क्या कांग्रेस में कोई दूसरा अहमद पटेल है जो राहुल गांधी में से सोनिया गांधी के अवतार को प्रकट कर दे? 1998 में सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का पदभार संभाला था, उस समय कई लोगों को उनके बारे में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया का ‘गूंगी गुड़िया ‘ वाला जुमला याद आ गया था. लेकिन इटली में जन्मी यह महिला, जो रोमन लिपि में लिखा हिंदी भाषण अटकते हुए पढ़ा करती थी वह एक शक्तिशाली राजनेता के रूप में उभरी. इस कायाकल्प का श्रेय अहमद पटेल को दिया गया.
लेकिन उपरोक्त सवाल हैदराबाद नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस के लचर प्रदर्शन के बाद और तीखा हो गया है. यह यही संकेत दे रहा है कि पार्टी ने एक और राज्य (तेलंगाना) में अपना राजनीतिक आधार भाजपा को किस दब्बूपने से सौंप दिया है. और कांग्रेस ने महाराष्ट्र विधान परिषद के चुनाव में अपनी कामयाबी पर जश्न तक नहीं मनाया क्योंकि उसे पता है कि राहुल गांधी महाराष्ट्र में अपनी सहयोगी शिवसेना को बहुत पसंद नहीं करते.
महाराष्ट्र में चुनाव नतीजे आने के बाद दिग्गज नेता शरद पवार ने मानो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के सुर में सुर मिलाते हुए बयान दे दिया कि जहां तक सवाल यह है कि देश की जनता राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करती है या नहीं, जनता के मन में राहुल की ‘राजनीतिक स्थिरता’ को लेकर शंका है. इससे पहले ओबामा की यह टिप्पणी कांग्रेस नेताओं को नाराज कर चुकी थी कि राहुल गांधी में इस कला में कौशल हासिल करने की या तो योग्यता में कमी है या जुनून में.
राहुल गांधी को निश्चित ही एक अहमद पटेल की जरूरत है. लेकिन उनकी पार्टी के उनके साथियों को ऐसा कोई नज़र नहीं आ रहा है.
इस लेखक ने इटली के मशहूर कूटनीतिज्ञ और राजनीतिक विचारक निक्कोलो मैकियावेली के 16वीं सदी के ग्रंथ ‘द प्रिंस ’ को खंगाला और जो पाया उसे राहुल शायद कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे. आखिर, मैकियावेली राजकाज को अनैतिकता, बेईमानी, धोखा और बुराई का मेल मानते हैं, जबकि राहुल एक आदर्शवादी नेता हैं जिन्हें अपने सिद्धांत की खातिर अपनी पार्टी को कुर्बान करने में भी कोई संकोच नहीं होगा. लेकिन ‘द प्रिंस ’ उन चिंताओं में से कुछ का समाधान देता है जिन्हें कांग्रेस में अपना राजनीतिक भविष्य दांव पर लगा चुके ‘जी-23’ समूह के नेताओं ने आवाज़ दी थी.
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काफी भाग्यशाली
मैकियावेली का मानना था कि इटली के राजकुमारों ने अपना राजपाट इसलिए गंवाया क्योंकि— ‘लंबे समय से अपने कब्जे में रही रियासतों को गंवाने के लिए हमारे राजकुमारों को अपनी किस्मत को नहीं बल्कि अपनी काहिली को दोष देना चाहिए…. जब बुरा वक्त आया तो वे उसका सामना करने की जगह मैदान छोड़कर भाग गए… और उन्होंने यह सोच लिया कि जनता हमलावरों के अत्याचारों से तंग आकर फिर से उन्हें बुला लेगी.’
राहुल बेशक ऐसा नहीं सोचते होंगे लेकिन कांग्रेस में ‘जी-23’ ही नहीं बल्कि कई ऐसे लोग हैं जो यह मानते हैं कि उनके नेता अपनी ‘काहिली’ को कबूल करने को तैयार नहीं हैं. जब अमित शाह, जे.पी. नड्डा, योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक कोविड का वैक्सीन बना रही भारत बायोटेक का दौरा करने के लिए तेलंगाना पहुंच गए ताकि वहां भाजपा को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश किया जा सके, तब गांधी परिवार दिल्ली में प्रदूषण से बचने के लिए गोवा चला गया. मैकियावेली के राजकुमारों को उम्मीद थी कि जनता हमलावरों के ‘अत्याचारों से परेशान’ होकर उन्हें वापस बुला लेगी. ऐसे राजकुमारों के लिए मैकियावेली के ग्रंथ में चार सबक सुझाए गए हैं.
पूर्णकालिक काम
‘सिर्फ और सिर्फ संघर्ष ही राजकुमार का लक्ष्य होना चाहिए और उसे संघर्ष के नियम-कायदों के सिवा और किसी चीज के बारे में न तो सोचना चाहिए और न ही अपने अध्ययन का कोई और विषय बनाना चाहिए… जैसे ही वे अपने हथियारों से ज्यादा अपने सुखों के बारे में सोचने लगेंगे, वे अपनी सत्ता गंवा देंगे… आप सत्ता तभी हासिल करते हैं जब आप उसे हासिल करने की कला में निपुण होते हैं… जो राजकुमार संघर्ष की कला को बाकी नाकामियों से ऊपर नहीं समझता, वह अपने सैनिकों से सम्मान नहीं हासिल कर सकता.’
इसमें जो दूसरा सबक है वह राहुल गांधी के मामले में हम कांग्रेसी नेताओं से प्रायः सुनते हैं. उपरोक्त सबक में ‘संघर्ष’ की जगह राजनीति को रख दें तो ओबामा की टिप्पणी का संदर्भ स्पष्ट हो जाएगा. राहुल गांधी एक पूर्णकालिक राजनेता के रूप में सामने नहीं आते, जिसका जिक्र सोनिया गांधी को भेजे ‘जी-23’ के पत्र में है. इस समूह के नेता एक पूर्णकालिक, हमेशा सामने दिखने वाला, सक्रिय पार्टी अध्यक्ष चाहते हैं. राहुल कांग्रेस अध्यक्ष पद ज़िम्मेदारी और जवाबदेही तो नहीं चाहते लेकिन उन्हें इस पद के सारे अधिकार, विशेषाधिकार और सुविधाएं जरूर चाहिए. उन्हें सारे ‘सुख’ चाहिए, मसलन सप्ताहांत की छुट्टी, अक्सर विदेश में अवकाश बिताने की छूट जबकि यहां कांग्रेस का सामना मोदी और अमित शाह जैसे चौबीसों घंटे वाले राजनीतिक नेताओं से है.
‘द प्रिंस ’ में राहुल के लिए जो तीसरा सबक है वह दूसरे का ही विस्तार है— ‘जहां तक सक्रियता की बात है, उसे सबसे ऊपर अपनी सेना को सुसंगठित और चुस्त-दुरुस्त रखना चाहिए, निरंतर पीछा करते रहना चाहिए तभी वह अपने शरीर को तकलीफों के लिए तैयार रख पाएगा, उसे अपने क्षेत्र में निकलकर जायजा लेना चाहिए कि कहां-कहां पहाड़ खड़े हैं, कहां घाटियां खुल रही हैं, मैदानी इलाका कैसा है, नदियों और दलदल का स्वरूप कैसा है और यह जायजा उसे बड़े जतन से लेना चाहिए… यह उसे सिखाएगा कि दुश्मन को कैसे चकमा दिया जा सकता है, अड्डे कहां बनाए जा सकते हैं, फौज का नेतृत्व कैसे किया जा सकता है…’
सार यह कि राजकुमार यानी राहुल हमेशा राजनीति में डूबे रहें, ‘पीछा करते रहें’ और अपने संगठन को चुस्त-दुरुस्त रखें. अमित शाह यही करते हैं. उत्तर-पूर्व में कांग्रेस और वाम दलों को परास्त करने के बाद वे पश्चिम बंगाल, केरल, तेलंगाना, और तमिलनाडु जैसे अपरिचित क्षेत्रों की ओर मुड़ गए हैं. ‘पीछा करना’ कठिन हो सकता है (जैसा कि केरल में हुआ) लेकिन शाह हमेशा लगे रहते हैं. राहुल पीछा करना तो दूर, इन ‘इलाकों’ में नज़र तक नहीं आते.
मैकियावेली एक और नज़रिया प्रस्तुत करते हैं— ‘एक महान उपक्रम और एक उम्दा मिसाल पेश करने से ज्यादा कोई और चीज़ नहीं है जो किसी राजकुमार का रुतबा बढ़ा सके. हम अपने दौर में अरगॉन के फर्दिनांद, स्पेन के वर्तमान सम्राट को देख चुके हैं… अपने शासन के शुरुआती दौर में उन्होंने ग्रानाडा पर हमला किया, जो उनकी सत्ता के विस्तार का आधार बना… उन्होंने अफ्रीका पर हमला किया, वे इटली पर चढ़ आए, अंत में उन्होंने फ्रांस पर हमला किया, उनकी उपलब्धियों और योजनाओं ने लोगों को ऊहापोह में भी रखा और उन्हें लोगों से प्रशंसा भी दिलाई… उनकी सक्रियता ऐसी रही कि किसी को उनके खिलाफ काम करने का कभी मौका ही नहीं मिला.’
अब जरा राहुल गांधी के ‘महान उपक्रम’ के बारे में सोचिए. 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के उम्मीदवार चुनने की ज़िम्मेदारी खुद उठाई और उनके इंटरव्यू लिये, उनसे इस तरह के सवाल पूछे— आपके चुनाव क्षेत्र में कितने घरों में रसोई गैस के सिलिंडर जाते हैं, कितने घरों में बिजली के कनेक्शन हैं, कितने लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, आदि-आदि. लेकिन राहुल ने जो उम्मीदवार चुने वे नाकाम रहे. 2012 के विधानसभा चुनाव में भी उत्तर प्रदेश में दिखे और लोगों से यह कहते हुए सुने गए कि वे उन्हें वोट दें या न दें, प्रदेश का विकास करवाए बिना वे वहां से नहीं जाएंगे. लेकिन 2017 का विधानसभा चुनाव होने तक, जब वे समाजवादी पार्टी के कंधे पर सवार होने के लिए पहुंच गए थे, वे वहां बमुश्किल नज़र आए. इस बार भी वे फुस्स ही साबित हुए. हर चुनाव के बाद वे पार्टी संगठन की कमजोरी का रोना रोते रहे, मानो उसे मजबूत करने से कोई उन्हें रोक रहा था. उन्होंने गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा या किसी और राज्य में विधानससभा चुनाव होने के बाद वहां का कितनी बार दौरा किया है? शाह या नड्डा के पिछले कुछ महीनों के कार्यक्रमों पर नज़र दौड़ाइए. कांग्रेस के राजकुमार ‘उतने सम्मानित’ नहीं हैं, दिखाने को उनके पास कोई ‘उपक्रम या उपलब्धि’ नहीं है.
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संगत किसकी है
‘द प्रिंस ’ में मैकियावेली राहुल को चौथी सीख यह देते हैं— ‘राजकुमार और उसकी समझदारी के बारे में पहली धारणा उसके इर्दगिर्द रहने वाले लोगों को देखकर बनती है. अगर वे लोग सक्षम और वफादार हैं तो राजकुमार को समझदार माना जाएगा… लेकिन अगर वे ऐसे नहीं हैं तो राजकुमार के बारे में अच्छी धारणा नहीं बनाई जा सकती… बुद्धिमान तीन तरह के होते हैं— एक वह जो खुद समझदार होता है, दूसरा वह जो दूसरों की समझ से अपनी समझ बनाता है, तीसरा वह है जिसमें न अपनी समझ होती है, न दूसरों की समझ से सबक लेता है. पहला सबसे शानदार है, दूसरा अच्छा है, तीसरा नाकारा है.’
राहुल के इर्दगिर्द जो लोग हैं उनकी पृष्ठभूमि बहुत कुछ कहती है. रणदीप सिंह सुरजेवाला हरियाणा में दो बार विधानसभा चुनाव हार चुके हैं और बिहार विधानसभा चुनाव में गुड़ गोबर कर चुके हैं, के.सी. वेणुगोपाल ने 2019 में अलप्पुझा सीट से चुनाव लड़ने से मना कर दिया था, राजीव साटव महाराष्ट्र में अपनी लोकसभा सीट बचाने से मना कर चुके हैं. सोनिया गांधी ने अहमद पटेल ऐंड कंपनी को अपनी तरफ से शो जारी रखने की छूट दी और वे कामयाब रहीं. राहुल पहले दो तरह के बुद्धिमानों में नहीं हैं. मैकियावेली ने कहा है— ‘चाटुकारों से बचने का इसके सिवा कोई रास्ता नहीं है कि आप लोगों को यह समझा दें कि आपको सच सुनने में कोई परेशानी नहीं है.’ मैकियावेली आगे यह भी कहते हैं कि जो राजकुमार खुद बुद्धिमान नहीं होता वह कभी अच्छी सलाह नहीं मानेगा, बशर्ते संयोग से वह ऐसे व्यक्ति पर पूरी तरह निर्भर न हो ‘जो काफी विवेकी हो.’ लेकिन ऐसा लगता है कि राहुल ने केवल उनका अगला यह वाक्य ही पढ़ा है कि
‘ऐसी स्थिति में वह वास्तव में अच्छी संगति में होगा लेकिन ज्यादा दिन नहीं बीतते कि वह व्यक्ति राजकुमार के राज की बागडोर अपने हाथ में ले लेता है.’
विश्वास और प्रेरणा
सोनिया गांधी को भेजे ‘जी-23’ के पत्र पर राहुल और पूरे गांधी परिवार ने जिस तरह प्रतिक्रिया दी है उससे ऐसा लगता है कि मैकियावेली की इस पांचवीं सलाह को वे शायद ही सहजता से लेंगे कि ‘ऐसा कोई नया राजकुमार नहीं हुआ जिसने अपनी प्रजा को निरस्त्र किया हो बल्कि जब उसने उसे निरस्त्र पाया तो उसने उसे हमेशा सशस्त्र किया क्योंकि उसे सशस्त्र करना खुद को सशस्त्र करना है, जिन पर अविश्वास किया गया वे वफादार बन जाते हैं और जो भरोसेमंद होते हैं वे वैसे ही बने रहते हैं… राजकुमारों को उन लोगों से ज्यादा वफादारी और सहायता मिली है, जो उनके शासन के शुरू में भरोसेमंद लोगों से ज्यादा गैर-भरोसेमंद थे.’
‘जी-23’ केवल उम्मीद कर सकता है.
मैकियावेली के पास देने को एक और सलाह है— ‘बुद्धि हासिल करने और उसका उपयोग करने के लिए राजकुमार को इतिहास का, उसमें उभरीं नामवर हस्तियों के कामों का, उन्होंने युद्ध में कैसी भूमिका निभाई, उनकी जीत या हार के क्या कारण रहे, इन सबका अध्ययन करना चाहिए ताकि वह हार से बचे और उनकी तरह जीत हासिल करे और सबसे ऊपर यह कि वह वैसा ही करे जैसा नामवर हस्ती ने किया जिसने पहले नामवर और प्रशंसित हो चुकी हस्ती को अपने लिए मिसाल के रूप में चुना, जैसा कि सिकंदर महान के बारे में कहा जाता है कि उसने महान यूनानी योद्धा अकीलीज़ का अनुकरण किया.’
राहुल अपने से पहले किसी विजेता या मशहूर हुए व्यक्ति (मसलन मोदी) की तारीफ नहीं कर सकते. और जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें उसी हश्र का सामना करने को तैयार रहना चाहिए, जो हश्र इटली के फ्लोरेन्स गणतन्त्र के पतन के बाद मैकियावेली का हुआ था.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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