मीडिया जगत की बीते साल की सबसे बड़ी खबर यह रही कि प्रणय और राधिका रॉय ने एनडीटीवी का स्वामित्व छोड़ दिया और उसे अडाणी समूह ने हासिल कर लिया. रॉय दंपती ने जो गरिमापूर्ण विदाई संदेश दिया वह खूबसूरती के साथ स्पष्ट करता है कि उन्होंने पत्रकारिता किस भावना से की. टीवी समाचार की बेहद बेचैन दुनिया में उनके जैसा स्थिरचित्त होना दुर्लभ है.
भारतीय पत्रकारिता का यह युग जब खत्म हो रहा है तब मुझे रॉय दंपती के साथ तीन दशक से ज्यादा के अपने संपर्कों-संवादों की याद आ रही है— तब से जब वे 1984 के आम चुनाव के लिए एक जनमत सर्वेक्षण कराने का विचार लेकर ‘इंडिया टुडे’ के दफ्तर आए थे. राधिका उस समय ‘इंडिया टुडे’ में न्यूज़ को-ऑर्डिनेटर के रूप में काम कर रही थीं और न्यूज़रूम की सूत्रधार थीं. रॉय दंपती ने इसके पांच साल बाद टीवी की दुनिया में कदम रखा था, ‘इंडिया टुडे’ समूह के साथ.
इससे पहले जब मैं ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में पूर्वोत्तर राज्यों का संवाददाता था तब राधिका न्यूज़ डेस्क पर काम कर रही थीं. हम एक-दूसरे को दूर से ही जानते थे. एक्सप्रेस के न्यूज़ डेस्क पर सबसे पहले वे ही बगावत से त्रस्त उस क्षेत्र से देर से भेजी गई मेरी रिपोर्टों को देखा करती थीं, जो आम तौर पर घेरेबंदी और मुठभेड़ों के बारे में होती थीं.
कैमरे के साथ मेरा रिश्ता तीन दशकों तक रहा है, पूरी तरह एनडीटीवी के जरिए. इसकी कहानी के जरिए मैं आपको रॉय दंपती और एनडीटीवी का आंतरिक परिचय अच्छी तरह दे सकता हूं.
इसकी शुरुआत इस तरह हुई. न्यूज़प्रिंट में रमे मेरे जैसे मेहनतकश के लिए टीवी हमेशा एक उत्सुकता का केंद्र था. इस माध्यम के साथ मेरे शुरुआती अनुभव बिखरे-बिखरे-से रहे. सबसे पहला अनुभव प्रणय रॉय के लिए लाइव प्रस्तुति देने का था.
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1988 की गर्मियों में राष्ट्रीय राजनीति इलाहाबाद के 49 डिग्री के तापमान से भी ज्यादा गरम थी. बोफोर्स खुलासे के बाद वी.पी. सिंह ने राजीव गांधी के खिलाफ बगावत कर दी थी और मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव में खड़े हो गए थे. इसने राजीव की हार, और वी.पी. सिंह के अप्रत्याशित प्रधानमंत्री बनने का मंच तैयार कर दिया था. मैं ‘इंडिया टुडे’ के लिए उस चुनाव की खबरें देने के वास्ते इलाहाबाद में था.
प्रणय दूरदर्शन के लिए चुनाव नतीजे के प्रसारण की एंकरिंग कर रहे थे. उन्होंने मुझसे पूछा कि जब वोटों की गिनती चल रही है तब क्या मैं उनके लिए इलाहाबाद से कुछ खबरें सीधे कैमरे पर (पी2सी) दे सकता हूं? उन्होंने कहा था कि यह दिलचस्प होगा. मैंने भी कहा था, ‘बेशक यह दिलचस्प होगा.’
तब मैंने टीवी समाचार को लेकर पहला और सबसे जरूरी सबक सीखा था कि जब आप टीवी पर लाइव हैं तब कुछ भी गलत हो सकता है. सारा दारोमदार आपके ऊपर होता है. वहां कोई आपको टोकने वाला, आपकी रिपोर्ट को संपादित या फिर से लिखने वाला या आपकी भयानक भूल को मिटा देने वाला नहीं होता. आपको तुरंत सोचना और करना होता है, मसलन ट्यूबलाइट की तरह फटाक से जल जाना होता है. अपने उस पहले इम्तहान में मैंने ऐसा ही किया. याद रहे, वह 1988 की टेक्नॉलजी का जमाना था, जब इलाहाबाद में ओबी वैन में कोई प्रोडक्शन कंट्रोल मेरे कान में कोई निर्देश देने के लिए मौजूद नहीं था.
उस रात जब पूरे मैदानी इलाके में लू चल रही थी, मैं माइक लेकर ओबी वैन के आगे खड़ा था और सामने एक स्टूल पर रखे छोटे-से ब्लैक-ऐंड-व्हाइट टीवी सेट पर नजरें गड़ाए था. मुझे कहा गया कि ऑटोक्यू खराब हो गया है. इसलिए आपको उस टीवी सेट पर नज़र रखनी है, जो सीधा प्रसारण दिखाएगा. जैसे ही उसके पर्दे पर आपकी तस्वीर दिखे, आपको बोलना शुरू कर देना है. अब आप समझ गए होंगे कि मैंने ट्यूबलाइट का उदाहरण क्यों दिया.
प्रणय ने मेरे उस हादसे की मुझे कभी याद नहीं दिलाई. मैंने जब अपनी आलोचना के अंदाज में उसका जिक्र किया तब भी उन्होंने इतना ही कहा कि ‘पुराना समय ऐसा ही था. ऐसा हर किसी के साथ होता था.’
उसके बाद मैं टीवी को भूल ही गया था, सिवा इसके कि मधु त्रेहन कभी-कभार ‘न्यूज़ट्रैक’ के लिए मुझे तब अपना सहयोगी एंकर बना लेती थीं जब राघव बहल छुट्टी पर होते थे. मधु मेरी देसी हिंदी को दुरुस्त करने में जुटी रहती थीं और कभी निराश नहीं होती थीं. 1993 में जब हम पहले अफ़गान जिहाद को कवर करने गए थे तब उन्होंने मेरे साथ एक टीवी दल और फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार को भी भेजा था. उस दुस्साहसिक अभियान का विवरण यहां पढ़ें.
बहरहाल, मैंने सोच लिया कि अफगानिस्तान ने मुझे टीवी न्यूज़ देना सीखा दिया है, सो मैं रॉय दंपती के पास पहुंच गया और यह पूछ बैठा कि क्या मैं उनके साथ कुछ कर सकता हूं. उस समय एनडीटीवी को स्टार न्यूज़ चला रहा था.
उन्होंने कहा, ‘देखो, अभी तुम टीवी के लिए तैयार नहीं हुए हो.’
मैंने पूछा, ‘तैयार होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?’
प्रणय ने जवाब दिया, ‘कुछ नहीं, तुम तैयार हो जाओगे तो हमें पता चल जाएगा, और हम तुम्हें बता देंगे.’
दिल्ली के ग्रेटर कैलास स्थित उनके अपार्टमेंट में बीती उस शाम को मैं भूल जाना चाहता था लेकिन मैं उसे नहीं भूला. इसकी अच्छी वजह भी है.
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मैं अपने दो प्यारे कुत्तों ‘लोगो’ और ‘ग्राफिक’ के साथ वहां समय से कुछ पहले पहुंच गया था. खाने की मेज पर छह नैपकिन सजा कर रखे हुए थे, क्योंकि कुछ देर बाद भोजन पर कुछ मेहमान आने वाले थे. रॉय दंपती आए तो मेरे कुत्तों ने खाने की मेज पर धावा बोल दिया और एक-एक कर सभी नैपकिन को उठाकर सफाई से अपने पैरों के नीचे रख दिया. करीने सजे हुए डाइनिंग टेबल को उन्होंने तहसनहस कर दिया. इस धमाल को और, आपको जब यह बताया जाए कि आप जो करना चाहते हैं उसके लिए आप पूरी तरह योग्य नहीं हैं उसे आप कैसे भूल सकते हैं. लेकिन यह संदेश बड़ी शांति से, सफाई से और शालीनता से दे दिया गया था.
समय के साथ, मैंने रॉय दंपती से एक चीज यह सीखी कि पूरी स्पष्टता मगर ‘बारीकी’ से ‘न’ कैसे कहा जाता है, हालांकि इसे मैं पूरी तरह सीख नहीं पाया.
दो साल बाद प्रणय ने फोन किया, और बाद में मुझे समझ में आया कि अब उन्हें क्यों लग रहा था कि मैं टीवी के लिए तैयार हो गया हूं. मैंने अपना साप्ताहिक कॉलम ‘नेशनल इंटरेस्ट’ लिखना शुरू कर दिया था, और उन्हें लगा था कि अब मैं एक इतना गंभीर स्वर बन गया हूं कि सप्ताह में एक बार ‘नेशनवाइड’ नामक नये शो में वैचारिक विश्लेषण प्रस्तुत कर सकूं. इस शो में एंकर खबरों की हेडलाइन पढ़ता है और एक विशेषज्ञ खबरों पर अपना मत प्रस्तुत करता है.
मुझे बताया गया कि यह ‘औपचारिक’ किस्म का शो है, इसलिए मैंने कुछ टाइयां खरीद ली और उसकी नॉट बांधना मैंने ‘डीआइवाई’ पर्चे से सीखा. लेकिन मुझे इसमें दम घुटता महसूस होता, मेरा ध्यान भटकता था, मगर कैमरे से तो कोई चीज छिप नहीं सकती. सो, मुझे प्रणय से एक दुर्लभ, संक्षिप्त उपदेश मिला, ‘याद रखो, तुम्हें कोई चीज भले बुरी लग रही हो, एंकर के सवालों से तुम परेशानी या चिढ़ महसूस कर रहे हो मगर दर्शक को इस सबसे कोई मतलब नहीं होता. यह सब अपने चेहरे से कभी जाहिर मत होने दो, कभी नहीं.’
इसी डांट से ‘वाक द टॉक’ शो का विचार जन्मा. कैमरे पर अपने चेहरे पर उभरने वाली ऊब, बेचैनी के लिए मैं टाई, लाइट, और मेकअप को जिम्मेदार बताता था. रॉय दंपती ने 2003 में जब एनडीटीवी लॉन्च किया तब मुझसे पूछा गया कि क्या मैं कोई साप्ताहिक शो करना चाहूंगा? मेरा एक सुझाव था, ‘बिना टाई लगाए, अपनी कमीज की बाहें मोड़ कर आउटडोर शूटिंग ही कर सकता हूं.’ इस तरह समझदार लोगों के साथ बातचीत का एक अनौपचारिक किस्म के मगर जानकारियों से भरे शो का विचार उभरा.
यह शो 15 साल तक चला, जिसमें 600 अतिथियों से बातचीत पेश की गई. यह शो तभी बंद हुआ जब ‘दिप्रिंट’ ने अपने वीडियो कार्यक्रम ‘कट द क्लटर’ और ‘ऑफ द कफ’ शुरू किए. ‘वाक द टॉक’ के 15 साल में कभी भी मुझसे यह नहीं कहा गया कि अमुक व्यक्ति को अपने शो में बुलाओ या अमुक को मत बुलाओ. सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि कभी भी मुझे टीआरपी जैसी भयावह चीज को लेकर कुछ नहीं कहा गया. यह शो करने का निमंत्रण दिया गया और यह बिना किसी व्यवधान के चलता रहा. आप दोनों का बहुत शुक्रिया, राधिका और प्रणय! टीवी के लिए इस मुसीबत को आपने एक दीर्घजीवी एंकर बना दिया. आपमें बहुत धैर्य है.
रॉय दंपती के अधीन एनडीटीवी ने कई चुनौतियों का सामना किया. लेकिन घालमेल से बचने, तथ्यों का सम्मान करने और चीखने-चिल्लाने की जगह बातचीत करने के चलन का पालन करने से बड़ी चुनौती कोई नहीं थी. इसलिए एनडीटीवी की झोली अगर पुरस्कारों और उपलब्धियों से भरी है तो वह उसका हकदार भी था.
न्यूज़रूम और स्टूडियो की गरिमा बनाए रखने, तथ्यों के प्रति सम्मान बरतने और किसी खबर को उसकी मूल अहमियत से ज्यादा न उछालने में कामयाबी से बड़ा संतोषप्रद शायद ही कुछ हो सकता है. यह कामयाबी आसानी से नहीं मिलती है. लेकिन जैसा कि रॉय दंपती ने साबित किया है, खबरों के इस घालमेल भरे बाज़ार में यही सबसे बड़ी पूंजी है. और इसी संतोष के साथ रॉय दंपती एनडीटीवी को नये हाथों में सौंपकर इससे विदाई ले सकता है.
आप शायद मेरी पुस्तक ‘वॉक द टॉक : डिकोडिंग पॉलिटीशियन्स’ (एनडीटीवी के लिए रूपा द्वारा प्रकाशित) की भूमिका को भी पढ़ना चाहेंगे. उसके कुछ अंश इस लेख में शामिल किए गए हैं.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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