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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतभारत के समाजवादी नेताओं ने चेताया था कि चीन सबसे बड़ा दुश्मन है लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने नज़रअंदाज किया

भारत के समाजवादी नेताओं ने चेताया था कि चीन सबसे बड़ा दुश्मन है लेकिन कांग्रेस और भाजपा ने नज़रअंदाज किया

राम मनोहर लोहिया से लेकर जॉर्ज फर्नांडीस और मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी विचारक और नेता हमेशा ये कहते रहे हैं कि भारत की विदेश नीति के केंद्र में चीन को होना चाहिए.

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भारत की विदेश और सामारिक नीति पूरी तरह से पाकिस्तान केंद्रित रही है. इस वजह से भारत के नीति नियंता चीन से आने वाले खतरे को देख पाने में अक्षम रहे हैं. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. चीन ने 50 के दशक में तिब्बत पर कब्जा करके अपनी सीमा को भारत तक बढ़ा लिया, तब भी भारत को कोई खतरा नहीं महसूस हुआ. 1962 में चीन ने भारत पर हमला करके ढेर सारी जमीन पर कब्जा कर लिया लेकिन भारत ने चीन से फिर से दोस्ताना संबंध बना लिए और जमकर व्यापार शुरू कर दिया.

चीन ने अब पूर्वी लद्दाख पर अपनी नजर गड़ा दी है और उसके ताजा हमले में हमारे सैनिक शहीद हो गए, फिर भी क्या भारत चीन को अपनी एशिया नीति के केंद्र में रखेगा? प्रस्तुत लेख में इसी सवाल का जवाब देने की कोशिश की जाएगी.

चीन और पाकिस्तान: कौन हो सकता है बड़ा शत्रु

भारत की सामरिक और विदेश नीति आजादी के बाद से पाकिस्तान को लेकर बनाई गई है. और ये ऐसी ही चली आ रही है. ये तब है जबकि पाकिस्तान को भारत तीन युद्धों में और कारगिल की लड़ाई में हरा चुका है. पाकिस्तान की आर्थिक और सामरिक ताकत भारत के मुकाबले सीमित है और अब तक का अनुभव बताता है कि भारत को नुकसान पहुंचाने की उसकी क्षमता भी कम है.

वहीं, पश्चिमी विश्लेषकों की नजर में, चीन आर्थिक और सैन्य साजो-सामान के मामले में ज्यादा सबल है और उसकी नीतियां भी विस्तारवादी रही हैं. हाल के वर्षों में उसका वैश्विक राजनीति पर असर भी बढ़ा है, जिसके लिए उसने अपनी आर्थिक ताकत का खूब इस्तेमाल किया है.


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चीन को लेकर समाजवादी समझ

चीन और पाकिस्तान के मुकाबले, चीन को अपेक्षाकृत बड़ा विरोधी या प्रतिद्वंद्वी मानने की समझ भारतीय राजनीति में सिर्फ समाजवादी धारा में रही है. कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए पहले भी और अब भी पाकिस्तान सबसे बड़ा दुश्मन है.

राम मनोहर लोहिया से लेकर जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी विचारक और नेता हमेशा ये कहते रहे हैं कि भारत की विदेश नीति के केंद्र में चीन को होना चाहिए और इस क्रम में भारत को पाकिस्तान के साथ संबंध बनाकर चलना चाहिए. लेकिन आजादी के बाद जहां कांग्रेस पाकिस्तान से जूझती रही, वहीं बीजेपी चूंकि अपनी राजनीति में हिंदू-मुसलमान द्वैत (बायनरी) को केंद्र में रखती है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान विरोध उसकी राजनीति की प्राण-वायु यानी ऑक्सीजन है.

चीन को सामरिक और वैदेशिक नीति के केंद्र में ना रखने का खामियाजा भारत लगातार भुगत रहा है.

पाकिस्तान का भारत की नीति के केंद्र में होना ऐतिहासिक और राजनीतिक कारणों से है. आजादी की लड़ाई में गांधी के प्रभावशाली होने के बाद से कांग्रेस लगातार हिंदू केंद्रित पार्टी बनती चली गई और उसकी राजनीति में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग बढ़ गया. इससे कांग्रेस के प्रभाव का विस्तार हुआ और आजादी की लड़ाई को पहली बार बड़ा जनसमर्थन मिला लेकिन इसके साथ ही मुस्लिम लीग के फैलने का आधार तैयार हो गया. दोनों दलों के नेताओं के बीच कड़वाहट बढ़ती चली गई, जिसका परिणाम भारत के विभाजन में हुआ. लेकिन विभाजन के बाद ये कड़वाहट और बढ़ गई. इस क्रम में कश्मीर विवाद से लेकर बांग्लादेश का निर्माण और कारगिल तक की घटनाएं होती रहीं.

भारत और पाकिस्तान का चीन से रिश्ता

चूंकि भारत और पाकिस्तान एक दूसरे से लड़ रहे थे/हैं, इसलिए स्वाभाविक ही है कि दोनों देश एशिया की सबसे बड़ी शक्ति चीन के साथ दोस्ताना संबंध बनाने में भी जुटे रहे.

चीन को अपने पाले में रखने की कोशिश जवाहरलाल नेहरू ने जोर-शोर से की. उस दौर में हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे खूब लगे. ये तब हुआ, जब चीन ने 1950 में तिब्बत का अधिग्रहण कर लिया और पहली बार चीन और भारत की सीमाएं पास आ गईं, क्योंकि इससे पहले तक दोनों के बीच तिब्बत नाम का देश हुआ करता था. इस घटना को राम मनोहर लोहिया ने ‘शिशु हत्या‘ करार दिया और भारत सरकार को चीन के इरादों के प्रति आगाह किया.

लेकिन नेहरू विभिन्न कारणों से इसे समझ नहीं पाए. उन्होंने 1956 और 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई का दिल्ली में स्वागत किया और फिर 1962 में जो हुआ, वह तो इतिहास है. लद्दाख के जिस इलाके में आज हमारे जवानों की जान गई है, उस पर चीन का कब्जा उसी दौरान हुआ था. गलवान नदी घाटी को भारत तब बचा पाया था, जिस पर चीन अब दावा कर रहा है.

1962 के बाद भारत-चीन संबंध स्थगित हो गए थे लेकिन 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद दोनों देशों के संबंध फिर से सामान्य हो गए. तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन की यात्रा की जो 1962 के बाद किसी भी बड़े भारतीय नेता की पहली चीन यात्रा थी. इसके बाद फिर से चीन से संबंध सामान्य हो गए और भाईचारा बन गया.

ये भाईचारा 2014 के बाद तेजी से मजबूत हुआ. इस दौरान प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग 18 बार मिले. दोनों देशों के बीच व्यापार कई गुना बढ़ गया. चीन का भारत में निवेश 2014 में 12,000 करोड़ रुपए का था, जो अब बढ़कर 60,000 करोड़ रुपए से ज्यादा हो चुका है. अन्य रास्तों से भारत आए चीन के निवेश को देखें तो आंकड़ा दो लाख करोड़ से ज्यादा का है. टेक्नोलॉजी और टेक्नोलॉजी उत्पाद तथा फार्मा जैसे क्षेत्र में भारत का काफी सामान अब चीन से आता है.

नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग की दोस्ती दो देशों के राष्ट्र प्रमुखों के औपचारिक संबंधों के परे दिखाई गई. दोनों नेता एक दूसरे के साथ झूला झूलते, चाय पिलाते, नारियल पानी पीते नजर आए.

और फिर लद्दाख की घटना हो गई.

1962 और 2020 के बीच समाजवादियों ने लगातार सरकारों को चीन के खतरे के बारे में आगाह किया. इन समाजवादियों में दो नाम तो तत्काल ध्यान में आते हैं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में रक्षामंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडिस ने 1998 में एक इंटरव्यू में कहा था कि भारत का संभावित दुश्मन नंबर-1 चीन है. एक और समाजवादी नेता और केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव भी हमेशा ये मानते हैं कि भारत को बड़ा खतरा चीन से है. वे हमेशा ये कहते रहे हैं. 2017 में डोकलाम में चीन के विस्तारवादी कदम के बाद उन्होंने लोकसभा में कहा था कि पाकिस्तान छोटा देश है. उससे हमें सीमित खतरा है. बड़ा खतरा चीन से है.


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जाहिर है कि कांग्रेस और बीजेपी की सरकारों ने समाजवादियों की चेतावनी पर गौर नहीं किया. इसके पीछे उनके अपने राजनीतिक कारण हो सकते हैं लेकिन इसका खामियाजा देश को उठाना पड़ रहा है.

चीन को प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मानकर नीतियां बनाने का मतलब ये नहीं है कि चीन की विस्तारवादी नीतियों पर रोक लग जाएगी. लेकिन ऐसी स्थिति में भारत चुनौतियों से निपटने में ज्यादा सतर्क होगा और भारत के लिए चौंकने की नौबत नहीं आएगी.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. लेख उनके निजी विचार हैं)

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