भारत आने वाले लोग अक्सर हमारी सड़कों पर दिखने वाली विरोधाभासों को देखकर चौंक जाते हैं. यहां बहुत अधिक दौलत दिखती है — पहले से भी ज़्यादा, क्योंकि पिछले दस साल में बड़े हीरे और भव्य शादियों की ख़ास खपत बढ़ गई है— लेकिन यहां बहुत अधिक गरीबी भी है.
वे पूछते हैं कि हम फुटपाथ पर सोने वाले लोगों, गुज़ारे के लिए काम करने को मजबूर छोटे बच्चों और भीख मांगते समय अपने हाथ या पैर आगे बढ़ाने वाले दिव्यांग लोगों को अनदेखा करके कैसे बेफिक्र अपना जीवन जी सकते हैं?
इन सवालों के जवाब हैं और हम उन्हें हमेशा देते हैं. हां, भारत हमेशा से विरोधाभासों की भूमि रहा है. और हां, देश में गरीबी है, लेकिन पहले से बहुत कम है और हमारे पास इसके आंकड़े हैं, वगैरह-वगैरह.
ये जवाब तर्कसंगत लग सकते हैं, लेकिन वे वास्तव में उस बुनियादी सवाल का जवाब नहीं देते जो कई पश्चिमी विजिटर्स के मन में भारतीय मध्यम वर्ग को लेकर होता है: क्या हम हर दिन दिखाई देने वाली तकलीफ से इतने कठोर हो गए हैं कि हमने खुद को दूसरों के दुख से अंधा करना सीख लिया है? क्या हम भयावह गरीबी और अभाव के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं? भारतीय मध्यम वर्ग हमारी सड़कों पर घट रही इन त्रासदियों के लिए आगे आकर कुछ करता क्यों नहीं?
अब इसका जवाब मिल गया है.
भारत का मध्यम वर्ग पिछले कुछ दिनों से सड़क पर रहने वालों की तकलीफ के लिए आंसू बहा रहा है. हम अपने शहरों की सड़कों पर प्रदर्शन कर चुके हैं. हमने उन प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ आवाज उठाई है जिन्होंने हालात को इस स्तर तक पहुंचने दिया. हमने वादा किया है कि हालात सुधारने में मदद करेंगे. हम कहते हैं, यह हमारा कर्तव्य है कि हम और बड़ी त्रासदी को रोकें, सड़कों पर रहने वालों के अधिकारों के लिए लड़ें ताकि वे आज़ादी और गरिमा के साथ जी सकें.
कठोर हो गए हैं? अपने आसपास के दुख के प्रति असंवेदनशील हो गए हैं? बिल्कुल नहीं. हम परवाह करते हैं और हमारे दिल गहराई से प्रभावित हुए हैं
लेकिन बात यह है कि हम इंसानों के लिए नहीं रो रहे. हम कुत्तों के लिए आंसू बहा रहे हैं.
समस्या से कोई इनकार नहीं
आगे बढ़ने से पहले कुछ बातें साफ कर दूं. मैं नहीं मानता कि हमें जानवरों के साथ बुरा व्यवहार करना चाहिए — और यह सिर्फ कुत्तों तक सीमित नहीं है, हालांकि मैं शायद सड़क के चूहों पर रोक लगा दूं. मैं किसी ऐसे उपाय का समर्थन नहीं करता जिससे सड़क के कुत्तों को दर्द या तकलीफ हो. मैं दिल्ली के सड़क कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का विरोध करने वालों की भावनाओं का सम्मान करता हूं और समझता हूं कि कोर्ट द्वारा सुझाए गए समाधान शायद व्यावहारिक न हों और जानवरों को नुकसान पहुंचा सकते हैं.
मैं यह भी मानता हूं कि अब समय आ गया है कि हम सड़क कुत्तों के बारे में कुछ करें. टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, देश में हर दिन 10,000 से ज्यादा लोग कुत्तों के काटने का शिकार होते हैं. भारत में रेबीज से होने वाली मौतों की संख्या सबसे ज्यादा है (305), जो चीन के मुकाबले लगभग दोगुनी है, जो इस सूची में दूसरे नंबर पर है.
हालांकि अखबार का कहना है कि यह आधिकारिक आंकड़ा शायद कम आंका गया है. असली संख्या करीब 18,000 हो सकती है. और समस्या बढ़ रही है. कोविड के दौरान कुत्तों के काटने की घटनाएं कम हुई थीं, लेकिन उसके बाद से यह दोगुनी से भी ज्यादा हो गई हैं.
तो, अगर आप मानते हैं कि कोई गंभीर समस्या नहीं है, तो आप पागल होंगे. ज्यादातर समझदार लोग, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करते हैं, यह नहीं मानते कि समस्या को हल करने की जरूरत नहीं है. वे बस सोचते हैं कि कोर्ट ने गलत इलाज सुझाया है.
उदाहरण के लिए, दिप्रिंट के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता ने ट्वीट किया: “समाज/शहरों ने हमारे माननीय सुप्रीम कोर्ट से कहीं ज्यादा क्रूर तरीकों से सड़क कुत्तों को ‘खदेड़ने’ की कोशिश की है. वे सभी नाकाम रहे हैं. यहां, कराची की एक तस्वीर है जहां यह काम अक्सर किया जाता है. समाधान शहरी सुधार, नसबंदी और संवेदनशीलता में है. न कि बदले की भावना से की गई सामूहिक क्रूरता में.” उन्होंने अपनी चिंताओं को दिखाने के लिए मृत कुत्तों की एक कतार की तस्वीर भी साझा की.
मैं उनकी बात मानता हूं. लोगों को कुत्तों के काटने और रेबीज से बचाने के इससे बेहतर तरीके हो सकते हैं और हमें उन्हें तलाशना और जांचना चाहिए.
मेरे अनुभव में, यूरोपीय और अमेरिकी शहरों में इतने ज्यादा सड़क कुत्ते नहीं मिलते. लेकिन बैंकॉक और कुछ अन्य एशियाई शहरों ने सड़क कुत्तों (जिन्हें वे सॉय डॉग्स कहते हैं) से निपटने के दौरान इसी तरह के विवाद देखे हैं. मुझे नहीं पता कि थाईलैंड ने सही समाधान ढूंढा है या नहीं, लेकिन मेरा अपना अनुभव (जो आंकड़ों की बजाय निजी अनुभव और सुनी-सुनाई बातों पर आधारित है) कहता है कि अब बैंकॉक की सड़कों पर चलना एक दशक पहले की तुलना में कम खतरनाक है, और यह निश्चित रूप से दिल्ली से कम खतरनाक है. और जो आंकड़े मैंने देखे हैं, उनके मुताबिक दिल्ली तो समस्या का केंद्र भी नहीं है. महाराष्ट्र में राष्ट्रीय राजधानी से कहीं ज्यादा कुत्तों के काटने के मामले हैं.
तो चलिए, कम से कम एक न्यूनतम एजेंडे पर सहमत हों. उन सबको नजरअंदाज करें जो कहते हैं कि कुछ करने की जरूरत नहीं है और सड़क कुत्तों को खुला घूमने दिया जाए, चाहे वे हर दिन हजारों लोगों को काट लें. लेकिन उन लोगों का सम्मान करें जो तर्क देते हैं कि हमें ऐसा समाधान ढूंढना चाहिए जो मानवीय भी हो और असरदार भी.
यह मत भूलिए, हम किसे और क्या नजरअंदाज करते हैं
अब जब यह बात साफ हो गई है, तो चलिए वापस वहीं चलते हैं जहां से हमने शुरू किया था. भारतीय मिडिल क्लास में ऐसा क्या है जो हमें इंसानी तकलीफ से काफी हद तक बेपरवाह बना देता है, लेकिन जब हम कुत्तों के दुख के बारे में सुनते हैं तो गुस्से और दुख से हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं? और यह सिर्फ कुत्तों के लिए होता है. अगर प्रशासन हमारे शहरों में घूमने वाले सूअरों को पकड़ ले, तो मुझे शक है कि कुत्तों के समर्थकों की तरफ से कोई आवाज उठेगी. भैंसों के लिए भी यही बात लागू होती है.
मिडिल क्लास उन बेघर लोगों के बारे में उतनी गहरी भावना क्यों नहीं रखता जो उन्हीं सड़कों पर रहते हैं जहां कुत्ते रहते हैं? हम अपने समाज के हाशिए पर मौजूद इंसानों के लिए लड़ने से ज्यादा आसानी से कुत्तों के लिए क्यों लड़ते हैं?
और यह तो राजनीति में जाने से पहले की बात है. बहुत से लोग जो आवारा कुत्तों के खिलाफ कदम उठाने वालों की इंसानियत पर सवाल उठाते हैं, वे मणिपुर का नक्शे पर पता भी नहीं लगा सकते, वहां बीते दो सालों में जिन लाखों लोगों की जिंदगी बर्बाद हो गई या जिन हजारों लोग संघर्ष में मारे गए, उनकी परवाह करना तो दूर की बात है. क्या इंसानी जानें कुत्तों की जानों से कम कीमती हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे हमसे दूर खोई गईं?
जो लोग शिकायत करते हैं कि हमारी नगरपालिकाएं कुत्तों को सही आश्रय देने में अक्षम हैं, वे शरणार्थियों और राजनीतिक उत्पीड़न के शिकार लोगों को दिए जाने वाले दयनीय आश्रय की चिंता क्यों नहीं करते? वे प्रवासियों को बेरहमी से पकड़कर शहरों से बाहर फेंकने के तरीकों की चिंता क्यों नहीं करते? इतने सालों तक मिडिल क्लास ने कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को क्यों नजरअंदाज किया, जिन्होंने जातीय सफाए के कारण अपने घर खो दिए? जब हम सुनते हैं कि राज्य सरकारें मामूली बहानों पर लोगों के घर बुलडोजर से तोड़ रही हैं, तो हम क्यों नजरें फेर लेते हैं? हमने उन खबरों पर ध्यान देना क्यों बंद कर दिया जिनमें गोमांस ले जाने के शक में लोगों को पीट-पीटकर मार डाला जाता है?
मैं और भी कह सकता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि आप बात समझ गए होंगे.
मैं किसी पर फैसला सुनाने वाला नहीं हूं. मैं भी उसी मिडिल क्लास से हूं और लापरवाही का दोषी हूं.
लेकिन जब आप कुत्तों को लेकर हो रहे हंगामे को देखते हैं, तो क्या कभी रुककर सोचते हैं कि क्या हमारा आत्मकेंद्रित मिडिल क्लास इस स्तर पर पहुंच गया है जहां कुत्ते लोगों से ज्यादा मायने रखते हैं?
कुत्तों के साथ मानवीय व्यवहार करने के लिए लड़ें. लेकिन उन इंसानों को मत भूलें जिनके अधिकार और गरिमा को रोज छीना जाता है.
वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार हैं और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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