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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतभक्ति काल से बाबू मंगूराम तक, कहां गया जाति-विरोधी इतिहास? यह केवल जुमलों तक ही सीमित रह गया है

भक्ति काल से बाबू मंगूराम तक, कहां गया जाति-विरोधी इतिहास? यह केवल जुमलों तक ही सीमित रह गया है

राजनीतिक हेरफेर जाति-विरोधी आंदोलनों के समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक जटिलताओं के साथ इस तरह से छेड़छाड़ की जो कि उन्हें राजनीतिक लाभ दे सके.

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जाति-विरोधी आंदोलन का एक लंबा और समृद्ध सामाजिक इतिहास है. इसने बौद्ध धर्म, भक्ति परंपराओं और बाद में विभिन्न औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल से ही प्रतिरोध का सामना किया है. इस प्रकार जातिवाद-विरोध का स्पेक्ट्रम विविधतापूर्ण है, जिसमें कई प्रतीक, इतिहास शामिल हैं और जो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों तक विस्तृत है.

हालांकि, वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में, जातिवाद-विरोध के साथ जुड़ाव सेलेक्टिव है. इसकी इस तरह से मार्केटिंग की गई है और इसकी इस तरह से नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की गई है कि यह अपने वास्तविक रूप में जातिवाद विरोधी भावना को शामिल करने का एक दिखावा मात्र है. प्रमुख राजनीतिक दलों का जाति-विरोधी होने का दिखावा विभिन्न जाति-विरोधी प्रतिमानों (Paradigm) की वास्तविक समझ से रहित है, जो एक अवधि के दौरान सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से निर्मित और विकसित हुए थे.

इस प्रकार ‘जाति-विरोधी’ होना एक प्रचलित शब्द बन गया है जो तत्काल राजनीतिक रूप से अपनी ओर ध्यान खींचता है. लेकिन वह सामाजिक इतिहास क्या है जो इस शब्द का आधार बनता है? ऐसा लगता है कि किसी को इसकी परवाह नहीं है.

जाति विरोधी आंदोलन क्या हैं?

जाति-विरोधी आंदोलन उपनिवेशवाद से पहले के हैं, जिनकी जड़ें बौद्ध धर्म और बाद में कट्टरपंथी भक्ति परंपराओं में थीं. जब कोई रविदास (1450-1520) को पढ़ता है, तो वह बेगमपुरा के उनके विचार में, जातिविहीन समाज की सबसे शुरुआती कल्पना को पा सकता है. अपनी वाणी (श्री गुरु ग्रंथ साहिब, भाग 1, राग गौरी) में, रविदास एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं जो ऊंच-नीच से रहित है और जहां सामाजिक स्थिति के बावजूद समानता कायम है.

बीजक में कबीर की रचनाएं और उलटबांसी (उल्टी भाषा) शैली में उनकी कविताएं उस सामाजिक व्यवस्था को उलटने के लिए एक विचारशील दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अन्यथा अंधविश्वास और जातिगत पूर्वाग्रहों द्वारा निर्धारित होती थी. इसी तरह, तुकाराम के अभंगों, नामदेव के भजनों, संत गाडगे महाराज के कीर्तनों में जाति संरचनाओं पर सवाल उठाने और एक नई सामाजिक व्यवस्था की वकालत करने के लिए गीतों और कविताओं का इस्तेमाल किया गया.

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भक्ति परंपराओं के भीतर, जाति-विरोधी भावनाओं को सामने लाने के लिए सांस्कृतिक मंथन एक महत्वपूर्ण उपकरण था. लोगों को जागरूक करने और जातिविहीन समाज को अपनाने के लिए मनाने में काव्य और असंख्य कल्पनाशील तरीकों का उपयोग किया गया. हालांकि, इस सांस्कृतिक मंथन का प्रत्यक्ष प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र में कम ही दिखाई दिया.

20वीं सदी की शुरुआत में, आदि-हिंदू आंदोलन के उदय से उत्तर भारत में जाति-विरोधी आंदोलन को गति मिली. आर्य समाज अपने जाति-विरोधी रुख के लिए भी जाना जाता था, हालांकि विद्वानों का तर्क है कि इसमें ‘शुद्धि’ (अछूतों की शुद्धि) जैसी जातिवादी प्रथाओं को शामिल किया गया था.

इसके विपरीत, स्वामी अछूतानंद, बाबू मंगू राम मुगोवालिया, बीए संतराम और अन्य के कार्यों ने, जिनको बहुत स्वीकृति नहीं मिली, ने जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था पर स्पष्ट रूप से सवाल उठाया. बाबू मंगू राम पंजाब में आदि-धर्म आंदोलन के संस्थापक सदस्य थे. इसी तरह, स्वामी अछूतानंद का आदि-हिंदू आंदोलन दलित-बहुजन पहचान पर जोर देने पर केंद्रित था. इसने आर्य सिद्धांत पर सवाल उठाया और तर्क दिया कि दलित भारत के मूल निवासी – आदि हिंदू या मूलनिवासी – थे, जैसा कि आजकल यह धारणा काफी लोकप्रिय है.

बहुजन नेता बीए संतराम के कार्यों जैसे कि हमारा समाज, मेरे जीवन के अनुभव और अन्य ने जाति व्यवस्था के कारण होने वाली सामाजिक समस्याओं को उजागर किया. भक्ति संतों की तरह, संतराम, अपनी पुस्तक हमारा समाज में, सामाजिक स्वतंत्रता की आवश्यकता पर जोर देते हैं, समुदायों के बीच उनकी सामाजिक स्थिति के बावजूद, परस्पर मेलजोल और अंतर्विवाह की संभावना की वकालत करते हैं.

ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, ईवीआर पेरियार, इयोथी थास, काशी बाबा, कांशी राम, नारायण गुरु और पेरियार ललई सिंह यादव सहित कई जाति-विरोधी विचारकों ने अलग-अलग सार्वजनिक क्षेत्र बनाए, जिन्हें बड़े पैमाने पर समर्थन मिला. हालांकि, एक व्यक्ति जिसने उन सभी को एकजुट किया वह थे डॉ. बीआर अंबेडकर. अंबेडकर ने न केवल उनमें से प्रत्येक को बारीकी से पढ़ा, जैसा कि उनके लेखन में परिलक्षित होता है, उन्होंने अपने समकालीनों के साथ करीबी बातचीत भी स्थापित की. सामाजिक इतिहासकार नंदिनी गुप्तू ने विधान परिषदों में ‘दलित वर्गों’ के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए एमके गांधी के साथ 1932 के पूना समझौते के दौरान ‘अछूतों’ को अपने पक्ष में लामबंद करके आदि-हिंदू आंदोलन द्वारा अंबेडकर को दिए गए समर्थन पर भी प्रकाश डाला है.

जाति-विरोधी आंदोलन में अम्बेडकर का योगदान महत्वपूर्ण है, न केवल उनके सामाजिक-राजनीतिक योगदान के कारण बल्कि दलित-बहुजन हित के प्रति उनके संपूर्ण समर्पण के कारण. उनका अत्यंत शक्तिशाली जाति-विरोधी साहित्य मौजूदा वक्त में सभी विचारधारा के लोगों द्वारा पसंद किया जाता है. जाति के प्रश्न को उन्होंने उसकी उत्पत्ति, मेकैनिज़म और रोजमर्रा के व्यवहार के संदर्भ में जोड़ के देखा. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि अम्बेडकर की प्रतिबद्धता के कारण विभिन्न जाति-विरोधी क्षेत्रों को एक सामान्य नियम के तहत एकीकृत किया गया.

समस्या

जाति-विरोधी आंदोलनों, प्रतीक चिन्हों और इतिहास की विविधता के बावजूद, एक दुर्भाग्यपूर्ण लचरपन के साथ जाति-विरोधी प्रश्न उठाया जाता है, विशेष रूप से राजनीतिक क्षेत्र में. जाति-विरोधी इतिहास के प्रति यह सतही दृष्टिकोण हर चीज़ को एक ही नैरेटिव में बदलने का प्रयास करता है. यह सबसे बड़ी विडंबना है क्योंकि जाति-विरोधी प्रत्येक आंदोलन ने जाति की संरचनाओं को तोड़ने के लिए अनोखे तरीके अपनाए.

जब कोई राजनीतिक दल रविदास, बुद्ध, तुकाराम, बाबा गाडगे, या कबीर का सम्मान करने का प्रयास करती है, तो इसके लिए महत्वपूर्ण स्थलों का दौरा करने या, अधिक से अधिक, ऐसे स्थानों को सुंदर बनाने पर जोर दिया जाता है. लेकिन इन असंख्य प्रतीकों में से प्रत्येक की विरासत में अंतर्निहित ज्ञान और सांस्कृतिक पहचान की घोर उपेक्षा है.

यह छेड़छाड़ जाति-विरोधी आंदोलनों के इतिहास और सांस्कृतिक जटिलताओं को मिटा देता है, और इसके बजाय उनमें इस तरह से छेड़छाड़ करता है जो कि उनके राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप हो. सार्थक जुड़ाव और योगदान की कमी है. उदाहरण के लिए, विचार करें कि विभिन्न जाति-विरोधी आइकन के काम का पता लगाने को रिसर्च करने के लिए वास्तव में कितने पैसे दिए जाते हैं. यह लगभग नगण्य है! यदि चुनिंदा अनुसंधान अनुदान दिए भी जाते हैं, तो ये अंबेडकर जैसे अधिक खास व्यक्तियों के लिए ही होते हैं, जिसको दिखाने से तात्कालिक रूप से अच्छा-खासा राजनीतिक लाभ मिलता है.

नतीजतन, कई इतिहास जिन्होंने जाति-विरोधी आंदोलन को खड़ा किया – यहां तक कि जिन्होंने अंबेडकर को भी प्रभावित किया – पूरी तरह से भुला दिए गए और मिटा दिए गए. इसके बजाय ‘जाति-विरोध’ को एक खोखले तकिया कलाम में बदल दिया गया है जिसे चुनिंदा और अस्थायी रूप से जब भी उपयुक्त हो इस्तेमाल किया जाता है.

यह लेख दलित इतिहास माह श्रृंखला का हिस्सा है.

(के. कल्याणी अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में सहायक प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @FiercelyBahujan है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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