राम मंदिर आंदोलन का विहिप की अगुआई वाला ताज़ा संस्करण इसके 90 के दशक के स्वरूप से अलग है. यह मात्र हिंदू समाज की ऐतिहासिक पराधीनता के बारे में नहीं है. इस बार, पीड़ित हिंदू वाले कथ्य के साथ सशक्त बहुसंख्यकवाद का भी दावा प्रस्तुत किया गया है.
मोहन भागवत का बयान कि ‘हिंदुओं ने हमेशा से कानून का पालन किया है और पर्याप्त धैर्य दिखाया है… पर क्या समाज सिर्फ कानून से चल सकता है?’, इस नए हिंदू बहुसंख्यकवाद का एक उदाहरण है, जिसे संविधान की तय सीमाओं से परे जाने में भी संकोच नहीं.
पीड़ित हिंदू का एक सरल राजनीतिक इतिहास मूलत: बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक तंत्र के निष्क्रिय-आक्रामक इस्तेमाल पर आधारित है. पर क्या वास्तव में हिंदुओं का राजनीतिक बहुमत है?
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राजनीतिक तंत्र में, हिंदुओं को एक ऐतिहासिक रूप से पीड़ित बहुसंख्यक के रूप में दिखाया जाता है, जो सदियों तक मुसलमानों – अल्पसंख्यक – द्वारा शासित रहे. यह भी कहा गया कि देश के बंटवारे ने हिंदुओं को हाशिये पर और दूर धकेल दिया. बहुसंख्यक होने के बाद भी हिंदुओं को हिंदू राष्ट्र नहीं मिला, जबकि मुसलमानों को संविधान में अल्पसंख्यक का दर्ज़ा मिल गया. अयोध्या को लेकर भागवत का यह तर्क आक्रमकता के साथ पीड़ित होने का दावा करने के लिए संख्याओं के इस्तेमाल की राजनीतिक परंपरा के अनुरूप ही है: यदि हिंदू-बहुल भारत में राम मंदिर नहीं बनेगा, तो क्या यह रोम या सऊदी अरब में बनेगा?
एक सरकारी श्रेणी के रूप में हिंदू
राजनीतिक उद्देश्यों से, खासकर 2019 लोकसभा चुनावों के संदर्भ में, हिंदुओं को संगठित करने के लिए कथित सांप्रदायिक राजनीति करने के लिए भागवत की आलोचना की जा सकती है. परंतु ‘हिंदू समुदाय’ की संज्ञा को हमेशा हिंदुत्व की नज़रों से नहीं देखा जाना चाहिए. हिंदू शब्द केवल एक धार्मिक समुदाय (या समुदायों) का नाम नहीं है; यह एक प्रशासनिक श्रेणी है जिसका जनगणना तथा अन्य संबद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक आंकड़े एकत्रित करने में उपयोग किया जाता है. इसलिए धार्मिक जनसांख्यिकी के आधार पर भारत को हिंदु-बहुल देश बताए जाने को सांप्रदायिक चित्रण नहीं कहा जा सकता है.
लेकिन भारत की धार्मिक जनसांख्यिकी स्वत: ही किसी धार्मिक समूह को एक राजनीतिक बहुमत में तब्दील नहीं कर देती है. बहुसंख्यक शब्द का मतलब ‘अधिक संख्या’ होता है. इसका मतलब बस इतना है कि धर्म के आधार पर नागरिकों की गणना में हिंदू धर्म के लोग बहुसंख्यक पाए गए हैं. इस तरीके से हमारे सामने विभिन्न प्रकार के बहुसंख्यक हो सकते हैं: भाषाई, क्षेत्रीय और यहां तक कि जातिगत भी.
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भाषाई बहुसंख्यकवाद के खिलाफ़ हिंदीविरोधी आंदोलन, तथा पीड़ित जातियों और वर्गों के बहुमत की पैरोकार कांशीराम और मायावती की बहुजन राजनीति का उदय भारत की राजनीति में अन्य प्रकार के बहुसंख्यकों की बानगी हैं.
इसके बाद भी, ‘बहुसंख्यकवाद’ शब्द आज हिंदुत्व की राजनीति का पर्याय बन गया है. तो फिर कैसे धर्म जो कि जनगणना की एक श्रेणी मात्र था, हाल के वर्षों में राजनीतिक बहुमत निर्धारण का सबसे प्रासंगिक मानदंड बन गया है?
सांप्रदायिक बहुमत बनाम राजनीतिक बहुमत
हिंदू बहुमत की कहानी का भारतीय समुदायों के बारे में ब्रितानी औपनिवेशिक धारणाओं से अटूट संबंध है. इस बारे में 1891 की जनगणना रिपोर्ट एक बढ़िया उदाहरण है. इस रिपोर्ट में हिंदुओं को बहुसंख्यक बताया गया है और उन्हें देश के स्वाभाविक और मूल निवासी की तरह पेश किया गया. दूसरी तरफ, मुसलमानों को एक वैश्विक इस्लामी समुदाय का अंग बताए जाने के साथ-साथ, भारत में कम संख्या बल के अनुरूप अल्पसंख्यक करार दिया गया है. दिलचस्प बात यह है कि इस बहुसंख्यक/अल्पसंख्यक विभेद का उल्लेख हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ को दर्शाने के लिए भी किया जाता है.
एक स्थायी और निश्चित बहुसंख्यक के रूप में हिंदुओं को दी गई इस सरकारी मान्यता का इस्तेमाल ब्रिटिश भारत में राजनीतिक संस्थाओं के गठन में भी किया गया. विधायी संस्थाओं में धार्मिक समुदायों – हिंदुओं और मुसलमानों – को पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए ब्रितानी शासकों ने एक सख्त बहुसंख्यक/अल्पसंख्यक मापदंड का उपयोग किया.
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राजनीति के इस खुले सांप्रदायीकरण का राष्ट्रवादी नेताओं ने (हिंदू महासभा और मुस्लिमी लीग को छोड़कर) हमेशा विरोध किया था. बांटो और राज करो की इस सांप्रदायिक राजनीति की सबसे विस्तृत आलोचना बाबासाहेब आंबेडकर ने की. अपने 1945 के एक भाषण में उन्होंने कहा:
भारत में, बहुमत एक राजनीतिक बहुमत नहीं है. भारत में बहुमत जन्म से बना है; यह निर्मित नहीं है. सांप्रदायिक बहुमत और राजनीतिक बहुमत के बीच यही अंतर है. राजनीतिक बहुमत एक निश्चित या स्थायी बहुमत नहीं होता. यह ऐसा बहुमत होता है जो हमेशा बनता है, बिगड़ता है और फिर से बनता है. सांप्रदायिक बहुमत निश्चित विचारधारा वाला एक स्थायी बहुमत होता है. इसे नष्ट किया जा सकता है, पर बदला नहीं जा सकता. (डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेज़ (खंड 1), 1994, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार. पृ. 377)
एक धर्मनिरपेक्ष हिंदुत्व 2.0 और हिंदू बहुमत
यह दिलचस्प है कि हिंदुत्व की मौजूदा राजनीति भी ‘सांप्रदायिक बहुमत’ की अवधारणा के खिलाफ़ है. यह हिंदुओं को एक सांप्रदायिक वर्ग के रूप में संगठित नहीं करना चाहती – मुख्यत: इसलिए कि यह स्थापित कानूनी-संवैधानिक मान्यताओं के खिलाफ़ जाता है. इसके विपरीत, राजनीतिक बहुमत की एक हिंदुत्व-अनुकूल अवधारणा विकसित किए जाने का सचेत प्रयास किया जा रहा है.
इस विचारधारा के तहत, हिंदुत्व को भारतीय संस्कृति के मूल घटक के रूप में पेश किया जाता है. हिंदू शब्दावली में गढ़ी गई भारत की इस नई परिभाषा का चतुराई से यह दर्शाने में इस्तेमाल किया जा रहा है कि हिंदू एक सांस्कृतिक इकाई है, जिसकी मुस्लिमों और ईसाइयों जैसे धार्मिक वर्गों से तुलना नहीं की जा सकती. इस पुनर्स्थापना ने पिछले तीन दशकों के दौरान हिंदुत्व शब्द की व्यापक राजनीतिक स्वीकार्यता को बढ़ाने में भी योगदान दिया है. यह तर्क दिया जाता है कि हिंदुओं के राजनीतिक-चुनावी बहुमत पर ज़ोर देने के लिए हिंदुत्व का सहारा लेना राष्ट्रीय भावनाओं को व्यक्त करने का एक स्वीकार्य तरीका है, जिसे सांप्रदायिक साज़िश नहीं कहा जा सकता.
गैर-भाजपा दल हिंदुत्व के बहुसंख्यकवाद के मूल भाव को समझ नहीं पाए हैं. हिंदुत्व समूह एक धार्मिक हिंदू राष्ट्र स्थापित करने के लिए संविधान को बदलना नहीं चाहते हैं; बल्कि, उनकी दिलचस्पी चुनावी राजनीति की सीमाओं के भीतर हिंदू मतदाताओं का एक राजनीतिक बहुमत निर्मित करने में है.
गैर-हिंदुत्व समूहों को राजनीतिक बहुमत के अपने खुद के वैकल्पिक अर्थों पर विचार करने की ज़रूरत है. वरना, हिंदुत्व का सांप्रदायिक बहुमत बहुसंख्यक राष्ट्रीय भावनाओं के नाम पर जड़ें जमा लेगा.
(हिलाल अहमद सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ में राजनीतिक इस्लाम के विशेषज्ञ और एसोसिएट प्रोफेसर हैं.)