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Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमतपंजाब में चन्नी से UP में गोंड तक- अंग्रेजी की एक नर्सरी राइम इनके उत्थान को सही ढंग से समझाती है

पंजाब में चन्नी से UP में गोंड तक- अंग्रेजी की एक नर्सरी राइम इनके उत्थान को सही ढंग से समझाती है

कांग्रेस और भाजपा इस समय भारत के दलित समुदायों को कोई न कोई राजनीतिक पद देकर उनके जरिये अपनी शोभा बढ़ा रहे हैं. लेकिन क्या उन कुर्सियों को कोई शक्ति मिली हुई है?

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अंग्रेजी भाषा की एक पुरानी नर्सरी राइम दुनियाभर में नारीवादी आंदोलनों के दौरान उद्धृत की जाती है. और यही राइम पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी और योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश में दिनेश खटीक, पल्टू राम और संजय गोंड जैसे नेताओं का कद अचानक बढ़ने के मामले में भी यह प्रासंगिक है?

दुनियाभर के नारीवादी आंदोलनों में ओल्ड मदर हबर्ड की ये पंक्तियां अक्सर सुनाई जाती हैं-‘वेन सी केम दिअर, द कबर्ड वाज़ बेयर’ (जब तक उसकी बारी आई, पूरी अलमारी खाली हो चुकी थी). यह बात इस संदर्भ में कही जाती है कि महिलाओं को किसी संस्थान में कोई पद अंतत: तभी मिल पाता है जब उसके सारे अधिकार छीने जा चुके होते हैं. चर्चित स्लैंग में इसे ‘ब्रेड-क्रंबिंग’ यानी दिखावटी कहा जाता है. पिछले दो हफ्तों के दौरान कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दो राजनीतिक फैसलों ने विविधता के एजेंडे से जुड़ी यह बड़ी दुविधा एक बार फिर उजागर कर दी.

कांग्रेस पार्टी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री पद से हटाकर उनकी जगह एक दलित सिख चरणजीत सिंह चन्नी को चुना. ऐसा तब किया गया जब सर्वेक्षणों ने यह दिखाना शुरू किया कि कैप्टन की लोकप्रियता और चुनाव जिताने की क्षमता में गिरावट आई है. और रविवार को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुख्यत: प्रभावशाली जातियों के वर्चस्व वाली मंत्रिपरिषद की बैठक की अध्यक्षता करने के बाद इसमें विविधता कायम करने के लिए दो दलितों, एक आदिवासी और तीन ओबीसी सदस्यों को शामिल करने का फैसला किया. यह कदम ऐसे समय में उठाया गया जब लोगों को ऐसा लगने लगा था कि कोविड की दूसरी लहर के दौरान कुप्रबंधन का असर आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव पर पड़ सकता है.

लेकिन भारत में ओबीसी आरक्षण के लिए वी.पी. सिंह के मंडल आयोग से लेकर आदित्यनाथ के हालिया मंत्रिमंडल विस्तार तक और कांग्रेस की तरफ से नेता विपक्ष के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे की नियुक्ति तक, आप विविधता के इस टेम्पलेट को अक्सर खिलौने की तरह इस्तेमाल किया जाता पाएंगे. जब कुर्सी की ताकत कमजोर हो जाए या उस पर कोई संकट मंडराने लगे, तब आप हमेशा से ही प्रतिनिधित्व से वंचित रहे वर्ग को आगे कर देते हैं.


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राजनीति में बार-बार किया गया

कांग्रेस क्रियात्मक विविधता के इस विकृत टेम्पलेट को बार-बार आजमाने की जिम्मेदार रही है. लेकिन इसकी वजह यह भी हो सकती है कि कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता में रही. दशकों पहले सबसे बड़े दलित नेता के तौर पर जगजीवन राम के उभरने के पीछे कांग्रेस ही थी.

कांग्रेस पार्टी 2014 में जब संसद में 44 सीटों के साथ ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर सिमट गई, तभी खड़गे को लोकसभा में नेता विपक्ष चुना गया. जबकि पहले कांग्रेस के मजबूत विपक्षी दल रहने के दौरान ऐसा कभी नहीं किया गया था. 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस यूपी में 21 सीटें जीतने में सफल रही तो उसने जितिन प्रसाद और राजीव शुक्ला जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे लाकर उन्हें मंत्री पद से नवाजा. लेकिन 2019 में कमजोर पड़ी कांग्रेस को जब एक ही सीट से संतोष करना पड़ा तो उसने पिछड़े समुदाय के नेता अजय कुमार लल्लू को यूपी कांग्रेस का प्रमुख चुना. इसका एक और ज्वलंत उदाहरण 2003 में कांग्रेस पार्टी की तरफ से महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री के रूप में सुशील कुमार शिंदे को नियुक्त किए जाने का है, जब राज्य चुनाव से कुछ महीनों पहले पार्टी को वहां सत्ता विरोधी लहर का डर सता रहा था. शिंदे के पदभार संभालने के कुछ महीनों के भीतर आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो गई, जिससे उनकी शक्तियां सीमित हो गईं. सबसे ज्यादा निंदनीय बात तो यह है कि चुनाव बाद शिंदे की जगह विलासराव देशमुख को कुर्सी सौंप दी गई.

महिलाएं भी इस बात को अच्छी तरह जानती हैं, इस तरह के फिनामनान को ‘ग्लास क्लिफ’ कहा जाता है.

इसके अन्य उदाहरण भी सामने हैं.

भाजपा ने 2001 में स्टिंग ऑपरेशन के आरोपों में घिरे अपने एकमात्र दलित अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण से तो तत्काल ही किनारा कर लिया; लेकिन कथित तौर पर घूस लेते पाए गए ठाकुर नेता दिलीप सिंह जूदेव को फिर जगह दे दी. आज पंजाब के अलावा देश के किसी भी राज्य में दलित मुख्यमंत्री नहीं है. लेकिन कांग्रेस का यह कदम आधे-अधूरे ढंग से उठाया गया ही कहा जाएगा क्योंकि पार्टी ने घोषणा कर दी कि चुनाव चन्नी और नवजोत सिंह सिद्धू दोनों के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. बेशक, भारत में एक दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हैं, जैसे पूर्व में के.आर. नारायणन भी रह चुके हैं—लेकिन यह पद एक गैर-कार्यकारी और नाममात्र का ही माना जाता है.

इसी प्रकार मंडल आयोग को लेकर वी.पी. सिंह की आंखें तब खुली जब देवीलाल ने पद छोड़ दिया और उनकी सरकार पर अस्थिरता का संकट आ गया.


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क्या विविधता क्रांति की कीमत चुकानी पड़ती है?

भले ही आलोचना की जाती हो लेकिन क्या वास्तव में इस सबका कोई फायदा नहीं है? नॉर्डिक देशों (नॉर्वे, स्वीडन, फिनलैंड) में निर्वाचित महिलाओं के अनुभव की वजह से नारीवादियों में बेअर कबर्ड के रूपक को फिर से प्रसिद्धि मिली. जब उन्हें चुना गया उन्होंने पाया कि सत्ता विधायिका से दूर गई है जिसे सिद्धांतवादियों ने सत्ता का नया त्रिकोण—राष्ट्रवाद, रूढ़िवाद और नवउदारवाद—का नाम दिया. विधायिकाओं में केवल प्रतिनिधित्व मिलना ही काफी नहीं था. महिलाओं को राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ-साथ वित्तीय संस्थानों में ताकत हासिल करनी थी. समय को इससे आवश्यक गति मिली. और आज महिलाएं नॉर्वे, फिनलैंड और आइसलैंड की प्रधानमंत्री हैं.

सामाजिक परिवर्तन दो तरह के हो सकते हैं—क्रांतिकारी और विकासात्मक. इसमें पहला तरीका विघटनकारी है और इसमें विजन के साथ-साथ राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक साहस की आवश्यकता होती है. इसमें सशक्त जाति के सदस्यों के लिए पद छोड़ना अपरिहार्य हो जाता है. दूसरे तरीके में धीरे-धीरे आगे कदम बढ़ाना शामिल है जो एक तरह से खाली प्रतीकात्मक कार्य लग सकता है. इसे क्रियात्मक विविधता कहा जाता है.

कनाडाई नारीवादी विद्वान जिल विकर्स ने प्रतिनिधित्व के बारे में मुझे एक ही बात सिखाई है—आपका वही है जो आपको मिला है, और उसकी नींव पर आपने जो खुद निर्मित किया.

इसलिए, खाली अलमारी वाली कहावत के बावजूद सामाजिक न्याय के लक्ष्यों के लिए चन्नी का आगे बढ़ना बेहद अहम है, यही बात यूपी सरकार में गोंड पर भी लागू होती है. राजनीतिक दलों ने खुद को इस तरह की विविधता लाने के लिए मजबूर पाया है, यह अपने-आप में नेहरूवादी नेताओं के समूह के रुख की तुलना में एक बड़े बदलाव को दर्शाने वाली स्थिति है, जिन्होंने 1950 और 60 के दशक में कोई परवाह न करते हुए उच्च जातियों को आगे रखकर राष्ट्र-निर्माण की आधारशिला रखी थी. यह एक नई भाषा की गूंज है जो लंबे समय से नीचे कहीं दबी हुई थी और अब इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अमेरिकी समाजशास्त्री एरविंग गोफमैन इस ‘आर्ट ऑफ इंप्रेशन मैनेजमेंट’ को अभ्यास में लाने की जरूरत से सहमति जताते हैं.

लेकिन वास्तव में यह सब इस पर निर्भर करता है कि चन्नी, खटीक, राम और गोंड जैसे नेता इस नई कुर्सी का इस्तेमाल अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने के लिए करते हैं—भले ही उन्हें विफल होने के लिए इस पर क्यों न बैठाया गया हो. या फिर ऐसे लोगों के तौर पर याद किए जाने के लिए जिन्हें अस्थायी तौर पर कोई मोर्चा संभालने की जिम्मेदारी मिली हो.

(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट में ओपिनियन और फीचर एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @RamaNewDelhi है, व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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