पंजाब मुश्किलों से दो-चार है. भारत का खाद्य भंडार पंजाब दशकों तक देश का सबसे धनी राज्य था और फिर वह कई अन्य राज्यों से पीछे छूटने लगा, खासकर पड़ोसी राज्यों से. दिल्ली और गोवा के अलावा पंजाब सबसे समृद्ध राज्य था, जो हरित क्रांति के सहारे दशकों से आगे बढ़ता रहा था. भारत में 1991 के उदारीकरण के बाद, विशेषकर एनडीए के प्रथम कार्यकाल से आई आर्थिक तेज़ी के कारण सभी राज्यों में ज़ोरदार प्रगति हुई. विकासोन्मुख सुधारों और देश भर में बुनियादी ढांचों में भारी निवेश के कारण चौतरफा आर्थिक विकास का माहौल था.
2000 के दशक तक पंजाब के मुकाबले काफी गरीब रहे कई राज्यों- हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल ने बड़ी आर्थिक छलांग लगाते हुए बहुत कम समय में उसे पीछे छोड़ दिया. पंजाब न केवल इन राज्यों से पीछे हो गया बल्कि समय के साथ उनके बीच का अंतर बढ़ता गया और आज ये स्थिति है कि एक औसत हरियाणवी एक औसत पंजाबी से डेढ़ गुना अधिक अमीर है.
आर्थिक और पारिस्थितिक दोनों ही दृष्टि से पंजाब की कृषि की अस्थिर प्रकृति पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. भारत की समग्र अर्थव्यवस्था की बदलती प्रकृति, अन्य राज्यों में कृषि उत्पादकता में वृद्धि तथा खरीद और वितरण क्षमता में सुधार की वजह से खाद्य सुरक्षा अब पहले की तरह एक बड़ी चिंता का विषय नहीं रह गई है. बीते वर्षों में कई विशेषज्ञ इन मुद्दों पर विस्तार से प्रकाश डाल चुके हैं.
अपने विस्तृत शोध और हाल में नियमित रूप से प्रकाशित अपने कॉलमों में, भारत के प्रमुख कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने पंजाब के किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) आधारित धान और गेहूं से दूर हटते हुए उच्च मूल्य वाली फसलों और पशुधन पर जोर देने की आवश्यकता बताई है. वैसे अंतत:, सापेक्ष उत्पादकता के मद्देनज़र, समय के साथ उत्पादन और रोजगार में विनिर्माण और सर्विस सेक्टर की बढ़ती हिस्सेदारी के साथ कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी कम होती जाती है. दुर्भाग्य से, पंजाब में खासकर 2010 के बाद से औद्योगिकीकरण में व्यापक कमी देखी गई है.
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उद्योग-धंधों में कमी, बेरोज़गारी में वृद्धि
जालंधर, गुरदासपुर, मंडी गोबिंदगढ़ और लुधियाना के विनिर्माण केंद्रों को काफी समय से मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. वहां से आर्थिक वृद्धि में ठहराव और व्यावसायिक उपक्रमों के धड़ाधड़ बंद होने की खबरें आती रही हैं. इसका एक बड़ा कारण है अन्य भारतीय राज्यों की तुलना में पंजाब में प्रतिस्पर्धात्मकता की कमी. पड़ोसी हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड सहित कई राज्यों ने कारोबार के माहौल को आसान बनाने वाले सुधार किए हैं तथा आयकर और उत्पाद शुल्क में शत प्रतिशत छूट, रियायती दर पर कार्यशील पूंजी ऋण जैसे विभिन्न प्रोत्साहनों की पेशकश की है.
पिछले 15 वर्षों में लघु और मध्यम स्तर के उपक्रमों का पंजाब से अन्य भारतीय राज्यों में व्यापक पलायन हुआ है. इनमें बड़ी संख्या में फार्मास्युटिकल इकाइयों का हिमाचल प्रदेश तथा कॉटन यार्न, परिधान और ऊनी कपड़े से जुड़ी इकाइयों का मध्य प्रदेश का रुख करना शामिल है. साइकिल और खेल उपकरणों के उत्पादन से जुड़ी इकाइयों में भी इसी तरह का रुझान देखा गया है. चीन से आने वाले सस्ते आयातों ने स्थिति को बदतर बनाने में योगदान दिया, जिसके कारण पूरे पंजाब में औद्योगीकरण में कमी की प्रक्रिया और तेज़ हो गई. विडंबना यह है कि उद्योगों को राज्य में बनाए रखने के लिए प्रतिस्पर्धा की बजाए पंजाब ने समय के साथ व्यापार की लागत को बढ़ाने का काम किया है. इसका एक प्रमुख कारक है राज्य के किसानों को दी जाने वाली रियायती बिजली की भारी लागत.
औद्योगीकरण में निरंतर कमी और कृषि क्षेत्र के विकास में आए ठहराव का एक तात्कालिक प्रभाव उच्च बेरोजगारी दर के रूप में सामने आया है. पंजाब की बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है, राज्य के युवाओं में बेरोजगारी का स्तर भी अधिक है. पंजाब का नवीनतम आर्थिक सर्वेक्षण वहां रोजगार के अवसरों और युवाओं की आकांक्षाओं में असंतुलन को उजागर करता है, जिसकी वजह से अधिक से अधिक किसान अपने बच्चों को कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका भेजने के लिए अपनी ज़मीनें बेच रहे हैं.
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मानसिक स्वास्थ्य की बढ़ती समस्या
पिछले दो दशकों में पंजाब में बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं की गहरी चिंताजनक प्रवृत्ति भी देखने को मिली है. नवीनतम राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2016-17) के अनुसार पंजाब में कभी न कभी मानसिक बीमारियों का शिकार रहे लोगों की संख्या आबादी की 18 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है. आंकड़ों की बात करें तो राज्य में 20 लाख से अधिक लोग मानसिक रोगों से पीड़ित हैं और उनमें से अधिकांश के लिए इलाज सुलभ नहीं है.
इसका शराब और नशीले पदार्थों के सेवन की समस्या से सीधा संबंध है. पंजाब की आबादी में शराब की लत 6 प्रतिशत के स्तर पर है, जो राष्ट्रीय औसत से दोगुना है जबकि नशीले पदार्थों के सेवन का स्तर 2.5 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत से चार गुना अधिक है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के स्वास्थ्य खर्च संबंधी आंकड़ों से पता चलता है कि पंजाब के परिवारों पर एक औसत भारतीय परिवार की तुलना में स्वास्थ्य खर्च का बोझ कहीं अधिक है और यह भी कि वे अपनी जरूरतों के लिए विशेष रूप से निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत अधिक निर्भर हैं. इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि राज्य में तत्काल सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है.
कोविड-19 महामारी विशेष रूप से पंजाब के लिए खतरनाक साबित हुई है- वहां संक्रमित लोगों में मौत की दर (सीएफआर) सर्वाधिक है और उसमें अभी भी वृद्धि हो रही है. पंजाब की सीएफआर दर राष्ट्रीय स्तर के मुकाबले दोगुने से अधिक है. अधिक चिंताजनक बात ये है कि जहां भारत में लगभग हर जगह सीएफआर में गिरावट आ रही है, पंजाब में इसमें कमी आने का संकेत नहीं दिख रहा.
कर्ज में डूबा राज्य
दुर्भाग्य से, पंजाब की वित्तीय स्थिति पिछले कई वर्षों से खस्ताहाल चल रही थी. भारतीय रिजर्व बैंक की राज्यों से संबंधित नवीनतम वित्तीय रिपोर्ट से पता चलता है कि पंजाब भारत का सर्वाधिक ऋणग्रस्त राज्य है, जहां राज्य के सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले ऋण का अनुपात 40 प्रतिशत है. वहां राज्य की आय का 20 प्रतिशत से अधिक ब्याज भुगतान पर खर्च होता है, जो देश में सबसे अधिक है. बीते वर्षों में, खासकर किसानों को दी जाने वाली रियायती बिजली के बढ़ते बोझ और हाल में लागू कृषि ऋण माफी जैसी अन्य रियायतों के कारण पंजाब भारत के सर्वाधिक राजस्व घाटे वाले राज्यों में से एक बन गया है.
राज्य की कठिन वित्तीय हालत ने वहां स्वास्थ्य खर्च में अतिआवश्यक बढ़ोतरी की गुंजाइश को सीमित कर दिया है. साथ ही राज्य के लिए अपनी अर्थव्यवस्था के किसी भी प्रमुख क्षेत्र में प्रतिस्पर्धात्मकता और उत्पादकता बढ़ाने वाले अहम सुधारों को लागू करने की भी बहुत कम गुंजाइश है.
पंजाब मुसीबत में है और अस्थाई नीतियों से परे उसकी मुश्किलों का स्थाई समाधान उसकी समग्र अर्थव्यवस्था, विशेषकर कृषि क्षेत्र में बुनियादी संरचनात्मक सुधारों में निहित है.
(लेखिका एक अर्थशास्त्री और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की पूर्व सदस्य हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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