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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतमहात्मा गांधी के अलावा और भी नेता थे, जो नेहरू के 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के दौरान मौजूद नहीं थे

महात्मा गांधी के अलावा और भी नेता थे, जो नेहरू के ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के दौरान मौजूद नहीं थे

एक तरह से हम यह भी कह सकतें हैं कि ये सभी गणमान्य व्यक्ति उस भयावह हिंसा को देखने से बच गये, जो स्वतंत्र भारत के उनके सपने के हकीकत मे पूरा होने से पहले हीं पूरे भारत को लहू-लुहान कर चुकी थी.

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14 अगस्त की मध्य रात्रि को भारत वर्ष की सभी तत्कालीन नामचीन हस्तियां आज़ादी का जश्न मनाने मे मशगूल थीं और उसी रात जवाहरलाल नेहरू द्वारा दिया गया ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ नाम का भाषण सदैव के लिए उनके नाम के साथ जुड़ा हुआ है, पर उस रात्रि कुछ ऐसे भी अग्रणी नेता थे, जो दिल्ली में मनाए जा रहे इस चमकदार जश्न से गायब थे. इसके अलावा कुछ नाम ऐसे भी थे, जो अपने संघर्षों से मिली इस आज़ादी को देखने के लिए जीवित ही नहीं थे और हर कोई उनकी कमी बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था.

गायब नेताओं की फेहरिस्त मे सबसे पहला नाम था. मोहन दास करमचंद गांधी. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का यह पुरोधा- जिन्हें सारा देश सुभाष चंद्र बोस द्वारा 1944 में रेडियो प्रसारण में पहली बार दिए गये ‘राष्ट्रपिता’ के संबोंधन से हीं पुकारता है, उस दिन कोलकता मे थे. वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा ‘वन मैन बौंड्री फोर्स’ कहे जाने वाले इस नेता ने उस वक्त अपने आप को पूरी तरह से शहर मे उठ रही दंगो की लपटों को शांत करने के प्रति समर्पित कर रखा था.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष आचार्य कृपलानी, जो बिहार में चंपारण आंदोलन (1917) के दिनों से गांधी के प्रमुख सहयोगी थे, भी कलकत्ता में उनके साथ थे और दिल्ली में हो रहे समारोह से लापता थे.


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अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें ‘फ्रंटियर गांधी’ के नाम से जाना जाता है, भी इस जश्न से पूरी तरह से अलग-थलग थे. क्योंकि उनकी कर्मभूमि उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत अब पाकिस्तान का हिस्सा बन चुकी थी. जब कांग्रेस ने विभाजन के निर्णय को स्वीकार कर लिया, तो अब्दुल गफ्फार खान ने गहरे दुख के साथ शिकायत की थी कि आपने हमें भेड़ियों के सामने फेंक दिया है. (खुदाई खिदमतगार, अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान की आत्मकथा का गुजराती अनुवाद, पृष्ठ -191)

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एक और प्रमुख हस्ती जो उस दिन के समारोह से दूर थीं, वे थीं मेडलिन स्लेड. अभिजात वर्ग के एक ब्रिटिश परिवार में जन्मी मेडलिन स्लेड भारत आते हीं महात्मा गांधी की करीबी सहयोगी बन गईं. जिन्होंने उन्हें मीराबेन का नाम दिया. उस समय वह ऋषिकेश के पास पहाड़ियों में काम कर रही थी, लेकिन उन्होंने उत्सव खत्म होने तक मैदानों में नहीं जाने का फैसला किया था. (एक साध्वी की जीवनयात्रा, मीराबेन की आत्मकथा का गुजराती अनुवाद, पृष्ठ 265)

जो जश्न मानने को जिंदा ही नहीं थे

इसके अलावा एक लंबी सूची उन नामों की है जो आज़ादी का जश्न अपनी आंखों से देख पाने के लिए जिंदा ही नही थे. इनमे सबसे उपर हैं. नेताजी ’सुभाष चंद्र बोस’. उन्हीं बोस के कोलकाता में गांधी एक एकाकी व्यक्ति के रूप में रह रहे थे. 62 साल तक जीवन साथी के रूप मे साथ निभाने वाली कस्तूरबा को वे 1944 में पुणे की आगा खान जेल मे सजा काटते समय खो चुके थे. गांधी के अपरिहार्य सचिव रहे महादेव देसाई का भी अगस्त 1942 में इसी जेल में निधन हो गया था.

1944 में जब गांधी को स्वास्थय के आधार पर रिहा किया गया तब तक वे अपने सबसे करीबी दो सहयोगियों का उसी ब्रिटिश जेल में अंतिम संस्कार कर चुके थे. गांधी के एक और सहयोगी जमना लाल बजाज, जिन्हें वे अपना पांचवा बेटा मानते थे, भी भारत को स्वतंत्र देखने के लिए जीवित नहीं रह सके थे.

ब्रिटिश साम्राज्य से रायबहादुर की उपाधि पाने वाले बजाज गांधी से मुलाकात के बाद उनके लक्ष्य के सहयोगी बन गये और उन्होंने ने ही महात्मा गांधी को महाराष्ट्र के वर्धा में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो अंततः गांधी का आधार केंद्र बन गया. श्री बजाज के आग्रह पर हीं गांधी जी ने वर्धा के पास सेवाग्राम में एक आश्रम शुरू किया था. श्री जमना लाल बजाज का 1942 में 53 वर्ष की आयु में निधन हो गया.

गांधी जी के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने से पहले हीं लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल की प्रसिद्ध तिकड़ी आज़ादी की जंग मे सक्रिय थी. लेकिन 1930 के दशक तक इन तीनों की मृत्यु हो गई. दूसरी तरफ गोपाल कृष्ण गोखले, सीआर दास, मोतीलाल नेहरू और विट्ठलभाई पटेल जैसे नेता उदारवादी राजनीति के चैंपियन थे. उनमें से कुछ जैसे पाल- आंदोलन से अलग हो गए थे और उनकी मृत्यु से पहले हीं उन्हें लगभग भुला दिया गया था.

जर्मनी के स्टटगार्ट में पहली बार भारतीय ध्वज फहराने वाली क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी मैडम भीकाजी कामा भी लाल किले पर पहली बार भारतीय तिरंगा फहराते हुए देखने से पहले हीं मौत का शिकार हो चुकी थीं. 1936 में अपनी मृत्यु से पहले के अंतिम कुछ वर्षों के दौरान, मैडम कामा स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहीं थीं. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक और वर्तमान मे भाजपा के पसंदीदा नायक पंडित मदन मोहन मालवीय ने जब 1946 में अंतिम सांस ली तो आजादी के लिए बातचीत जारी थी.

1930 के दशक में काल कलवित हो जाने वाले अन्य लोगों में शामिल हैं- एमए अंसारी जैसे प्रगतिशील मुस्लिम नेता ( जिन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाला था) और प्रसिद्ध तैयबजी परिवार से आने वाले अब्बास तैयबजी. ( जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत बड़ौदा में जज के रूप में की और फिर इसे ठोकर मार स्वतंत्रता आंदोलन मे शामिल हो गये थे.)

इनके अलावा सीएफ एंड्रयूज, जो दक्षिण अफ्रीका में अपने दिनों से हीं गांधी के सबसे पुराने सहयोगियों में से एक थे, भी जीवित नही थे. दिल्ली मे एक मिशनरी और दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज में दर्शन शास्त्र के शिक्षक एंड्रयूज को पत्र लिखते हुए गांधी उन्हें ‘चार्ली’ के रूप में संबोधित करते थे और अंत मे अपना नाम ‘मोहन’ लिख के हस्ताक्षर करते थे. 1940 मे जब दीनबंधु (गरीबों के भाई) के रूप में विख्यात सी एफ एंड्रयूज की मृत्यु हुई तो भारत की स्वतंत्रता अब भी कल्पना से परे हीं थी.

आज़ादी के तराने

20वीं शताब्दी के दो महानतम गीतकार और कवि – जिन्होंने हिन्दुस्तान को अपनी आज़ादी के तराने दिए – भी देश को स्वतंत्रता प्राप्त करते हुए देखने के लिए जीवित नहीं रह सके. मुहम्मद इकबाल जिन्होंने सारे जहां से अच्छा लिखा था और जो बाद मे पाकिस्तान के पैरोकार बन गये थे – भी पाकिस्तान के अपने सपने को साकार होते देखने से पहले 1938 में जन्नत जा चुके थे.

रवींद्रनाथ टैगोर गांधी और नामी-गिरामी कवियों के सहयोग भरे साथ के दूसरे छोर का प्रतिनिधित्व करते हैं. राष्ट्रवाद से संबंधित अपने कुछ अनुदार विचारों और गांधी के कुछ क्रियाकलापों से असहमति मे बावजूद भी उनके बीच संबंध मधुर थे. टैगोर भी उनके ‘जन-गण-मन ’ को स्वतंत्र भारत के राष्ट्रगान के रूप में अपनाए जाने से बहुत पहले हीं, 1941में इस दुनिया से प्रस्थान कर चुके थे.


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प्रसिद्ध गुजराती कवि झवेरचंद मेघानी – जिनकी सराहना गांधी और टैगोर दोनों करते थे- भी मार्च 1947 में स्वतंत्रता दिवस के कुछ महीने पहले हीं ईश्वर को प्यारे हो गये थे. गुजराती में उनके साहित्यिक योगदान के लिए विख्यात इस साहित्यकार की कविता ‘छोटे कटोरो ज़ेर नहीं आ पी जाजो बापू’ ( विष की यह अंतिम बूंद पी लो बापू) 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए भारतीय दल का नेतृत्व करते समय गांधी की पीड़ा को पूरी तरह से चित्रित करती है.

एक तरह से हम यह भी कह सकतें हैं कि ये सभी गणमान्य व्यक्ति उस भयावह हिंसा को देखने से बच गये, जो स्वतंत्र भारत के उनके सपने के हकीकत मे पूरा होने से पहले हीं पूरे भारत को लहू-लुहान कर चुकी थी.

(लेखक अहमदाबाद स्थित वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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