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Wednesday, 26 June, 2024
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लॉकडाउन में निर्मला सीतारमण का गुस्सा मोदी सरकार की छवि बिगाड़ रहा है

अगर निर्मला सीतारमण का गुस्सा भारत को उनकी प्रेसवार्ता से दूर करता है तो उन्हें अरुण जेटली और सोनिया गांधी से कुछ सबक लेना चाहिए.

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भारत को लगभग आधी सदी बाद एक महिला वित्त मंत्री मिली हैं, इंदिरा गांधी पहली थीं. निर्मला सीतारमण भारत की पहली पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री हैं. वे पहली पूर्णकालिक महिला रक्षा मंत्री भी रही हैं लेकिन सीतारमण का गुस्सा उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों का मुख्य मसला बनता जा रहा है. यह भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है, खासकर इसलिए कि देश कोरोनावायरस की महामारी से जूझ रहा है. गृहमंत्री अमित शाह तक को उन्हें शांत कराना पड़ा है.

राजनेताओं से अपेक्षा यही की जाती है कि वे लोगों की आशंकाओं और चिंताओं को शांत करने के लिए उनके हमदर्द जैसे दिखें. लेकिन मीडिया से संवाद करते हुए सीतारमण जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी पर वार नहीं कर रही होतीं तो प्रायः रूखेपन से पेश आती हैं. वैसे, जिस पद पर वे हैं उसके लिए जरूरी तमाम डिग्रियां उनके पास हैं.


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जेएनयू के सेंटर फॉर इकोनोमिक स्टडीज़ ऐंड प्लैनिंग से उन्होंने मास्टर्स डिग्री के अलावा एमफिल भी किया है. उन्होंने अर्थशास्त्र में भारत-यूरोप व्यापार विषय पर पीएचडी करने के लिए नामांकन कराया था लेकिन यह पूरा नहीं हो पाया क्योंकि उन्हें पति के साथ लंदन जाना पड़ गया था. यूके में उन्होंने प्राइसवाटरहाउसकूपर्स में सीनियर मैनेजर (आर ऐंड डी) के पद पर काम किया. ‘फोर्ब्स’ पत्रिका ने उन्हें 2019 की दुनिया की सबसे शक्तिशाली 100 महिलाओं में 34वें नंबर पर रखा था. लेकिन आज, जब भी वे सार्वजनिक तौर पर कुछ बोलती हैं तो उनका गुस्सा ही चर्चा का विषय बन जाता है.

है न अनूठी बात? जी हां. महिलाओं को प्रायः इसी नज़र से देखा जाता है. पुरुष नेता अगर गुस्सैल है तो उसे शक्तिशाली और दृढ़ माना जाता है, जैसे अरविंद केजरीवाल. मोदी के खिलाफ आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक केजरीवाल के हमलों, और इससे पहले ‘भ्रष्ट’ कांग्रेस के खिलाफ उनकी मुहिम को काफी दिलचस्पी से देखा गया. अन्ना हज़ारे के ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ अभियान के बाद केजरीवाल के शुरुआती दिनों में उनकी खांसी ने उन्हें रातोरात लोकप्रिय बना दिया था. उनका गुस्सा एक साफ संदेश देता था कि उनमें देश के सबसे ताकतवर लोगों से लड़ने की हिम्मत है.

लेकिन महिला राजनेता अगर गुस्सैल हो तो उसे ‘सनकी’ या ‘ड्रामेबाज़’ कहा जाता है. दूसरे शब्दों में यह कहा जाता है कि वह इतनी ‘भावुक’ है कि देश का नेतृत्व करने के लायक नहीं है. ममता बनर्जी के बारे में क्या हम यह सब नहीं सुन चुके हैं? वास्तव में, सीतारमण जिस भाजपा की हैं वह तो ममता का निरंतर मखौल ही उड़ाती रही है. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने ममता के गुस्से का यह कहकर मज़ाक उड़ाया था कि ‘इन दिनों दीदी बहुत जल्दी नाराज हो जाती हैं. दीदी! इतना गुस्सा ठीक नहीं है. आप बीमार पड़ जाएंगी.’

वो अरुण जेटली नहीं 

सीतारमण की योग्यताएं महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि महिलाओं को प्रायः सिर्फ इसलिए अक्षम मान लिया जाता है कि वे महिला हैं. ऊपर से अगर वह गुस्सैल है तो यह उन्हें नेतृत्व की भूमिका के लिए अयोग्य ठहराने के लिए काफी मान लिया है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि सीतारमण को अक्सर मज़ाक में ‘ताई’ कहा जाता है. महिलाएं एक गलती भी कर दें तो उन्हें भोली-भाली बता दिया जाता है, मगर नोटबंदी करके अर्थव्यवस्था को लंबे समय के लिए पंगु कर देने के बावजूद हम मोदी को एक मौका और देने को तैयार रहते हैं.

वैसे, सीतारमण ने अपने गुस्से के कारण अपना काम ही बिगाड़ा है. इसे समझने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि वित्तमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल की तुलना अरुण जेटली के कार्यकाल से की जाए. वित्तमंत्री के तौर पर जेटली ने नोटबंदी और जीएसटी, दोनों को लागू कराया लेकिन अपने शांत हाव-भाव और हाज़िरजवाबी के बूते वे ज़्यादातर प्रेस कॉन्फ्रेंस को अच्छी तरह निपटा लेते थे. मोदी सरकार की नीतियों को लेकर वे कभी खेद नहीं जताते थे और ऐसा वे कुटिल मुस्कान के साथ किया करते थे.

लेकिन सीतारमण ने तो पुणे में भाजपा कार्यालय में जीएसटी पर उद्योग जगत के विशेषज्ञों के साथ हुई बैठक में एक प्रतिनिधि को यह कहकर झिड़क दिया कि जीएसटी अब देश का ‘कानून’ बन गया है इसलिए वे उसकी आलोचना नहीं कर सकते, कि ‘हम यह नहीं कह सकते कि यह कैसी बेकार व्यवस्था है’, क्योंकि इसे काफी विचार-विमर्श के बाद कानून बनाया गया है. इस संवाद के लिए सीतारमण की काफी आलोचना हुई थी.

गलत को सही कहें?

इतने वर्षों में सीतारमण ने कई कुख्यात असहमतियां जाहिर कीं, जिन्हें कुछ लोग अहंकारी कह सकते हैं, तो कुछ लोग उनकी दृढ़ता कह सकते हैं. 2018 में कर्नाटक के कोडगू में भारी बारिश के दौरान सेना के राहत तथा बचाव कार्यों की समीक्षा बैठक में वहां के मंत्री सा. रा. महेश से उनकी टक्कर की काफी चर्चा हुई थी. उन्हें समय की कमी के कारण बैठक खत्म करने के लिए कहा गया था, तब बताया जाता है कि उन्होंने कहा था कि ‘मैं एक केंद्रीय मंत्री हूं और मैं आपके निर्देशों पर चल रही हूं. यह अविश्वसनीय है!’

या फिर उस ऑडियो क्लिप को लीजिए, जिसमें उन्हें स्टेट बैंक के अध्यक्ष रजनीश कुमार को असम के उन ढाई लाख चाय बागान मजदूरों के बैंक खातों को केवाइसी न होने के कारण बंद कर देने के लिए डांट लगाते सुना जा सकता है— ‘आपकी नाकामी का कोई इलाज नहीं है’… ‘आप बेरहम बैंक वाले हैं.’

रक्षमंत्री के रूप में सीतारमण ने 2018 में तमिलनाडु में आयोजित डिफेंस एक्सपो में रक्षा साजो-सामान बनाने वाली रूसी फ़र्मों को कथित तौर पर उपेक्षित कर दिया था. बाद में, एक्सपो में आए एक बड़े रूसी अधिकारी ने कहा था, ‘भारत-रूस दोस्ती का यह हश्र हो गया है. भारत का राजनीतिक माहौल अब रूस के प्रति दोस्ताना नहीं रहा.’ उन्होंने यह भी कहा था कि यह उपेक्षा जानबूझकर की गई है.

गुस्सा क्यों हैं, मत पूछो

सीतारमण जो भी करती हैं उसे प्रधानमंत्री कार्यालय के जरिए आगे बढ़ना चाहिए, लेकिन मंत्री के तौर पर उनकी कार्यशैली की आलोचना ही होती है. हाल में, अर्थव्यवस्था के लिए पैकेज के सिलसिले में प्रेस ब्रीफिंग के दौरान उन्होंने जिस तरह राहुल गांधी की कथित ‘ड्रामेबाजी’ पर अपना गुस्सा उतारा और जिस आक्रामक तेवर के साथ सोनिया गांधी और विपक्ष के लिए अपने हाथ जोड़े, उसने उनकी गुस्सैल छवि को और मजबूत ही किया.


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सीतारमण के तौर-तरीके के कारण वित्तमंत्री के कार्यालय की छवि एक मनमाने महकमे की बनती है. इससे ऐसा भी लगता है कि उन पर हमेशा हमले किए जा रहे हैं, इसलिए वे हमेशा बचाव की मुद्रा में रहती हैं. धीर-गंभीर होना राजनीति में आपको काफी आगे ले जा सकता है, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इसे बखूबी साबित कर चुकी हैं. हालांकि उन पर लगभग रोज सनक भरे हमले किए जाते रहे हैं.

लेकिन सीतारमण ने ज़्यादातर मौकों पर अपनी विनम्रता नहीं दिखाई है. और कोई भी यह उम्मीद नहीं करता कि वे महिला हैं इसलिए उन्हें नरम होना चाहिए. लोग उनसे नरम होने की अपेक्षा इसलिए करते हैं कि इस तकलीफदेह लॉकडाउन में अपने आर्थिक पैकेजों से लोगों के भविष्य तय कर रही हैं. मीडिया उनसे मुश्किल और तीखे सवाल करे तो वह बिलकुल जायज होगा, क्योंकि वे भारत की जनता के प्रति जवाबदेह हैं. वे तो भाजपा की प्रवक्ता भी रह चुकी हैं, इसलिए मीडिया के साथ उनके संबंध तो काफी दोस्ताना होने चाहिए थे.

लेकिन उनकी छवि इस महामारी के कारण पहले ही सकते में फंसी सरकार की मुश्किलें ही बढ़ा रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

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1 टिप्पणी

  1. Ek pray hokar aap orat ke khilaf lekh lkihti ho…kitni grina hai tmhre andar …..u r totally hindufobic….

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