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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतमंडल से लेकर मोदी तक, ओबीसी की कई उप-श्रेणियां बनाने का विचार खराब राजनीति के चक्रव्यूह में फंसा

मंडल से लेकर मोदी तक, ओबीसी की कई उप-श्रेणियां बनाने का विचार खराब राजनीति के चक्रव्यूह में फंसा

जो भी सामाजिक नीति का पक्षधर है, उन्हें मांग करनी चाहिए कि 27 प्रतिशत आरक्षण को बांटने के बाबत बने रोहिणी आयोग की सिफारिशें सरकार महामारी के उतार के तुंरत बाद जारी करे.

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ओबीसी के कई उप-श्रेणियां बनाना यों तो एक अच्छा विचार है लेकिन ये अच्छा विचार एक गंदी राजनीति के चक्रव्यूह में है. पहले तो इस विचार का ही रास्ता रोका गया, फिर स्वीकृति मिली लेकिन स्वीकार की वजहें गलत रहीं और अब ओबोसी के भीतर उप-श्रेणियां बनाने की पहल को अगले कुछ और समय तक के लिए टरकाया जा रहा है. जाहिर है, ऐसा किसी भलमनसाहत से तो हो नहीं रहा सो, ये वक्त ओबीसी को कई उप-श्रेणियों से बनी एक महाश्रेणी समझने के विचार को जल्द और जायज तरीके से अमलीजामा पहनाने के लिए जोर लगाने का है.

24 जून को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने रोहिणी आयोग की कार्यावधि का विस्तार किया. इस आयोग को ये सुझाव देने का जिम्मा दिया गया है कि केंद्र सरकार ओबीसी को मिले 27 प्रतिशत कोटे को किस तरह अलग-अलग उपश्रेणियों के बीच बांटे और ये भी कि क्या ऐसा करना जरूरी है. न्यायमूर्ति जी. रोहिणी की अध्यक्षता में बना आयोग पांच सदस्यों का है और इसकी कार्यावधि का 9वीं बार विस्तार किया गया है.

आयोग 2017 के अक्तूबर माह में बना था, तब इसे 12 हफ्ते के भीतर यानि कर्नाटक में होने जा रहे चुनाव के आस-पास अपनी सिफारिश सौंपने के लिए कहा गया था. ये बात स्पष्ट है कि सिफारिशों को सौंपने में अगर देरी हो रही है तो उसकी वजह ये नहीं कि आयोग किसी साफ निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाया है या फिर उसे अपना काम पूरा करने के लिए और ज्यादा समय की जरूरत है. आयोग मसले पर अपनी सिफारिशें 2018 में ही तैयार कर चुका था लेकिन इसके बाद से एक न एक बहाने की ओट लेकर सरकार खुद ही ऐसी कोशिशें करती रही कि उसका दामन साफ बच जाये और आयोग की सिफारिशों की शक्ल में जो बम वह फोड़ना चाह रही, वो दूसरे के पाले में फूटे.


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विचार तो अच्छा है….

ओबीसी नाम की बड़ी श्रेणी को उप-श्रेणियों में बांटने का खयाल साफ और सीधा है. ओबीसी किसी परंपरित समुदाय का नाम तो है नहीं. यह प्रशासनिक सुविधा के लिए गढ़ा हुआ एक अवैधानिक ‘नाम’ भर है और इस नाम के भीतर कई सामाजिक-समूहों तथा समुदायों को रख दिया गया है. ऐसा करने के पीछे एकमात्र कारण रहा वंचना के शिकार इन समूहों और समुदायों का अगड़ी जाति के हिन्दुओं की तुलना में सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा होना. ओबीसी की केंद्रीय सूची में जो 4000 जातियों-उपजातियों के नाम दर्ज हैं उनमें कम से कम चार कोटियां ऐसी निकलकर सामने आती हैं जिनमें काफी ज्यादा का फर्क है.

एक कोटि है हिन्दीपट्टी में भूस्वामित्वधारी जाट, यादव, कुर्मी तथा कर्नाटक में वोक्कालिंगा और महाराष्ट्र में कुनबी सरीखे किसान समुदाय का. दूसरी कोटि में बड़ी तादाद में ऐसे किसान समुदाय नजर आते हैं जो संख्या-बल के लिहाज से छोटे कहे जायेंगे और ये भी दिखता है कि उनके पास खेती-बाड़ी की अपनी जमीन बहुत कम है. तीसरी कोटि कारीगर जातियों जैसे जुलाहे, लोहार, बढ़ई तथा हस्तशिल्प के अन्य कामों में लगे लोगों की है. चौथी कोटि परंपरागत रूप से सेवा फराहम करने वाली जातियों जैसे धोबी, नाई, गवैयों आदि की है. एक पांचवी और ढंकी-दबी कोटि भी घुमन्तू समुदायों तथा उन लोगों की नजर आती है जो परंपरागत रूप से लांछित समझे जाने वाले पेशे जैसे भीक्षाटन या फिर ‘अपराध’-कर्म करते हैं.

अब अगर ओबीसी नाम की ये महाश्रेणी इतनी बड़ी है कि उसमें एक तरफ जाट, यादव, कुर्मी, कुनबी और वोक्कालिंगा सरीखी एक हद तक साधन-सम्पन्न जातियां हैं तो दूसरी तरफ धोबी, नाई और एकदम ही वंचित दशा में रहने वाली घुमन्तू जातियां तो फिर इस श्रेणी को सुविधा-सम्पन्नता के धरातल में एक सरीखा मानकर कैसे देखा जा सकता है. ओबीसी नाम की महाश्रेणी के भीतर कुछ जातियां तो ऐसी हैं जिनके सदस्य अगड़ी जाति के लोगों से बस रत्ती भर पीछे हैं जबकि कुछ जातियां ऐसी हैं कि उन्हें दलित समुदाय से भी हीन दशा में जीवन-यापन करता माना जा सकता है. अगर असमानता इतनी ज्यादा है, फिर भी सुविधा-सम्पन्नता के धरातल पर आपस में भिन्न ओबीसी नाम की महाश्रेणी में शामिल इन जातियों को एक साथ करके चलें, जैसा कि अब तक होता रहा है, तो फिर जाहिर है कि इस महाश्रेणी में शामिल जातियों के सदस्यों के लिए प्रतिस्पर्धा के अवसर समान न होंगे. अचरज नहीं कि मंडल आयोग की सिफारिशों के अमल में आने के तीन दशक बाद हम देखते हैं कि नौकरियों की एक बड़ी तादात ऊपर बतायी गई पहली कोटि की चंद जातियों के सदस्यों के हिस्से में चली गई है.

ओबीसी नाम की महाश्रेणी के भीतर मौजूद इस गैर-बराबरी से निपटने का एक सीधा-सरल तरीका है इस महाश्रेणी को हासिल 27 फीसद के आरक्षण को दो या तीन कोटियों में बांट देना. कारण बड़ा साफ है, जिन वजहों से ओबीसी को आरक्षण देना जरूरी है ठीक उन्हीं कारणों से ओबीसी के बड़े दायरे में शामिल सर्वाधिक पिछड़ी जातियों की सदस्यों को उपलब्ध आरक्षण में से हिस्सा देना जरूरी है. ऐसा करने में कानून की कोई अड़चन भी नहीं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने मशहूर इंदिरा साहनी मामले में इस विचार को मान्यता दी थी और अदालत का वो फैसला अब भी बाध्यकारी है.

गंदी राजनीति

मुश्किल कानून की नहीं बल्कि राजनीति के मोर्चे पर है. बेहतर तो यही था कि ओबीसी महाश्रेणी के भीतर शामिल विभिन्न कोटि की जातियों को उनके हिस्से का आरक्षण 1990 में ही दे दिया जाता जब मंडल आयोग की सिफारिशों को अमलीजामा पहनाया गया था. दरअसल, मंडल आयोग की रिपोर्ट में एक नोट असहमति का भी था जिसमें उपलब्ध आरक्षण को विभिन्न उपश्रेणियों में बांटने की सिफारिश की गई थी लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने के लिए लामबंद प्रभुत्वतशाली किसान-समुदायों तब कोटे को उपश्रेणियों में बंटने नहीं दिया. इसके बाद जब शिक्षा संस्थानों में ओबीसी आरक्षण की बात आयी तो भी ये कोटे को उपश्रेणियों में बांटने के कठिन सवाल पर चुप्पी साधी गई.

अगर बीजेपी ने मसले को उठाया है तो इसलिए कि उसे एक सच्चाई का शिद्दत से अहसास हो चला था. बीजेपी को लग रहा था उसके खीसे में ओबीसी की महाश्रेणी में शामिल भूस्वामित्वधारी जातियां नहीं आ पायी हैं और उसे अपने को मजबूत बनाये रखने के लिए ओबीसी के बड़े दायरे में शामिल अन्य पिछड़ी जातियों को अपने पाले में खींचे रखना होगा. यही वजह रही जो राहिणी आयोग बनाया गया. मीडिया में इस आशय की कई खबरें आयी हैं कि आयोग 27 फीसद के आरक्षण को विभिन्न उपश्रेणियों में बांटने के विचार से राजी है.

तो फिर अब के वक्त में बीजेपी के लिए क्या मुश्किल आ गई जो 27 फीसद आरक्षण को विभिन्न उप-श्रेणियों मे बांटने की बात उसे आसानी से हजम नहीं हो रही है? दरअसल, बीजेपी के सामने मुश्किल ये है कि अब उसे लग रहा है, ओबीसी के बड़े दायरे में शामिल जो चंद बड़े किसान-समुदाय हैं, उनके बीच भी उसे अच्छा-खासा समर्थन हासिल है. ऐसे में, बीजेपी ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहती जो इन समुदायों की नाराजगी का सबब बने और ये समुदाय उससे दूर हो जायें. यों भी, जातियों को विभिन्न कोटियों मे बांटकर देखने की राजनीति बड़ी जोखिम भरी होती है. इसी कारण पार्टी ने तय किया कि 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले 27 प्रतिशत आरक्षण को उप-श्रेणियों में बांटने के खेल खेलना ठीक नहीं.

और, बिहार के चुनावों से पहले भी पार्टी को यही फिक्र सता रही है जो रोहिणी आयोग के कार्यकाल को विस्तार देने की जुगत लगायी गई. अचरज नहीं जो कल को आपको ये भी खबर मिले कि रोहिणी आयोग 2021 की जनगणना के आंकड़ों का इंतजार कर रहा है और उन आंकड़ों के आ जाने के बाद ही अपनी रिपोर्ट फाइनल करेगा. जाहिर है, फिर हमें उस घड़ी का इंतजार ही करना होगा जब सरकार को लगे कि रोहिणी आयोग के रिपोर्ट के निष्कर्षों को सार्वजनिक करने का यही माकूल मौका है. ऐसा वक्त 2022 में भी आ सकता है और 2038 में भी. या फिर, ये भी हो सकता है कि पार्टी देश की जनता का ध्यान किसी खास मुश्किल से भटकाने के लिए रोहिणी आयोग की रिपोर्ट की बातों को अपने चुने हुए मौके पर जारी करे.


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आगे की राह

जो कोई भी दूरगामी महत्व की सुविचारित सामाजिक नीति का पक्षधर है, उसे मांग करनी चाहिए कि ओबीसी के बड़े दायरे में शामिल विभिन्न उपश्रेणियों के बीच 27 प्रतिशत के आरक्षण को बांटने के बाबत जो रोहिणी आयोग बनाया गया है, उसकी सिफारिशों को सरकार महामारी के उतार के तुंरत बाद जल्दी से जल्दी जारी करे. बहस का असल मुद्दा ये नहीं बनना चाहिए कि ओबीसी आरक्षण के भीतर उपश्रेणियों के लिए कोटे का बंटवारा किया जाये या नहीं. मसले से जुड़ी गंभीर मोर्चा है उपश्रेणियों की ठीक-ठीक सूची तैयार करना और बगैर हकमारी करते हुए हर सूची के लिए कोटे में से हिस्सा निकालना. अदालत ने बारंबार कहा है कि ऐसा वर्गीकरण मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता. सूची को विश्वसनीय तथ्यों के आलोक में ही बनाया जाना चाहिए और आयोग इस काम में जुटा जान पड़ता है.

एक मुश्किल ये जानने में भी है कि जातिवार जनगणना के अभाव में देश की कुल आबादी के भीतर किसी जाति-विशेष की ठीक-ठीक संख्या का आकलन कैसे किया जाये. अच्छा होता कि वर्गीकरण राज्य स्तर पर किया जाता क्योंकि राज्यवार किसी जाति-विशेष की सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति में बदलाव देखने को मिलता है. इन सबके लिए जरूरी है कि मुद्दे पर सुचिन्तित और गंभीर बहस-मुबाहिसा चले.

या फिर ये मानकर चलें कि मौजूदा सरकार इस इंतजार में है कि उसकी लोकप्रियता का ग्राफ यों ही नीचा जाता रहा और उसकी वैधता को कोई संकट आन घेरता है तो वो उपश्रेणियों के बीच कोटे के बंटवारे की घोषणा का इस्तेमाल किसी राजनीतिक ब्रह्मास्त्र के रूप में करे लेगी? क्या ऐसी घोषणा सामाजिक-आलोड़न का ऐसा शमां बांधेगी कि उसके आगे देश में हो रही लोकतंत्र की धीमी मौत का सच छिप जायेगा? कहते हैं, ऐसे अशुभ खयाल जेहन में नहीं लाया करते. बेशक, खयाल नागवार है लेकिन फिर इससे बचने का तरीका ये तो नहीं हो सकता न कि आप सच्चाई से आंख मूंद लें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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