पिछले सप्ताह तक, मुझे जस्टिस (रिटायर्ड) एएम खानविलकर न्यायिक इतिहास में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के संबंध में सबसे खराब निर्णयों में से एक के लेखक के रूप में याद थे. सुप्रीम कोर्ट ने मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम कानून (PMLA) के कई कठोर प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था, जिनमें प्रवर्तन निदेशालय (ED) को गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती के लगभग मनमाने अधिकार, आरोपी पर सबूत देने की उलटी जिम्मेदारी, आत्म-अभियोगी बयान आदि शामिल थे. उस डिवीजन बेंच के फैसले के बाद, जिसका लेखन जस्टिस खानविलकर ने किया था, कानून का जैसे नया सिद्धांत बन गया—‘दोषी जब तक निर्दोष साबित न हो जाए.’
मेरी सीमित कानूनी समझ के अनुसार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के लिहाज से यह 1976 के एडीएम जबलपुर मामले के बाद दूसरा सबसे खराब फैसला था. जस्टिस खानविलकर ने जुलाई 2022 में अपने रिटायर होने से ठीक दो दिन पहले यह फैसला लिखा था, जिससे ईडी और नरेंद्र मोदी सरकार को बड़ा सहारा मिला.
पिछले साल फरवरी में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश को लोकपाल—भारत के भ्रष्टाचार-रोधी लोकपाल संस्था—का अध्यक्ष नियुक्त किया गया. अब वे ‘मानवीय’ लोकपाल के रूप में याद किए जा रहे हैं—वह लोकपाल जिसे कभी कार्यकर्ताओं अन्ना हज़ारे और अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्ट लोगों के लिए शनि देव या धर्मराज यम के समान न्याय के देवता के रूप में पेश किया था. यह बदलाव लोकपाल के लिए सात लग्ज़री बीएमडब्ल्यू कारों की टेंडर प्रक्रिया से झलकता है—एक चेयरपर्सन खानविलकर और अन्य सदस्यों के लिए—जिनकी कुल कीमत करीब 5 करोड़ रुपये है.
सोचिए, वे भी इंसान हैं. अगर नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद स्कॉर्पियो से बीएमडब्ल्यू में बैठ सकते हैं, तो जो लोग उनकी जांच करने का अधिकार रखते हैं, वे भी बीएमडब्ल्यू में सवार हो सकते हैं, है ना? समस्या सिर्फ यह है कि लोकपाल ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ बन गया है, जैसा कि मेरी सहयोगी अपूर्वा मंधानी के शानदार विश्लेषण से पता चलता है.
उन्होंने 2023 से लोकपाल की वेबसाइट पर उपलब्ध 620 अंतिम आदेशों का अध्ययन किया. 2019 से अब तक, लोकपाल ने केवल 34 मामलों में जांच के आदेश दिए और केवल 7 मामलों में अभियोजन की अनुमति दी. इनमें बैंक अधिकारियों या लोक सेवकों से जुड़े मामूली मामले थे, जैसे कर्मचारियों के वेतन की हेराफेरी या फर्जी यात्रा बिल.
अब तक जिन प्रमुख नामों की लोकपाल ने जांच कराई है, वे हैं तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के दिवंगत प्रमुख शिबू सोरेन—दोनों के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सांसद निशिकांत दुबे की शिकायतों पर. लोकपाल ने पिछले साल प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एक शिकायत को खारिज कर दिया था, जबकि प्रधानमंत्री के खिलाफ दर्ज चार अन्य शिकायतों की स्थिति अस्पष्ट है.
अब आप समझ गए होंगे कि हम लोकपाल को ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ क्यों कह रहे हैं (अरुंधति रॉय से क्षमा सहित). जब प्रधानमंत्री मोदी भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार चलाने की बात करते हैं, तो वे चाहें तो लोकपाल अध्यक्ष जस्टिस (रिटायर्ड) खानविलकर को इसका समर्थन करने के लिए बुला सकते हैं.
खाली पड़े पद, लंबित अपीलें
लेकिन सिर्फ लोकपाल की ही बात क्यों करें? भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) का क्या? यह एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, जो मनमोहन सिंह सरकार के दौरान लगभग हर दिन सुर्खियों में रहती थी. याद है, कथित कॉमनवेल्थ गेम्स (CWG) और 2G स्पेक्ट्रम घोटाले? और सरकारी योजनाओं के कठोर प्रदर्शन ऑडिट? उस समय के सीएजी विनोद राय एक तरह से ‘रॉक स्टार’ बन गए थे, क्योंकि विपक्ष एक के बाद एक सीएजी रिपोर्टों का सहारा लेकर मनमोहन सिंह सरकार पर हमला करता था.
अब क्या बदल गया है? खैर, सीएजी की रिपोर्टें अब भी आ रही हैं, लेकिन उनमें पहले जैसी ‘चुभन’ और ‘काट’ नहीं है. कुछ मामलों में सीएजी अब भी सख्त है, लेकिन भाजपा को इससे खास फर्क नहीं पड़ता. उदाहरण के लिए, कई रिपोर्टों में सीएजी ने दिल्ली की पिछली अरविंद केजरीवाल सरकार को शराब नीति से सरकारी खजाने को हुए नुकसान, कोविड फंड्स की ‘भारी गड़बड़ी’, दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन में वित्तीय कुप्रबंधन आदि के लिए दोषी ठहराया.
केंद्र की किसी मंत्रालय से जुड़ी गड़बड़ी पर सीएजी ने बहुत कम बार सवाल उठाया है. एक दुर्लभ मामले में सीएजी ने द्वारका एक्सप्रेसवे के निर्माण में भारी लागत बढ़ने पर आपत्ति जताई थी. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी उस रिपोर्ट से परेशानी में आ गए थे. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी अब सीएजी को भी बुलाकर अपनी ‘भ्रष्टाचार-मुक्त सरकार’ के दावे का समर्थन करवा सकते हैं.
सूचना का अधिकार कानून (RTI) कभी कई घोटालों को उजागर करने का अहम साधन था—जैसे महाराष्ट्र का आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला.
लेकिन अब यह कानून लगभग निष्प्रभावी हो गया है. मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली है और आठ आयुक्तों के पद भी रिक्त हैं. केंद्रीय सूचना आयोग केवल दो आयुक्तों के साथ काम कर रहा है, और बताया जाता है कि 25,000 से अधिक अपीलें और शिकायतें लंबित हैं.
इस महीने की शुरुआत में द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख The RTI is dead. Long Live the RTI (आरटीआई खत्म हो गई है. आरटीआई अमर रहे) में, आरटीआई आंदोलन के प्रमुख निखिल डे और अरुणा रॉय ने इस कानून को कमजोर करने के हालिया प्रयास की ओर इशारा किया. उन्होंने लिखा, “डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट (DPDPA) आरटीआई कानून की ताकत और उपयोगिता को पूरी तरह खत्म करने की धमकी देता है… धारा 44(3) आरटीआई कानून में संशोधन करती है, और ‘निजता’ तथा ‘व्यक्तिगत जानकारी’ की सुरक्षा के बहाने यह सुनिश्चित करती है कि कानून लागू होने के बाद कोई भी व्यक्ति किसी के कार्यों के लिए उसका नाम पूछ या प्राप्त नहीं कर सकेगा.”
मोदी नेहरू नहीं हैं
और किन तरीकों से कोई घोटाला या स्कैम सामने आ सकता है? हम ईडी और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) की बात तो कर ही नहीं सकते. और इसके लिए मोदी सरकार को राजनीतिक हथियार बना देने का दोष भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि वे हमेशा से ही ऐसे रहे हैं. आज बस आप उनकी निर्लज्जता के स्तर पर चर्चा कर सकते हैं. एक समय था जब केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) भी सुर्खियों में आता था. लेकिन पिछले एक दशक से ऐसा नहीं हुआ है.
फिर कुछ ईमानदार और संवेदनशील अधिकारी हुआ करते थे, जो खुद ही भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाकर व्हिसलब्लोअर बन जाते थे. ऐसे ही दो अफसरों को देखिए जिन्होंने हरियाणा की भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई थी — आईएएस अधिकारी अशोक खेमका और आईएफएस अधिकारी संजीव चतुर्वेदी. जब भाजपा विपक्ष में थी, तब ये दोनों उसके लिए नायक थे. लेकिन जब 2014 में भाजपा केंद्र और राज्य दोनों जगह सत्ता में आई, तो ये अफसर फिर से ‘अवांछित’ हो गए. खेमका को जल्द ही यह समझ में आ गया कि मोदी सरकार उन्हें केंद्र में नहीं बुलाना चाहती.
हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर सरकार को भी यह व्हिसलब्लोअर अफसर पसंद नहीं था. वे पिछले साल अप्रैल में रिटायर हुए, और अपने आखिरी कुछ साल अपेक्षाकृत गुमनामी में बिताए. संजीव चतुर्वेदी को भी मोदी सरकार से कोई विशेष समर्थन नहीं मिला. वे अब केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं.
इन दोनों भ्रष्टाचार-विरोधी अधिकारियों की स्थिति ने पूरे सिविल सर्विस समुदाय को एक साफ संदेश दे दिया है.
अब आज के समय में भ्रष्टाचार को कौन उजागर करेगा? शायद जनप्रतिनिधि. याद है, कैसे फिरोज गांधी ने संसद में मुंद्रा घोटाले का पर्दाफाश किया था, जिसके चलते तत्कालीन वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी को इस्तीफा देना पड़ा था — और यह सब उनके ससुर और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए भी शर्मिंदगी की बात थी.
यह घोटाला 1957 में जीवन बीमा निगम (LIC) द्वारा कोलकाता के कारोबारी हरिदास मुंद्रा की कंपनियों में 1.26 करोड़ रुपये के निवेश से जुड़ा था. 68 साल बाद, द वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट ने मोदी सरकार की उस योजना पर विवाद खड़ा कर दिया है, जिसके तहत 3.9 अरब डॉलर की एलआईसी फंड राशि अडानी समूह की कंपनियों में लगाने की बात कही गई है.
फिरोज गांधी के पोते राहुल गांधी ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा निशाना साधेंगे. लेकिन मोदी, नेहरू नहीं हैं — जिन्होंने आरोपों की जांच के लिए समिति बनाई थी और टीटीके को पद से हटाया था. मोदी सरकार विपक्ष के हमलों को झेलने और उन्हें थका देने के लिए जानी जाती है.
सभी भ्रष्टाचार-रोधी संस्थाएं, निकाय और तंत्र अब या तो निष्क्रिय हैं या धीरे-धीरे कमजोर पड़ रहे हैं, जबकि प्रधानमंत्री मोदी अपनी ‘निर्दोष सरकार’ की छवि दिखा रहे हैं. वे शायद अब बीएमडब्ल्यू की सवारी करना ही पसंद करेंगे.
डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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