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Saturday, 21 December, 2024
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70 साल बाद राज्यसभा में टूटा ‘इलीट कल्चर’, नरेंद्र मोदी को क्यों भाए दलित कलाकार इलैयाराजा

कांग्रेस ने राज्यसभा को हमेशा इलीट कलाकारों तक सीमित रखा. उनके लिए ये मान पाना मुश्किल था कि कोई दलित, पिछड़ा या आदिवासी भी कलाकार की श्रेणी में राज्यसभा में आ सकता है या लोककला को भी कला माना जाना चाहिए.

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राज्यसभा के बनने के 70 साल बाद जाकर सरकार ने पहली बार अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति को कलाकार श्रेणी में राज्यसभा में मनोनीत किया है. संगीत सम्राट इलैयाराजा या राजा सर कोई मामूली कलाकार नहीं हैं. 7,000 से ज्यादा धुनें उन्होंने बनाई हैं. उनकी देशव्यापी ख्याति है और उनके राज्यसभा में होने से संसद और राज्यसभा का ही मान बढ़ेगा. उनके साथ सरकार ने एथलीट पीटी उषा, फिल्म लेखक विजयेंद्र प्रसाद और लोक कल्याण का काम करने वाले वीरेंद्र हेगड़े को भी राज्यसभा में भेजा है.

इसके साथ ही नरेंद्र मोदी सरकार ने प्रतिनिधित्व या डायवर्सिटी के मामले में एक और इलीट किला तोड़ दिया है. राष्ट्रपति भवन में वह पहली बार एक आदिवासी को भेजने जा रही है. लेकिन राज्यसभा में कलाकार श्रेणी में एक दलित कलाकार को भेजना राष्ट्रपति भवन में आ रही डायवर्सिटी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है. राष्ट्रपति भवन में दो बार दलित प्रतिनिधि- केआर नारायणन और रामनाथ कोविंद- आ चुके हैं. लेकिन कला की बात अलग है.

इलैयाराजा, कला और राज्यसभा

भारत में कला का जो शास्त्रीय और इलीट चरित्र बन गया है, उसमें वंचित समुदाय के एक व्यक्ति को उच्च स्थान देना कोई आसान काम नहीं है. कलाकार श्रेणी से इलैयाराजा का राज्यसभा में प्रवेश करना ज्यादा बड़ी हलचल वाली घटना है. इन समुदायों को बड़ी संख्या में पद्म सम्मानों में जगह देने की व्यवस्थित शुरुआत भी नरेंद्र मोदी शासन में हुई है.

राज्यसभा में इलैयाराजा के पहुंचने के महत्व को इस तरह समझें. राज्यसभा 1952 से चल रही है. बनने के समय से ही राष्ट्रपति (दरअसल केंद्र सरकार) इसमें 12 सदस्यों को मनोनीत करते हैं. ये लोग साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में काम करने वाले होते हैं, हालांकि, इसमें राजनीतिक पसंद-नापसंद का ख्याल हर सरकार रखती आई है. अब तक इस कटेगरी में 137 लोगों को मनोनीत किया गया है, जिसमें 21 लोग कलाकार श्रेणी से आए हैं.

इलैयाराजा से पहले इस श्रेणी में कोई दलित मनोनीत नहीं हुआ. आदिवासी या ओबीसी कैटेगरी से भी किसी को इस श्रेणी में राज्यसभा नहीं भेजा गया है. ये जगह हमेशा इलीट के लिए मानी गई. 1952 में जब पहली बार राज्यसभा में 12 लोग मनोनीत किए गए तो इनमें दो कलाकार – शास्त्रीय नृत्यांगना रुक्मिणी देवी अरुंडेल और पृथ्वीराज कपूर थे.

इन दोनों के बाद कलाकार श्रेणी में राज्यसभा में पहुंचने वालों की लिस्ट इस प्रकार है- हबीब तनवीर, नरगिस दत्त, वी.सी. गणेशन, एम.एफ. हुसैन, रविशंकर, वैजयंतीमाला बाली, शबाना आजमी, लता मंगेशकर, दारा सिंह, हेमा मालिनी, श्याम बेनेगल, जावेद अख्तर, बी. जयश्री, रेखा, रघुनाथ महापात्र, रूपा गांगुली, सुरेश गोपी, सोनल मानसिंह और अब इलैयाराजा.

दिलचस्प है कि किसी भी सरकार को ये ख्याल नहीं आया कि भिखारी ठाकुर, एम.एस. सुब्बालक्ष्मी, गंगूबाई हंगल, बिस्मिल्ला खान, शैलेंद्र, मोहम्मद रफी, रतन थियम या लोक कला की किसी बड़ी हस्ती, लंगा मंगनियार, बिदेसिया, छऊ, लावणी, तमाशा, थेयम, नाचा, पराई अट्टम या पांडवानी के किसी उस्ताद को कलाकार श्रेणी में राज्यसभा में भेजा जाए.

कांग्रेस या पूर्ववर्ती सरकारों, जिसमें वाजपेयी सरकार शामिल है, ने राज्यसभा के लिए कलाकारों के मनोनयन को इलीट कलाकारों तक सीमित रखा था. उनके लिए ये मान पाना मुश्किल था कि कोई दलित, पिछड़ा या आदिवासी भी कलाकार की श्रेणी में राज्यसभा में आ सकता है या लोककला को भी कला माना जाना चाहिए.

इस लेख में मैं इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करूंगा कि नरेंद्र मोदी क्यों दलित, आदिवासी, पिछड़े कलाकारों को राज्य सभा या पद्म सम्मान दे रहे हैं और पहले के प्रधानमंत्री इस काम को क्यों नहीं कर पाए.


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मोदी और सबका साथ

नरेंद्र मोदी परंपरागत इलीट नहीं हैं. वे किसी राजनीतिक परिवार के नहीं हैं. न ही किसी बिजनेस घराने के हैं. वे न तो एकेडेमिक हैं और न ही पूर्व नौकरशाह. इलीट स्पेस में वे बाहरी ही माने जाते हैं. इस मायने में वे स्वाभाविक शासक नहीं हैं. पार्टी के अंदर के सत्ता समीकरण में उन्हें आरएसएस और बाद में बड़े कॉरपोरेट का समर्थन इसलिए मिला क्योंकि क्योंकि वे हिंदुत्व के आक्रामक प्रतीक हैं और व्यापक सामाजिक समीकरण बनाने में समर्थ माने जाते हैं. उनको सत्ता में आने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए एक व्यापक समीकरण बनाकर चलना पड़ता है.

इस समीकरण में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी मुसलमानों और ईसाईयों के अलावा, सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करती है. ये विनायक दामोदर सावरकर के हिंदुत्व और विराट हिंदू की अवधारणा के मुताबिक भी है. इसके मुताबिक, मुसलमान और ईसाई अपनी पितृभूमि और पुण्य भूमि भारत से बाहर मानते हैं, इसलिए वे हिंदुत्व का हिस्सा नहीं हैं. इनके अलावा बाकी सब हिंदू छतरी के तले माने जाएंगे. इस विचारधारा में हिंदुत्व बनाम इस्लाम/ईसाई एक सतत संघर्ष है, जिसमें टिके रहने के लिए हिंदुत्व को विराट हिंदुत्व बनना पड़ता है. इस विचारधारा का व्यावहारिक धरातल पर प्रयोग ये है कि मुसलमानों और ईसाइयों के अलावा सबको जोड़कर चलो.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी और मोहन भागवत के नेतृत्व में मोहन भागवत दरअसल यही कर रहे हैं. चूंकि उन्हें सेक्युलरिज्म का कोई क्षद्म भी रचने की जरूरत महसूस नहीं होती, इसलिए पहले के शासन में जिन स्थानों पर मुसलमानों और ईसाइयों को एडजस्ट किया जा रहा था, वहां वे वंचित हिंदू जातियों के लोगों को एडजस्ट कर रहे हैं.

यही वजह है कि नरेंद्र मोदी पहले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद पर लाते हैं और दूसरी बार मौका मिलने पर द्रौपदी मुर्मू की इस पद पर दावेदारी पेश करते हैं. वे इलैयाराजा या पीटी उषा को राज्यसभा के लिए मनोनीत करते हैं. यही नहीं राज्यसभा के लिए बीजेपी के पार्टी के उम्मीदवारों की लिस्ट बनती है, तो उसमें भी आधे से ज्यादा नाम एससी, एसटी, ओबीसी के होते हैं. पद्म सम्मान में भी मोदी सरकार ने पहली बार आम जनता से नॉमिनेशन मांगने का सिस्टम शुरू किया है, जिसकी वजह से पद्म सम्मानों में भी अब वे चेहरे दिखने लगे हैं जो पहले नजर नहीं आते थे. सरकार का दावा है कि इस नई व्यवस्था का लक्ष्य महिलाओं, वंचित तबकों, एससी, एसटी, ओबीसी, दिव्यांग प्रतिभाओं और उन लोगों को सम्मानित करना है जो समाज के लिए बिना स्वार्थ के काम कर रहे हैं.

वंचित जातियों और समूहों में पैठ बनाने या उनके साथ संवाद कायम करने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी उन प्रतीकों और व्यक्तित्वों को भी अपना रही है, जो अन्यथा हिंदुत्व की विचारधारा के साथ मेल नहीं खाते. नरेंद्र मोदी लगातार बीआर आंबेडकर, जोतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले, नारायणा गुरु, बसवन्ना, रैदास, तुकाराम, अल्लूरी सीताराम राजू जैसे महान लोगों से जुड़े आयोजनों में शामिल होते हैं या राष्ट्र को बधाई देते हैं. ऐसा करना नरेंद्र मोदी की रणनीति ही नहीं, उनकी जरूरत भी है.

इलैयाराजा का राज्यसभा में पहुंचना भी अनायास नहीं हुआ है. इलैयाराजा का जन्म ईसाई परिवार में हुआ और बाद में उन्होंने हिंदू धर्म अपनाया. वे कह चुके हैं कि ईसा मसीह के बारे में ये गलत कहा गया है कि वे मरकर जिंदा हुए. दरअसल ये तो रमन महर्षी के साथ हुआ था. वे हाल के दिनों में एक किताब की भूमिका में नरेंद्र मोदी की तारीफ भी कर चुके हैं. इस क्रम में वे मोदी और बाबा साहब के बीच समानताएं भी तलाश चुके हैं. इस मायने में वे बीजेपी की योजना में पूरी तरह फिट बैठते हैं.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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