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Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतअमेरिका में ओबामा राष्ट्रपति, तो भारत में मायावती प्रधानमंत्री क्यों नहीं

अमेरिका में ओबामा राष्ट्रपति, तो भारत में मायावती प्रधानमंत्री क्यों नहीं

भारत में अब तक कोई दलित-आदिवासी पीएम नहीं बना. जगजीवन राम इस कुर्सी के बेहद करीब पहुंच कर रह गए. अमेरिका के श्वेतों ने ओबामा को राष्ट्रपति बनाया, क्या भारत के सवर्ण ऐसा कर पाएंगे?

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आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर यह बहस तेज होती जा रही है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा? पितृसत्तात्मक भारतीय राजनीति में यह सवाल सदैव ‘कौन होगा’ के रूप मे ही सामने लाया जाता है, न कि ‘कौन होगी’ के तौर पर!

उत्तर प्रदेश में बसपा-सपा के मध्य हुआ गठबंधन और सपा प्रमुख अखिलेश यादव का यह ऐलान कि ‘मायावती जी का अपमान मेरा अपमान होगा’ जैसे घोष वाक्य ने भारतीय राजनीति में बहन मायावती के बढ़ते दबदबे को स्वीकार्यता प्रदान की है. इसके तुरंत बाद राजद नेता तेजस्वी यादव का मायावती से मिलने जाना और रिश्तों की गर्मजोशी उत्तर भारत मे दलित-पिछड़ों के बीच बरसों से जमी हुई बर्फ के पिघलने का बड़ा राजनीतिक संकेत है.

भारतीय राजनीति की लौह महिला  हैं मायावती

बसपा सुप्रीमों ने दलित बहुजन मूलनिवासी आंदोलन के हार्डकोर कैडर की आलोचनाओं को सहते हुए अपनी छवि को निरन्तर सर्वजन की नेत्री तक ले जाने का साहस भी किया. यह एक रिस्क था, जिसमें सब कुछ दांव पर था. जो बुनियादी तबका यानी कोर वोट उनके साथ है, उसका भी साथ छूट सकता था और संभावित वोट के साथ नहीं आने का जोखिम था. लेकिन बहन मायावती ने वह जोखिम भी लिया, क्योंकि सपा के साथ गठबंधन टूटने के बाद बसपा का अकेला वोट बैंक पार्टी को सत्ता तक पहुंचा पाने के लिए नाकाफी था. 2006 में बसपा के संस्थापक कांशीराम की मृत्यु के बाद पार्टी को संभाले रखना और अपने नेतृत्व को स्थापित रखना एक महिला के लिए कितनी बड़ी चुनौती होगी, इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है.

भारत के जातिवादी मीडिया की तमाम कोशिशों के बावजूद बहन मायावती ने अपने को हर दृष्टि से एक बेहतरीन प्रशासक, चतुर राजनीतिज्ञ और कुशल संगठक के रूप में साबित किया. वे 90 के दशक के बाद की भारतीय राजनीति की वास्तविक लौह महिला बनकर उभरीं, निखरीं और स्वतः स्थापित भी हुईं.

मायावती ने राज्यसभा से त्यागपत्र देने से लेकर, गुजरात ऊना कांड, रोहित वेमुला प्रकरण, अजा जजा कानून के बदलाव से उठे दलित प्रतिरोध आंदोलन सहित विभिन्न मौकों पर यह भी जता दिया कि वे अपने कोर वोट के प्रति उतनी ही संवेदनशील है, जितनी उनसे अपेक्षा की जा रही है.

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भारतीय राष्ट्र राज्य के समावेशी होने का प्रश्न

खैर, अभी सवाल बसपा या बहन मायावती को खुद को साबित करने का नहीं है. यह भारतीय राष्ट्र राज्य और भारत के समाज के लिए खुद को अपने ही बनाये पिंजड़ों को तोड़ पाने का मौका है.

एक राष्ट्र के रुप में भारत उन ऐतिहासिक गलतियों को सुधार सकता है, जो उसके राष्ट्र जीवन में हुई है. मसलन आज़ादी के तुरन्त बाद भारत के पास एक अवसर था कि वह वंचितों की सबसे प्रमुख आवाज़ डॉ. भीमराव अंबेडकर को देश का पहला प्रधानमंत्री बना कर पूना पैक्ट के जख्मों की मरहम लगाए, पर वह नहीं हो पाया.

डॉ. आंबेडकर ने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष व प्रथम कानून मंत्री के तौर पर इस देश को अपना सर्वश्रेष्ठ दिया, लेकिन देश के तत्कालीन कर्णधारों के पास जो मौका था, वह उसका लाभ नहीं उठा पाये.

देश के पास दूसरा अवसर 1978-79 में आया जब जनता पार्टी सरकार बिहार से आने वाले लोकप्रिय गांधीवादी दलित नेता बाबू जगजीवन राम को देश की बागडोर सौंप सकती थी. लेकिन उन्हें रक्षा मंत्री व उप-प्रधानमंत्री तक ही रोक दिया गया. 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान रक्षा मंत्री होने और उस दौरान मिली जीत के कारण जगजीवन राम के व्यक्तित्व में जबर्दस्त चमक थी. लेकिन उनकी अनदेखी की गई.

बाद में यह अवसर वी पी सिंह, एच डी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल व अन्य गठबंधन सरकारों के वक्त दलित परिवार से आने वाले नेता राम विलास पासवान को प्रधानमंत्री बनाने के रूप में मौजूद रहा, पर भारतीय समाज और उसके जातीय दम्भ से सनी राजनीति से यह साहस नहीं हो पाया.

1947 में जन्मे इस राष्ट्र के जीवन में 2019 फिर से यह मौका मुहैया करवा रहा है कि वह अपनी ऐतिहासिक भूलों को सुधारते हुए बहन मायावती को इस देश की पहली दलित प्रधानमंत्री के रूप में अवसर दें. यह भारतीय राष्ट्र के अपने अब तक के जीवन काल का सबसे महत्वपूर्ण फैसला हो सकता है. यह न केवल एक ऐतिहासिक गलती का सुधार होगा, बल्कि सदियों से दमित वंचित दलित आबादी को सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पद देकर उन वर्गों का भरोसा व आत्मविश्वास जीतने का भी काम हो सकता है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दलित और आदिवासी भारत की एक चौथाई आबादी है. यानी देश का हर चौथा आदमी या तो दलित है या आदिवासी. उन्हें राष्ट्र निर्माण में वाजिब स्थान दिए बगैर बनने वाला राष्ट्र अधूरा ही होगा.

क्या भारत को भी मिलेगा ओबामा मोमेंट?

एक राष्ट्र व एक समाज के रूप में भारत के लिए अपनी पितृसत्ता की जकड़न से मुक्त होने का भी यह अवसर होगा कि देश की सबसे वंचित आबादी की एक महिला, जिसकी कोई राजनीतिक वंशावली नहीं है, जो एक दलित की बेटी है, उसे देश का शासक होने का अवसर मिले. अमेरिका की ब्लैक आबादी को बराक ओबामा के रूप में दिए गए अवसर जितना ही महान वैश्विक सन्देश भारत दे सकता है.

अमेरिका की 13 प्रतिशत ब्लैक आबादी ओबामा को कभी राष्ट्रपति नहीं बना सकती थी. ओबामा को वहां के श्वेत लोगों ने अपना राष्ट्रपति चुना. क्या भारत के ओबीसी और सवर्ण उतने उदार साबित हो पाएंगे?

सहत्राब्दियों के जाति दंश से पीड़ित एक समाज के लिए भी जाति दम्भ की बीमारी से मुक्ति की दिशा में यह बेहतरीन मौका है, ताकि मनुस्मृति के स्त्री व शूद्र विरोधी निषेधों को राजनीतिक रूप से ही सही, तोड़ा जा सके. भारत के जातिवादी समाज के लिए यह अपनी सबसे खतरनाक जाति की बीमारी से लड़ने की दिशा में उठाया जाने वाला ईमानदार कदम माना जायेगा.

मीडिया भी अपने मनुवादी प्रभाव से मुक्त हो

मेरा यह मानना है कि बहन जी केवल वंचितों की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण देश की नेता साबित होंगी. यह भारत के मनुस्ट्रीम मीडिया के लिए भी प्रायश्चित का अच्छा मौका बन सकता है. रात दिन दलित-पिछड़े नेतृत्व को गाली देने, उन्हें भ्रष्ट व निक्कमा साबित करने और उनकी राजनीति को जातिवादी साबित करने के धतकरम से उनको मुक्ति मिलेगी.

कुल मिलाकर अगर बहन जी को 2019 में प्रधानमंत्री के रूप में मौका मिले तो यह इस देश व समाज के स्वास्थ्य के लिए तो ठीक रहेगा ही, यह मनुस्मृति को नकारने, पितृसत्ता को तोड़ने व जातिजन्य लाईलाज व्याधियों से मुक्ति की दिशा में जरूरी कदम होगा.

भारतीय समाज व राष्ट्र को सामने दिख रहे इस ऐतिहासिक मौके का लाभ लेना चाहिए तथा अपनी बची खुची सम्पूर्ण उदारता का इस्तेमाल करते हुये निर्विवाद व निर्विरोध बहन जी को भारत का प्रधानमंत्री बनाने की दिशा में लग जाना चाहिये.

(लेखक शून्यकाल वेबसाइट और यूट्यूब चैनल के संपादक हैं. दलित-आदिवासी एवं घुमन्तू वर्गों के साथ कार्यरत हैं)

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