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Monday, 23 December, 2024
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गांधी, लोहिया और कांशीराम: कितने पास-कितने दूर

समकालीन भारतीय इतिहास के इन तीन महान व्यक्तित्वों ने राजनीति और समाज पर गहरी छाप छोड़ी. तीनों का रास्ता अलग था, लेकिन उनमें कई समानताएं भी थीं

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अभी बीते मार्च महीने में भारत के दो महान व्यक्तित्वों – राम मनोहर लोहिया और मान्यवर कांशीराम का जन्म दिवस था. मैं इनमें महात्मा गांधी को भी शामिल कर रहा हूं और इन तीनो में एक तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास कर रहा हूं. यह विचित्र लग सकता है कि इनकी विचारधारा में जब इतना बड़ा अंतर है, फिर इनमें तुलना का क्या अर्थ है.

इनमें कालक्रम के हिसाब से गांधी सबसे पहले आते हैं, फिर लोहिया और अंत में कांशीराम. ये तीनों समाज सुधारक के साथ-साथ नेता भी थे. भारतीय राजनीति में इन तीनों का गहरा प्रभाव है. इनका प्रभाव न केवल तब तक रहा, जब तक ये जीवित रहे, बल्कि अभी भी राजनीति में इनका स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है.

ये तीनों लोग सांप्रदायिक राजनीति के विरोध में रहे. अगर राजनीतिक दलों के दावों की बात करें तो कांग्रेस गांधी से प्रेरणा लेती है, समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां लोहिया से प्रेरणा लेती हैं और बहुजन समाज पार्टी कांशीराम से प्रेरणा लेती है.

इन तीनों महान विचारकों की दृष्टि स्पष्ट थी. इसके लिए इन्होंने जीवन भर मेहनत की. ये चाहते तो पद ले सकते थे, लेकिन इन्होंने कभी पद की परवाह नहीं की. गांधी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के निर्विवाद नेता थे. आज़ादी का आंदोलन इन्हीं की अगुआई में लड़ा गया. शुरूआती दौर में लोहिया भी गांधी के साथ थे. गांधी की मौत के बाद 1948 में ये कांग्रेस से बाहर आये और फिर सोशलिस्ट पार्टी बनाई. वे 1967 तक संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे. ये कांग्रेस और नेहरू की राजनीति के घोर विरोधी थे. इनका मानना था कि कांग्रेसी राज में पिछड़ों और दलितों को उनका हक मिलना असम्भव है.


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लोहिया ने जाति व्यवस्था का गहरा विश्लेषण किया. इसके साथ-साथ कांशीराम ने हिन्दू धर्म और उसकी ब्राह्मणवादी व्यवस्था को भी चुनौती दी. लोहिया की राजनीति प्रतिनिधित्व की राजनीति थी. कांशीराम की राजनीति प्रतिनिधित्व के साथ साथ हिन्दू धर्म की वैधता को चुनौती देने की भी थी. कांशीराम फुले-अम्बेडकरवादी परम्परा के थे. अम्बेडकरवादी विचारधारा को उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाने का काफी श्रेय उनको है.

कांशीराम ने गांधीवाद को खुलेआम अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि गांधी वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे. कांशीराम लोहियावाद को भी नहीं मानते थे, क्योंकि उनके अनुसार लोहिया गांधीवादी और इस नाते वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे. प्रतिनिधित्व की जो राजनीति लोहिया ने की, उस राजनीति ने दलित-पिछड़ों में उनके हकों के लिए चेतना पैदा की. यह भी कहा जा सकता है कि इस चेतना को जब अम्बेडकरवाद की विचारधारा का सहारा मिला, तो उससे कांशीराम के लिए राजनीतिक जमीन तैयार हुयी.

गांधी, लोहिया और कांशीराम तीनों ने सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन किये. गांधी ने जहां देश की आज़ादी के लिए असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन किया, वही कांशीराम ने बहुजन समाज के उत्थान के लिए अनेक आंदोलन किये जैसे बहुजन भाईचारा आंदोलन, दलित–मुस्लिम भाईचारा आंदोलन, आंबेडकर मेला, मंडल कमीशन लागू करो आंदोलन आदि. कांशीराम ने साइकिल से गांव गांव जाकर अपने आंदोलन के लिए लोगों को तैयार किया. इसके लिए उन्होंने 15,000 किलोमीटर की साइकिल यात्रा की.

गांधी अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा थे. सारी पार्टी उनके पीछे चलती थी. जीवन भर वे अपनी पार्टी के निर्विवाद नेता रहे. लोहिया भी अपनी पार्टी के निर्विवाद नेता थे. कांशीराम भी जीवन भर अपनी पार्टी के नम्बर वन नेता रहे.

जीवन में लोहिया को ज्यादा महत्व नहीं मिला. उन्हें जीवन के अंतिम 5-6 साल में जरूर महत्व मिला. लोहिया की विचारधारा के अनुसार पिछड़ों के प्रतिनिधित्व की राजनीति 1990 के बाद ज्यादा प्रभावी हो गई. खासकर मंडल कमीशन लागू होने के बाद. खासकर यूपी और बिहार में लोहिया को मानने वालों की कई बार सरकार बनी. यह दिलचस्प है कि लोहिया खुद सिर्फ दो बार चुनाव जीत पाए. कांशीराम को भी अपने जीवन के अंतिम दशक में ही महत्व मिला. देखते ही देखते उनकी बनाई बीएसपी वोट शेयर के मामले में देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई. इनका भारतीय राजनीति पर व्यापक प्रभाव है.


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गांधी और लोहिया दोनों की पृष्ठभूमि में कई समानताएं थीं. मसलन दोनों की शिक्षा विदेश में हुई. दोनों ने पश्चिमी आधुनिक शिक्षा प्राप्त की और विदेश में रहे. दोनों वैश्य समाज से आते थे. दोनों आज़ादी के लिए लड़ाई में कई बार जेल भी गए.

लोहिया नेहरू की राजनीति के घोर विरोधी थे. इस विरोध में वे कई बार निजी हद तक गए. नेहरू की राजनीति को चुनौती देने के लिए 1962 में वे नेहरू की संसदीय सीट फूलपुर से चुनाव में खड़े हुए. कांशीराम भी कांग्रेसी राजनीति के सख्त खिलाफ थे. वे भी कांग्रेसी राजनीति को चुनौती देने के लिए 1989 में राजीव गांधी की संसदीय सीट अमेठी से खड़े हुए थे.

लोकतंत्र में तीनों का विश्वास था. तीनों ने अपना लक्ष्य पाने के लिए अहिंसात्मक साधनों को अपनाया. जनता में अपनी विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए तीनों ने जनांदोलन चलाया. जहां गांधी ने नेहरू को उत्तराधिकारी बनाया, वही कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी बनाया. लोहिया ने स्पष्ट तौर पर अपनी विरासत किसी को नहीं सौंपी.

गांधी को महात्मा कहा जाता है. महात्मा का अर्थ यदि महान व्यक्तित्व या महान पुरुष है, तो लोहिया और कांशीराम को भी उन्हीं अर्थो में महात्मा कहा जा सकता है. इन्होंने दलित-पिछड़ों के उत्थान के लिए अपना सारा जीवन समर्पण कर दिया.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.)

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