ऐसा लगता है कि गलवान अतिक्रमण ने, दशकों से चली आ रही शांति को ख़त्म कर दिया है. सच्चाई ये है कि सभी प्रस्तावों और समझौतों की क़ीमत ये रही है, कि भारत हमेशा एक प्रतिक्रियावादी मुद्रा में फंसा रहा है, तैयारियों के मामले में चीन से एक क़दम पीछे रहा है, और आज चीन के ताज़ा उकसावे, और हर घटना से जुड़े दुष्प्रचार से निपटने के लिए, हाथ पैर मार रहा है.
ज़्यादा चिंता ये है, कि सिद्धांत रूप में दोनों पक्षों को सुनिश्चित करना है, कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के दो किलोमीटर के अंदर बंदूक या तोपें इस्तेमाल नहीं करके, तनाव को क़ाबू में रखा जाए. लेकिन सीमा को लेकर भारत और चीन की समझ अलग अलग है. जो बात समझी नहीं जा रही वो ये है, कि चीन ने अभी तक अच्छे से ज़ाहिर कर दिया है, कि वो भारत के साथ सीमा विवाद सुलझाने में रणनीतिक रूप से इच्छुक नहीं है, और एलएसी पर सहमति व उसकी निशानदेही से इनकार करके, भारत को असंतुलित रखना चाहता है. वो अब ऐसे नए दावे पेश कर रहा है, जो पहले कभी सामने नहीं रखे गए थे. नतीजा ये है कि शांति मान लिए जाने के बावजूद, सीमाएं दशकों से विवादित चली आ रही हैं, और भारत का क्षेत्र निरंतर कुतरता जा रहा है.
ये बात सबसे स्पष्ट तौर से उस घटना से समझी जा सकती है, जो 1967 में नाथू ला में घटी थी. उस अहम घटना से काफी कुछ सीखा जा सकता है.
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नाथू ला की लड़ाई
9 सितम्बर 1967, सुबह 7.45 बजे…नाथू ला की भारतीय साइड.
चीन की ओर से महीनों से चले आ रहे आक्रामक अतिक्रमण, झड़प, धक्का-मुक्की, और हाथापाई की घटनाओं के बाद, एक जोशीले भारतीय कमांडर ने कटीले तारों की एक बाढ़ बनाकर, एक रेड लाइन खींचने का फैसला किया, ताकि आमने सामने की मुठभेड़ों से बचा जा सके. चीनियों की ओर से तर्कों और धमकियों के बीच, इस पर कुछ दिन पहले ही थोड़ा थोड़ा काम शुरू हुआ था.
भारतीय सैनिक अपने ही क्षेत्र में थे, और खुले में थे. वहीं पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिक भी थे, जो उन्हें फेंस पर काम करने से रोक रहे थे. अचानक चीनी मोर्चों की तरफ से ज़बर्दस्त ऑटोमैटिक फायरिंग शुरू हो गई. भारतीय बटालियन कमांडर ले. कर्नल राय सिंह के सीने पर गोलियां लगीं और वो गिर गए, लेकिन गिरते गिरते भी उन्होंने एक लाइट मशीन गन पकड़ी, और उस चीनी ऑफिसर को ढेर कर दिया, जो उन्हें धमका रहा था. (ले. कर्नल राय सिंह बच गए, और बाद में उन्हें महावीर चक्र से नवाज़ा गया).
चीनियों को अपने लोगों की चिंता नहीं थी, जो मारे गए थे, क्योंकि वो भी खुले में ही थे. भारतीय टुकड़ियों ने जवाबी हमले शुरू कर दिए. दोनों ओर हताहतों की संख्या बढ़ने लगी. पांच घंटे बाद, फॉरमेशन कमांडर तत्कालीन मेजर जनरल सागत सिंह ने, अपनी पहल पर तोपख़ाने को भारी गोलाबारी का आदेश दे दिया (चार दिन तक दोनों ओर से तोपें चलती रहीं). अवलोकन चौकियों से पूरी चुम्बी घाटी नज़र आ रही थी, और प्रभाव बेहद विनाशकारी था. चीनियों पर अंदर तक गोले फेंके गए थे, इसलिए वो बहुत ग़ुस्से में थे, क्योंकि उन्हें भारी जानी नुक़सान हुआ था- क़रीब 300 मौतें-, लेकिन लाथू ला भारत के ही हाथों में रहा. तब तक, तक़रीबन 80 बहादुर भारतीय अपनी जान गंवा चुके थे.
कुछ हफ्ते बाद ही चीनियों ने फिर वही हरकत की, और एक अक्तूबर को क़रीब के चो ला में, हाथापाई के बाद एक जेसीओ को संगीन भोंक दी. इससे गुरखा रक्षकों का ग़ुस्सा भड़क उठा. वो अपनी डरावनी खुखरियां लेकर पीएलए सैनिकों के पीछ भाग पड़े, और उस चौकी को फिर से हासिल कर लिया, जिसे चीनियों ने क़ब्ज़ा लिया था. एलएसी स्थिर हो गई.
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सिक्किम को सुरक्षित करना
उससे दो साल पहले 1965 में, जब पाकिस्तान के साथ हालात बिगड़ रहे थे, तो चीनियों ने सिक्किम की सीमाओं पर अपना जमावड़ा शुरू कर दिया था. पूरी तरह रक्षात्मक सोच वाली भारतीय सैन्य योजनाओं में आंकलन किया गया, कि चीन को एलएसी (वॉटर शेड और दर्रों) पर नहीं रोका जाना चाहिए, बल्कि भारतीय मोर्चों की ओर खींचना चाहिए, जो कुछ किलोमीटर अंदर सिक्किम में थे. इसके लिए 1967 में सिक्किम की रक्षा के लिए ज़िम्मेदार, दो फॉरमेशन कमांडर्स को आदेश दिया गया कि वो दर्रों को ख़ाली कर दें (एक मामले में नाथू ला, और दूसरे मामले में जेलेप ला), और अपनी तैयार शुदा लाइन्स की तरफ पीछे हट जाएं.
जेलेप ला के लिए ज़िम्मेदार फॉरमेशन ने तो आदेशों का पालन किया (और इस तरह जेलेप ला चीनियों के हाथ में चला गया, जिन्होंने भारतीय टुकड़ियों के वहां से हटते ही, उस पर क़ब्ज़ा कर लिया), लेकिन उस समय के मेजर जनरल सागत सिंह अपनी जगह जम गए, और उन्होंने ये दलील देते हुए पीछे हटने से इनकार कर दिया, कि नाथू ला को ख़ाली करने से, न सिर्फ वॉटरशेड बल्कि सिक्किम, यहां तक कि ‘चिकन नेक’ की सुरक्षा को भी ख़तरा पैदा हो जाएगा, जो उसे भारत से जोड़ता था.
जिस समय लड़ाई छिड़ी, ले. जनरल सैम मानेकशॉ ईस्टर्न आर्मी कमांडर थे, और उन्होंने सागत सिंह का पूरा साथ दिया. (कहा जाता है कि जब ये झड़प शुरू हुई तो मानेकशॉ नई दिल्ली में थे, और सेना प्रमुख का काम देख रहे थे क्योंकि उस समय के सेनाध्यक्ष जनरल पीपी कुमारमंगलम देश से बाहर थे.) जब मानेकशॉ को इस घटना की ख़बर पहुंची, तो उन्होंने अपने अनोखे अंदाज़ में वहां मौजूद लोगों के सामने कहा: ‘मुझे डर है कि वो बिना प्रिंस के ही हैमलेट का मंचन कर रहे हैं. अब मैं आपको बताता हूं कि मैं इससे कैसे निपटूंगा.’ इस कड़े रवैये ने चीनियों को हैरत में डाल दिया, क्योंकि उन्होंने सोचा था कि वही रक्षात्मक मानसिकता हावी रहेगी, और जेलेप ला की तरह एक भी गोली चलाए बिना, वो नाथू ला को क़ब्ज़ा लेंगे. ख़ूनी झड़प और उसके बाद हुए तोपों के टकराव में, भारतीय सैनिकों ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया, जिसने चीनियों को हैरत में डाल दिया, जो सीमा चौकियों पर लगे लाउडस्पीकर्स के ज़रिए, हर वक़्त 1962 के युद्ध को लेकर बीन बजाया करते थे.
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एक नई रणनीति
नाथू ला और गलवान के बीच भयानक समानताएं हैं- उनकी तैयारियों का पता था, चीनी बड़ी आक्रामकता से गश्त कर रहे थे, धमकियां दे रहे थे, और लगातार भारतीय सैनिकों को दबाव में लेने के प्रयास कर रहे थे. अंतर ये है कि उस समय भारतीय सेना कड़े प्रोटोकोल्स से बंधी हुई नहीं थी, वो केवल प्रतिक्रियात्मक नहीं थी, और स्थानीय कमांडरों को उनसे ऊंचे कमांडरों की ओर से, अपने इलाक़े को बचाने लिए लड़ने की आज़ादी मिली हुई थी. गलवान में भी हमारे सैनिकों ने, लड़ाई के प्रतिबंधात्मक नियमों से बंधे होने के बावजूद, पूरी बहादुरी का परिचय दिया. बीस जांबाज़ों ने सर्वोच्च बलिदान दे दिया, जिसके लिए देश उन्हें हमेशा याद रखेगा.
हमें विदेश नीति की रक्षात्मक सोच के शिकंजे से आज़ाद होना होगा, जो 70 साल पहले विकसित हुई थी, ख़ासकर इसलिए कि सीमा विवाद आज भी वहीं है, जहां 1950 के दशक में था. हमें इस सच्चाई को समझना होगा, कि कड़े प्रोटोकोल्स से बंधे, और आधुनिकता से वंचित, हमारे सुरक्षा बलों की बहाहुरी ही हमारा आख़िरी बचाव है. चीनियों से निपटने के लिए एक नई दृढ़ता की ज़रूरत है, जो कूटनीतिक बारीकियां नहीं बल्कि ताक़त की भाषा पहचानते हैं.
(लेखक एक प्रकाशक और सैन्य इतिहास के लेखक हैं. व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं.)
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