भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना सरीखी पार्टियां हाल के वर्षों में जो हिंदुत्ववादी राजनीति करती रही हैं उसका आधार आपस में जुड़े दो दावे हैं— एक तो यह कि धर्मनिरपेक्ष भारत में हिंदू प्रताड़ित हो रहे हैं और दूसरा यह कि आज़ादी के बाद से धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों का ‘तुष्टीकरण’ होता रहा है.
दिलचस्प बात यह है कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के जुमले को किसी ने अभी तक परिभाषित नहीं किया है. जनसंघ के एक संस्थापक तथा भाजपा के अधिकृत विचारक माने गए प. दीनदयाल उपाध्याय की स्मृति में दिए गए एक भाषण में नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘… पचास साल पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था कि मुसलमानों को न तो पुरस्कृत करो और न तिरस्कृत करो बल्कि उन्हें परिष्कृत करो. उन्हें न तो वोट की मंडी का माल बनाओ, न घृणा की वस्तु बनाओ. उन्हें अपना समझो.’
यह पहली बार नहीं है कि दूसरे भाजपा नेताओं की तरह मोदी ने भी गैरभाजपा दलों की नीतियों, कार्यक्रमों, और कार्यों की आलोचना करने के लिए ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के जुमले का इस्तेमाल किया हो. हालांकि अपने भाषण में मोदी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ से उनका क्या मतलब है, लेकिन अपनी बात रखने में वे सफल रहे.
निश्चित ही उनका इशारा भारत में मुसलमानों को कथित तौर पर दी जा रही सुविधाओं की ओर था, जिन्हें ‘सबका साथ, सबका विकास’ की उनकी परिकल्पना के तहत असली विकास हासिल करने के लिए खारिज किया जाना चाहिए.
अपनी पार्टी को सबसे अलग दिखाने के लिए भ्रामक, अस्पष्ट और संदिग्ध जुमलों का इस्तेमाल करने का दोष सिर्फ मोदी के सिर नहीं मढ़ा जा सकता. ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के मसले ने भारतीय राजनीति को करीब तीन दशकों से परेशान कर रखा है लेकिन इस पर कभी भी पर्याप्त बौद्धिक चिंतन नहीं किया गया.
आखिर ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ है क्या?
व्यापक अर्थों में देखें तो ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को मुसलमानों से संबंधित राजनीति के दो पहलुओं— संस्थागत भेदभाव, और बेजा राजनीति के संदर्भ में देखा जाता है. हमारे संविधान में धार्मिक अल्पसंख्यकों को कुछ अधिकार दिए गए हैं, जो वक्फ सरीखी स्वायत्त संस्थाओं, मुस्लिम पर्सनल लॉ, और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसे शैक्षिक संस्थानों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करते हैं. लेकिन इन्हें अनुचित और समस्यामूलक माना जाता है.दावे किए जाते हैं कि अल्पसंख्यकों के अधिकार कानून के शासन पर आधारित धार्मिक समानता तथा धर्मनिरपेक्षता की भावना से मेल नहीं खाते.
आरएसएस के एक ख्यात विचारक बलराज मधोक ने सत्तर के दशक में प्रकाशित अपने एक लेख ‘अल्पसंख्यकों की समस्याएं और उनका समाधान’ में संविधान के समस्यामूलक पहलुओं को रेखांकित किया था, ‘अनुच्छेद 21, 30, 370 अल्पसंख्यकों के पक्ष में हैं और भेदभावमूलक है, इन्हें भारत के संविधान से निकाल देना चाहिए. संविधान में ऐसे प्रावधान किए जाएं कि भारत के नागरिकों में धर्म या पूजा पद्धति के आधार पर कोई भेदभाव न हो…. जो मुसलमान या दूसरे अल्पसंख्यक अपनी अलगाववादी प्रवृत्तियों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं उन्हें विदेशी घोषित किया जाए और वोट देने के अधिकार से वंचित किया जाए.’
‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को खास किस्म की राजनीति से भी जोड़ कर देखा जाता है. राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों को शिक्षा/आर्थिक सशक्तीकरण, चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट, मुस्लिम त्योहारों पर छुट्टी देने आदि के जो आश्वासन देते हैं उसे भी ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ कहा जाता है.
2005 में आरएसएस ने जो निम्नलिखित प्रस्ताव पास किया था उसे इस मान्यता का एक उदाहरण माना जा सकता है,‘वर्तमान यूपीए सरकार के शासन में मुस्लिम तुष्टीकरण के दानव ने जिस तरह फिर से अपना सिर ऊपर उठाया है उसकी अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल निंदा करता है. यह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मुसलमानों को 50 फीसदी आरक्षण देने का फैसला कर चुका है और अब यह इस यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा देने के हाइकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने जा रहा है. ये सब इसकी तुष्टीकरण की नीति के ठोस सबूत ही हैं. बताया जाता है कि इस सरकार ने सभी कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को निर्देश भेजा है कि वे मुसलमानों को आरक्षण देने के मामले में आंध्र प्रदेश सरकार का अनुकरण करें. इसका यह निर्देश भी उतना ही निंदनीय है.’
‘सेक्युलर’ प्रतिक्रिया
दिलचस्प बात यह है कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के बारे में हिंदुत्ववाद की जो धारणा है उसका सेक्युलरवादी जवाब कोई वैकल्पिक विचार नहीं प्रस्तुत करता. हालांकि वह मुस्लिम समुदाय के बहुस्तरीय ढांचे और उसकी उपेक्षा की बातें तो करता है लेकिन तुष्टीकरण की संभावनाओं, उसके अर्थों, स्वरूपों और प्रभावों आदि पर गंभीर बौद्धिक/राजनीतिक चिंतन नहीं करता.
‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को बस हिंदुत्ववादी प्रोपोगैंडा बताकर खारिज कर दिया जाता है. हिंदू तथा मुस्लिम, दोनों तरह की सांप्रदायिकता का विरोध करने वाले विद्वानों ने भी ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का कोई महत्वपूर्ण विश्लेषण नहीं प्रस्तुत किया है.
भारतीय राजनीति में शाहबानो प्रकरण का जो आकलन मुशीरुल हसन ने प्रस्तुत किया है वह इस भ्रामक स्थिति को अच्छी तरह रेखांकित करता है. उन्होंने लिखा है, ‘समान नागरिक संहिता पर आज़ादी के बाद से लगातार बहस जारी है. मुस्लिम कठमुल्लापन बदलाव का स्पष्ट तौर पर विरोध करता रहा है और उदारवादी सोच मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के मुखर पक्षधर हिंदू विचारकों के दखल के चलते निरंतर धुंधला होता गया है…. मुस्लिम वोटों को गंवाने के डर से सरकार अपनी चाल बदलने की हिम्मत नहीं जुटा पाती है… राजीव गांधी ने सलमान रश्दी की ‘सेटेनिक वर्सेस’ पर प्रतिबंध थोप दिया, तो उनके उत्तराधिकारी वीपी सिंह ने पैगंबर मुहम्मद के जन्मदिन पर राष्ट्रीय छुट्टी घोषित कर दी. और अंततः, मुसलमानों को मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार की सुरक्षा) अधिनियम, 1986 से, तथा समान नागरिक संहिता को कानूनी जामा पहनाने से परहेज़ करके तुष्ट किया गया.’ (मुशीरुल हसन, ‘लेगसी ऑफ अ डिवाइडेड नेशन’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1997, पेज 270).
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि हसन उस हिंदुत्ववादी राजनीति की निंदा कर रहे हैं जिसने समान नागरिक संहिता से संबंधित विमर्श को हड़प लिया. वे इस्लामी कठमुल्लेपन की भी निंदा करते हैं, जिसका समर्थन सरकारी तंत्र ने शाह बानो मामले में किया. फिर भी, हसन यह नहीं स्पष्ट करते कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की उनकी परिभाषा क्या है. इसलिए हमारे पल्ले कुछ उलझन भरे सवाल रह जाते हैं— क्या ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ वैसे ही राजनीतिक कदमों को माना जाएगा, जो राजीव गांधी की सरकार ने उठाए थे?
क्या इसका अर्थ यह है कि सभी मुसलमान राजीव गांधी को इसलिए वोट देने जा रहे थे क्योंकि शाह बानो मामले में वे ‘स्वेच्छा से’ तुष्ट हो गए थे? अगर ऐसा है, तो ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के बारे में हसन की धारणा आरएसएस की अवधारणा से भिन्न कैसे है?
सच्चर के बाद के दौर में ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’
2006 में सच्चर रिपोर्ट के प्रकाशन ने ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ के विचार को नया मोड़ दे दिया. एक सरकारी दस्तावेज़ के तौर पर इस रिपोर्ट ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि भारत के मुसलमान सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं और हाशिये पर पड़े हैं. हालांकि रिपोर्ट ने इस बात पर पूरी स्पष्टता से ज़ोर दिया है कि मुस्लिम समुदाय का ढांचा विविधतापूर्ण एवं गहरे परतों में बंटा है, ‘मुस्लिम उत्पीड़न’ भारतीय राजनीति के एक नए आधार के रूप में आकार लेना शुरू कर दिया है.
खासकर गैरभाजपा दलों ने इस रिपोर्ट का उपयोग यह जताने के लिए किया कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ दरअसल हिंदुत्ववादी ताकतों का गढ़ा हुआ मिथक है और यह कि मुसलमानों से एक बहिष्कृत समुदाय के तौर पर बरताव किया जाना चाहिए.
हिंदुत्ववादी राजनीति ने इस प्रतिक्रिया के मद्देनज़र खुद को बदल लिया. तर्क दिया गया कि कांग्रेस ने मुसलमानों को सशक्त बनाने में कोई गंभीर रुचि नहीं ली. उन्हें केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि वे और हाशिये पर चले गए और बहिष्कृत हो गए.
यह भी कहा गया कि सबके साथ समान व्यवहार करने के भाजपा के संकल्प ने इसके शासन वाले राज्यों में भी मुसलमानों को फलने-फूलने में मदद की. ज़रा गौर कीजिए कि लालकृष्ण आडवाणी ने सच्चर रिपोर्ट का किस तरह आकलन किया है,‘… मेरा ख्याल है, गुजरात को जस्टिस सच्चर का आभार मानना चाहिए कि उसने देश के सामने यह पूरी ताकत से सिद्ध कर दिया है कि नरेंद्रभाई मोदी के राज में मुसलमानों कि स्थिति दूसरे राज्यों में उनके भाइयों से बहुत बेहतर है.’
इस तर्क ने आगे चलकर पार्टी के इस जुमले को जन्म दिया— ‘विकास सबका, तुष्टीकरण किसी का नहीं’.
2014 के बाद के भारत में ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को नया राजनीतिक जीवन मिल गया है. भाजपा इस तथ्य को स्थापित करने में सफल रही है कि मुसलमानों को मुसलमान कहना भी एक तरह का तुष्टीकरण है. इस दावे का असर इतना गहरा है कि तथाकथित सेक्युलर, हिंदुत्व विरोधी, गैर भाजपा दलों ने भी खुद को धीरे-धीरे मुसलमानों से दूर करना शुरू कर दिया है ताकि उन पर ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का ठप्पा न लगे.
‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ और ‘अच्छे मुसलमान’
‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ की धारणा मुस्लिम समरसता, मुस्लिम समुदाय की एकजुटता की तस्वीर पर टिकी है. लेकिन, सभी राजनीतिक दलों में यही माना जाता है कि ‘अच्छे मुसलमानों’ को ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ से कभी लाभ नहीं मिला.
दरअसल, ये ‘अच्छे मुसलमान’ चेतन बुद्धिजीवियों के रूप में एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं— या तो एक मिथक के तौर पर ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का खंडन करने के लिए या ‘विकास सबका, तुष्टीकरण किसी का नहीं’ नारे पर ज़ोर देने के लिए.
इन ‘अच्छे मुसलमानों’ की मौजूदगी इस तथ्य को रेखांकित करती है कि ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ मुसलमानों की वस्तुपरक सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का बयान नहीं करता बल्कि यह राजनीति का ही एक रूपक है.
यह अस्पष्ट, भ्रामक रूपक मुसलमानों में भय पैदा करने के मकसद से बड़ी चालाकी से गढ़ा गया है. यह उन्हें कहता है कि तुम तो लाड़-प्यार से रखे गए लोग हो, भले ही वे खुद को वंचित महसूस करते हों. इस तरह यह उनमें मनोवैज्ञानिक असंगति पैदा करता है. यह स्थिति उन्हें समानता या इंसाफ की मांग करने से रोकती है.
मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा इस मामले में कोई अपवाद नहीं है. उसके मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नक़वी, ज़फर इस्लाम, नजमा हेपतुल्लाह कुलीन मुसलमान हैं, जिनका तुष्टीकरण ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नाम पर हो रहा है. जी हां, अच्छे मुसलमानों का हमेशा तुष्टीकरण होता है.
(हिलाल अहमद विकासशील समाज अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)
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देश में बुद्धिजीवियों की कमी है।अगर मुस्लिमो का तुष्टिकरण हुआ होता तो आज हिन्दुओ से ज्यादा समृद्ध मुस्लिम होते।और आजादी के बाद सिर्फ 2 से 4 केस ही ऐसे आये है जिनमे फैसला मुस्लिमो के पक्ष में हुआ हो।बिना आधार के मुस्लिम यूनिवर्सिटी को तो निशाना बनाया जा रहा है लेकिन हिन्दू यूनिवर्सिटी में हाल में हुई घटनाओं पर कोई चर्चा ही नहीं होती की कैसे एक शिक्षक को सिर्फ मुस्लिम होने की वजह से कार्यभार से वंचित किया गया।और जो तिरस्कार व शक की निगाहों से मुस्लिम समाज के लोगो को देखा जाता है और जितना उत्पीड़न किया जाता है ,अगर इन सब के बदले वास्तव में अगर मुस्लिमो का तुस्टीकरण हो तो वह इसकी भरपाई नहीं कर सकता।