व कुछ पिछड़ी जातियों खासकर कुशवाहा, यादव और कुर्मियों से आने वाले मिशनरी लोग शादी-ब्याह के मौके को सामाजिक व सांस्कृतिक बदलाव के अवसर के रूप में उपयोग कर रहे हैं.
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भारतीय समाज में विवाह तथा वैवाहिक परम्पराएं व रस्मो रिवाज़ जातिवाद और धार्मिक अंधविश्वासों को मज़बूती से टिकाये रखने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं. सनातनी वर्ण व्यवस्था में विवाह के कर्मकांड करने करवाने का सारा अधिकार अभी भी ब्राह्मणों के पास सुरक्षित है. यहां तक कि दलित जातियों के लिये भी उनके लिये निर्धारित पुरोहित इन रस्मो की अदायगी करते हैं. लेकिन जैसे जैसे वैचारिक जागृति आ रही है, यह सवाल बहुजन समाज के भीतर खदबदाने लगा है कि क्या इन पुरातनपंथी रीति रिवाज़ों को बदला जा सकता है?
संक्रमणकाल में बीच का रास्ता, गणेश और बाबा साहेब साथ-साथ
अकसर यह सवाल पूछा जाता है कि ऐसे मौकों पर मनुवादी कर्मकांड न करें तो विकल्प क्या है? वैसे तो इसका बहुत साफ जवाब है कि डॉ बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा बताये पथ को चुना जाये, मगर उत्तर भारत में अभी इसकी कोई खास तैयारी नज़र नहीं आती है. इसलिए मिशनरी लोग कोई मध्य का रास्ता ढूंढते दिखाई पड़ रहे हैं. इसकी शुरुआत शादी के कार्डों में आ रहे बदलाव से देखी जा सकती है.
अब तक यह बदलाव व्यक्तिगत समारोहों तक ही सीमित था, मगर राजस्थान के पाली जिले के सोजत कस्बे में दलित मेघवाल समाज के द्वारा आयोजित सामूहिक विवाह सम्मेलन के निमंत्रण पत्र में भी इस बदलाव की छाप दिखाई पड़ने से लोग चौंक गये है. दूसरी बार आयोजित हो रहे इस सामूहिक विवाह सम्मेलन के निमंत्रण पत्र में गणेश और बाबा रामदेव पीर तथा अलख धणी के चरण चिन्ह तो हैं ही, पर पहली बार उनके बराबर बुद्ध व बाबा साहब के चित्र भी लगाये गये हैं.
स्वाभाविक रूप से इसके पक्ष व विपक्ष में तीव्र प्रतिक्रियाएं सामने आ रही है, जहां अधिकांश लोग इस परिवर्तन का दिल खोल कर स्वागत कर रहे है, वहीँ वैचारिक शुद्धतावादी लोग इस घालमेल को घातक बताते हुये इसकी कड़ी आलोचना भी कर रहे है. वहीँ यथास्तिथिवादी भी हैं जो इसे हिन्दू धर्म से बगावत के रूप में लेते हुये इसके प्रति बेचैनी दिखा रहे है.
लोकप्रिय बहुजन चिन्तक, लेखक व प्रकाशक डॉ एम एल परिहार इस बदलाव को अत्यंत सकारात्मक संकेत मानते हैं, उनका कहना है – ‘यह क्या कम बात है कि दलित समुदाय के सामूहिक विवाह सम्मेलन के आमंत्रण पत्र पर बुद्ध व बाबा साहब के चित्र पहुंच चुके हैं.’ डॉ परिहार कहते हैं – ‘हमें इस अभिनव शुरुआत का सहयोग करना चाहिए.
कमोबेश इसी तरह का विचार पशुपालन विभाग में अतिरिक्त निदेशक डॉ गुलाब चंद जिंदल के भी हैं. वे इस पहल का खुलकर स्वागत करते हुये कहते हैं – ‘बहुजन महापुरुषों को सामुहिक विवाह समारोहों के निमंत्रण पत्र में देवताओं के साथ रखने का प्रयास हुआ है. जो लोग पहले कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे, वे अब अपने देवताओं के बराबर बहुजन नायकों को रखने लगे हैं. यह स्वीकार्यता बेहद महत्वपूर्ण है, अभी तो यह महज शुरुआत है, अगली बार इससे भी अच्छा होगा. हो सकता है कि अगली बार देवी देवता गायब ही हो जायें.’ डॉ जिंदल इस नवोन्मेष का विरोध कर रहे शुद्धतावादियों को चेताते हुये कहते हैं – ‘अगर हमने पुरोहितों के पाखंड में उलझे लोगों के इस पहले ही कदम की आलोचना की तो वे वापस उसी रुढिवादिता के अंधे कुएं में जा गिरेंगे, जहां से निकलने को वे प्रयासरत हैं.’
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पाली जिले के एक उत्साही युवा राज राठोर भी यही कहते हैं – ‘5000 साल की बीमारी है, धीरे धीरे ही जायेगी.’
लेकिन कई लोग इस घालमेल को लेकर चिंतित भी हैं. गणित व विज्ञान के अध्यापक दलित युवा श्रवण राठोड कहते हैं कि यह मिश्रण कहीं बाबा साहब आम्बेडकर को भी बाबाजी न बना दें. राठोड अपनी चिंता कुछ इस प्रकार ज़ाहिर करते है – ‘शादी कार्डों में देवी देवताओं के साथ बहुजन महापुरुषों की संयुक्त मौजूदगी बाबा साहब के प्रति भक्ति का भाव पैदा करेगी और भक्ति से हमारा भला नहीं होगा. मुझे डर है कि कहीं यह मिलाप बाबा साहब, बुद्ध, कबीर, रविदास, फुले और कांशीराम के पूरे मिशन को ही न ले डूब जाए.’ भरतपुर निवासी हरिसिंह बौद्ध सवाल उठाते है कि – यह बदलाव स्वागत योग्य है, पर अगर आप अम्बेडकरवादी हैं तो यह ‘चाक भात’ की परम्परा भी क्यों?
बाबा साहेब के विचारों के साथ घालमेल का विरोध
आम्बेडकरी विचारधारा के प्रति कट्टर रवैया रखने वाले अधिकांश लोग इस आगाज़ को संदेह भरी नजर से देख रहे है, उनका मानना है कि यह ढुलमुल सोच कहीं नहीं पहुंचाता है. समन्वय के नाम पर सदैव अंधश्रद्धा की जीत होती है. देवताओं व बहुजन आदर्शों का मिश्रण अंततः ब्राह्मणवाद की विजय है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे तो वे बुद्ध को अवतार घोषित कर ही चुके हैं. अब आम्बेडकर भी भगवान बना दिये जायेंगे.
जो लोग इस बदलाव के समर्थक है, उनका मानना है कि शुद्धतावादियों व वैचारिक कट्टरता के प्रति आग्रह रखने वालों की चिंता निर्मूल भी नहीं है, फिर भी किसी न किसी साझा बिंदु से प्रयाण तो करना ही होगा. रुकने की जगह, छोटे छोटे कदमों से ही सही, चलना तो होगा ही.
समता सैनिक दल से जुड़े बहुजन लेखक बी एल बौद्ध कहते हैं – ‘आज समय की मांग है कि हम उन प्राचीन परम्पराओं को नकार दें, जिनका हमारे जीवन में कोई औचित्य नहीं है. हमें पाखंडी रुढियों व मान्यताओं को छोड़कर वैज्ञानिक, तार्किक, बौद्धिक, सारगर्भित व आधुनिक रीतियों को गढ़ना होगा.’ बौद्ध मानते है कि बहुजन समाज में तेजी से बदलाव आ रहा है. अब लोग ब्राहमणों से कुंडली मिलान, महूर्त निकलवाने, दूल्हा दुल्हन के गठजोड़ के बाद मंदिरों में जात लगाने, जुआ खेलने तथा दुल्हे के छोटे भाई की नीम की टहनियों से दोस्ताना पिटाई करने जैसी अवैज्ञानिक रस्मों को तोड़ रहे है. वे संवैधानिक तरीकों की तरफ बढ़ रहे है.
ब्राह्मण समाज की प्रतिक्रिया
पर इस बदलाव से दलितों के यहां कर्मकांड करने वाला ब्राहमण समाज दुखी है, क्योंकि सीधे सीधे उसकी आजीविका पर चोट पड़ रही है. पश्चिमी व दक्षिणी राजस्थान में गर्ग ब्राहमण समाज अनुसूचित जातियों के घरों में धार्मिक व पारिवारिक कर्मकांडों को करते हैं. वे दलितों में ब्राह्मण और ब्राह्मणों में दलित माने जाते है. उनकी सामाजिक हैसियत ब्राह्मणों की है, पर कागजों में वे अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट लेकर आरक्षण का फायदा उठाने से भी नहीं चूकते है.
दलित वर्ग की विभिन्न जातियों में बाबा साहब की विचारधारा की वजह से आ रहे बदलाव ने गर्ग ब्राह्मण समाज को आशंकित कर रखा है. वे नहीं चाहते है कि दलित हिन्दू धर्म प्रदत्त पाखंडों से पीछा छुडाये. जैसलमेर के रामगढ निवासी प्रदीपकुमार गर्ग अपनी पीड़ा कुछ इस तरह सोशल मीडिया पर सार्वजनिक करते हैं – ‘गौतम बुद्ध क्षत्रिय थे और रामदेव पीर भी, इन्हें छोड़कर कहां जाओगे? मुसलमानों में भी ऊंच नीच है. इसलिए हिन्दू धर्म में ही रहकर संघर्ष करते रहिये, इसी में भलाई है.’
गर्ग की इस बात दलित युवा परिहार बीबसा एकदम असहमत हैं. उनका कहना है –‘गर्ग दलितों के ब्राह्मण हैं. इनको यह डर है कि अगर दलित इन ब्राह्मणी पाखंडों से बाहर निकल जायेंगे तो हमारी रोजी रोटी छिन जाएगी. इसलिए वे चाहते है कि ये लोग हिन्दू धर्म में ही बने रहकर संघर्ष करते रहें.’
शादी के निजी व सामूहिक आयोजनों के निमंत्रण पत्रों में आ रहा बदलाव निश्चित रूप से एक नई शुरुआत है, इसे नये भीम युग के आगाज के रूप में लिया जा सकता है. यह संक्रमण काल है, पुराना छूट रहा है, नया पूरी तरह आया नहीं है. ब्राह्मणवादी रीति रिवाज़ जन्म से मृत्यु तक और मृत्यु के बाद तक भी पिंड नहीं छोड़ते हैं, पर अब लग रहा है आधुनिक भारत के बहुजन युवा इस मनु समर्थित ब्राह्मणवाद का पिंडदान करके ही दम लेंगे.
(लेखक शून्यकाल के संपादक हैं तथा दलित-आदिवासी और घूमंतू जनजातियों के बीच काम करते हैं.)