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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतसेक्यूलर भारत को बचाने की लड़ाई राष्ट्रवाद की जमीन पर खड़े होकर ही लड़ी जा सकती है

सेक्यूलर भारत को बचाने की लड़ाई राष्ट्रवाद की जमीन पर खड़े होकर ही लड़ी जा सकती है

सेक्युलरवाद भारतीय राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग है, और सिर्फ गांधी-नेहरु की परंपरा वाला सेक्युलरवाद ही नहीं बल्कि भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की परंपरा वाला सेक्युलरवाद भी हमारे राष्ट्रवाद का अटूट हिस्सा है.

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इस कॉलम के अपने पिछले लेख में मैंने कहा था- `इस्लामी देशों के समर्थन को दूर से सलाम, नफरत के खिलाफ लड़ाई हमें खुद ही लड़नी होगी.` इस लेख पर कई तीखी प्रतिक्रियाएं आयीं— कुछ प्रतिक्रियाएं सार्वजनिक थीं तो कुछ निजी. मेरे मित्र और देश की सबसे सुलझी-समझदार आवाजों में एक प्रोफेसर अपूर्वानंद ने लिखा कि इस किस्म का उदारवादी तर्क चालाकी भरा है. नौजवान और हिम्मती पत्रकार अलीशान जाफरी ने (इन्हें मैं फॉलो करता और सीखता हूं) तो एक पूरा ट्विटर थ्रेड ही इस बात पर लिखा कि दिप्रिंट पर छपा मेरा लिख किस तरह `एक धुर राष्ट्रवादी के `ततःकिम्` तर्ज के भूल-भूलैया वाले तर्कों की एक मिसाल` है.

जाहिर है, लेख पर आयी कुछ अन्य प्रतिक्रियाओं का मिजाज इतना उदार ना था. इन प्रतिक्रियाओं में मुझे `छुपा संघी`, नरेन्द्र मोदी सरकार का हिमायती और अपने सह-धर्मियों के हाथों हुए अपराध का भागीदार बताया गया. अफसोस ! कि भारत में सार्वजनिक बहसें अब इसी रीति पर हुआ करती हैं.

इन तमाम आलोचनाओं का एक-एक करके जवाब ना देकर मैं यहां इस मौके का इस्तेमाल एक बातचीत की शुरुआत के तौर पर करना चाहता हूं- एक ऐसी बातचीत जो सेक्युलर हिन्दुस्तान के विचार के पक्ष में खड़े लोगों के बीच होनी ही चाहिए. बातचीत के इस मकसद को साधने के लिए मैं यहां ऐसी सैद्धांतिक और कानूनी बहसों में नहीं जाना चाहता कि सेक्युलरवाद है क्या और किसे सच्चा सेक्युलरवादी कहा जाये. यहां `सेक्युलरवादी` शब्द से मेरा आशय उन तमाम लोगों से है जो किसी हिन्दू राष्ट्र, इस्लामी राष्ट्र या खालिस्तान आदि के विचार को नहीं मानते, ऐसे लोग जो एक धार्मिक समूह का बाकी धार्मिक समूहों पर दबदबा कायम करने वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) सरीखे कानूनों पर विश्वास नहीं करते. राजसत्ता की ताकत के सहारे या फिर गली-मोहल्लों में मौजूद हिमायतियों के सहारे किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के साथ हिंसाचार किया जाता है (जैसा कि अभी मुस्लिम समुदाय के साथ हो रहा है) तो हिंसा के ऐसे आचरण का हर सेक्युलरवादी विरोध करेगा, चाहे यह हिंसा प्रतीकात्मक हो, शाब्दिक हो या फिर शारीरिक. मैं खुद को ऐसे ही सियासी समुदाय का एक सदस्य मानता हूं.

मुझे इस बात का अंदेशा है कि बीते कई बरसों से सेक्युलर राजनीति सियासी तौर पर लगातार हाशिए पर खिसकती गई है और इसने एक दुष्चक्र को जन्म दिया है. हम ज्यों-ज्यों अलग-थलग पड़ते गये हैं हमें अपने समूह की एकजुटता की जरुरत उतनी ही ज्यादा महसूस होती गई है. समवेत स्वर में हामी भरने और अपनी सेक्युलरी पहचान को साबित करने की मांग लगातार बढ़ती गई है और इसी हिसाब से एक-दूसरे पर आपस का विश्वास घटता चला गया है. हमारी जरुरत अत्याचार के शिकार हुए व्यक्ति के हक में और इंसाफ की खातिर खड़े होने की है लेकिन अपनी इस स्थिति के औचित्य पर बिना सोचे-विचारे हम बड़ी तेजी से फिसलकर एक ऐसी मुकाम पर चले जाते हैं जहां पहुंचकर हमारी जुबान अत्याचार के शिकार हुए व्यक्ति की जुबान में बदल जाती है और आखिर को हम वही बातें कहने लग जाते हैं जो अत्याचार के शिकार हुए व्यक्ति के तेज-जबान पैरोकार कहा करते हैं.

स्वस्थ किस्म के मतभेदों को गढ़ने और कहने की जगह सिकुड़ती जाती है. घेराबंदी को तोड़ने की रणनीतिक सोच पीछे छूट जाती है और भावना के धरातल पर जुड़ाव की जरुरत प्राथमिक हो उठती है. हमारे राजनीतिक सोच और निर्णय को पाला मार जाता है. ऐसे में हम पहले की तुलना में कहीं ज्यादा अलग-थलग पड़ जाते हैं.

मेरे ख्याल से, इस्लामी देशों के मचाये हंगामे पर सेक्युलरवादी समुदाय के बहुत से लोगों की तरफ से आयी प्रतिक्रियाएं कमजोर किस्म के सियासी फैसले की एक ठोस नजीर है. दूरगामी नुकसान के ऊपर तात्कालिक राहत को तरजीह देकर हम सेक्युलरी तर्ज की राजनीति की खोयी हुई जमीन पर दावा ठोंकने की अपनी संभावनाओं को गंवाते जा रहे हैं.


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नुक्तों को देख पाने से आलोचक क्यों चूके

शुरुआत एक स्पष्टीकरण से करना चाहता हूं जिसे अपने लेख में मुझे ज्यादा प्रकट तौर पर दर्ज करना चाहिए था. इस्लामी देश या फिर किसी भी विदेशी सरकार के हमारे अंदरुनी मामले में हस्तक्षेप करने के अधिकार को लेकर मेरी कोई आपत्ति हो—ऐसी बात कत्तई नहीं. मुझे ये बात बिल्कुल दुरुस्त लगती है कि जिस किसी भी देश में मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो, दुनिया की हर राजसत्ता उसका विरोध करे भले ही मानवाधिकारों की हिफाजत के मामले में उसका अपना रिकार्ड कैसा भी हो. पाखंड ही सही लेकिन अगर वह सामूहिक रुप से हो तो उसके सकारात्मक नतीजे निकल सकते हैं. वैश्विक स्तर पर मचे बावेले पर भारत सरकार क्या कदम उठाये—मैं इस बाबत कोई सलाह नहीं दे रहा. बाकियों की तरह मैं मोदी सरकार की इस मामले में घुटनाटेक रुख से निराश नहीं हूं और ना ही मैं मुस्लिम समुदाय को ही कोई सलाह दे रहा हूं. इस नाते, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने जो कारण गिनाये हैं कि आखिर मुसलमानों को इस्लामी देशों से मिले समर्थन से क्योंकर खुश होना चाहिए और राहत महसूस करना चाहिए, उन कारणों का लेख में मेरे कहे से कोई सीधा ताल्लुक नहीं.

लेख से ये बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि मैं अपने सेक्युलर समुदाय के साथियों से बावस्ता हूं जिसमें तमाम धर्मों के मानने वाले शामिल हैं और वे भी शामिल हैं जो किसी भी धर्म को नहीं मानते. मेरा सवाल है : इन इस्लामी देशों के इस हस्तक्षेप को लेकर हमारी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए ? क्या हम गुहार लगायें कि ऐसे हस्तक्षेप और हों? या हमें ऐसे हस्तक्षेप के प्रति स्वागत-भाव पालना चाहिए? या हमें बाहर से मिले इस समर्थन को लेकर सचेत रहना चाहिए, सावधानी बरतनी चाहिए?

मेरा मानना है कि हमारे लिए सचेत और सावधान रहने का यह दूसरा रास्ता ही ठीक है. बेशक जो नागरिक अपने सोच में समानधर्मा हैं या फिर मानवाधिकारों पर काम करने वाली कोई विश्वसनीय संस्था है, (जैसे एमनेस्टी इंटरनेशनल या फिर संयुक्त राष्ट्रसंघ की कोई संस्था) तो मैं उनसे मिल रहे समर्थन का स्वागत करुंगा (मुझे ये बात अपने लेख में स्पष्ट रुप से कहनी चाहिए थी) लेकिन जहां तक सरकारों से मिल रहे समर्थन के प्रति स्वागत-भाव पालने या उनसे समर्थन मांगने की बात है, वह भी ऐसी सरकारों से जिनका मुद्दे पर रिकार्ड बड़ा लचर रहा है, तो मैं इसे दूर से सलाम करना ही ठीक समझता हूं और उस सूरत में तो और भी ज्यादा जब यह समर्थन महज ईशनिन्दा तक सीमित हो. मुझे अंदेशा है कि भारत के अल्पसंख्यकों के प्रति मोदी सरकार ने जो रुख अपनाया है, उसका सबके सामने भंडाफोड़ करने की जगह ऐसे हस्तक्षेपों से भारतीय जनता पार्टी को उस एक समुदाय को चोट पहुंचाना का एक और बहाना मिल जाता है जो वस्तुतः अब दूसरे दर्जे के नागरिक के रुप में रहने को मजबूर है.

मेरे आलोचक मित्र सहमत नहीं. उनका तर्क है कि मैं किसानों के संघर्ष के मामले में बाहर से मिल रहे समर्थन को स्वीकार करने को तैयार था लेकिन मुसलमानों को मिल रहे समर्थन के प्रति मेरे मन में वैसा कोई स्वागत-भाव नहीं है. लेकिन मेरे मित्र ऐसा सोचने में गलती कर रहे हैं. किसान-आंदोलन के समय भी मेरा रुख ऐसा ही था. मित्रों को लगता है कि किसी चीज के बाहरी होने के आधार पर ही उससे विरोध ठान लेना ठीक नहीं, कि यह तो एक किस्म का मनोरोग हुआ— लेकिन ऐसी बात नहीं है. मित्रों की आलोचना से मुझे मसले पर अपने रुख का स्पष्ट तौर से इजहार करने में मदद मिली है. दोस्तों का कहना है कि मैं इस बात को देख ही नहीं पा रहा कि अल्पसंख्यक की हिफाजत के मामले में राज-संस्थाएं, विपक्षी दल और नागरिक-समाज(सिविल सोसायटी) नाकाम हो चुके हैं. हो सकता है, इन दिनों जो मैं लिखता-बोलता रहा हूं उससे मेरे मित्रगण आगाह ना हों लेकिन वे इस मसले पर बीजेपी के ट्रोल्स जो कुछ मेरे लिए कह रहे हैं, उसपर विश्वास कर सकते हैं.

दोस्त मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मुसलमान-विरोधी नफरत के बोल-वचन बगैर किसी हस्तक्षेप के आप से आप खत्म हो जायेंगे. ना, ऐसे बोल-वचन आप से आप खत्म नहीं होंगे. तो फिर इसी से जुड़ा हुआ एक सवाल यह भी होगा कि : क्या इस्लामी देशों ने जो हस्तक्षेप किया है उससे स्थिति के सुधार में कोई मदद मिलती है या हालत और ज्यादा बिगड़ती है? मैंने लिखा था कि भारत में ईशनिन्दा का कानून नहीं है. मेरे इस लिखे का कुपाठ हुआ, मान लिया गया कि मैं उस हिन्दू उदारवाद को अच्छाई का प्रमाणपत्र दे रहा हूं जो मौजूदा कानूनों की हो रही मनमानी व्याख्या के प्रति आंखें मूंदे रहता है.

लेकिन मैंने अपने लेख में जो कहा था, बस उतने ही भर से मेरा आशय था और मैंने कहा ये था कि : हमारे कानून की किताब में ईशनिन्दा का कोई कानून नहीं है और ना ही ऐसे किसी कानून की हमें जरुरत है. मेरे कुछ आलोचक ये सलाह दे रहे हैं कि मुझे अपने सह-धर्मियों यानी हिन्दूओं को हितोपदेश करना चाहिए. अगर ऐसा ही है तो फिर कोई मुझे ये बताये कि इस तरह की सोच और एक हिन्दू कट्टरतावादी की सोच में क्या फर्क रह जाता है ? और, फिर मुझे पर इस्लाम-भीति (इस्लामोफोबिया) के भी आरोप हैं. क्या मुझे यहां ये बताने की जरुरत है कि इस्लामोफोबिया शब्द के मायने ऐसे गहन-गंभीर हैं कि उनका मनमाना इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ?


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असल मुद्दा राष्ट्रवाद का है

जहां तक मुझे जान पड़ता है, मेरे और मेरे आलोचकों के बीच मतभेद की जड़ इस सवाल में है : क्या हमें ऐसा लगता है कि मोदी सरकार नफरत की बहुसंख्यवादी राजनीति का जो खुला खेल खेल रही है, उसके लोकतांत्रिक प्रतिरोध की कोई संभावना बची हुई है ? अगर ऐसी कोई संभावना नहीं बची तो हमें दूरगामी परिणामों की बात भूल जानी चाहिए और जहां से भी जिस किस्म की जो भी सहायता मिले उसे हासिल करना चाहिए, ऐसी सहायता का बांहें पसारकर स्वागत करना चाहिए. लेकिन अगर प्रतिरोध की संभावना बची हुई है तो फिर हमें ऐसी संभावना की राह में रोड़े अटकाने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए. यह एक कठिन सवाल है जो निष्पक्ष राजनीतिक विश्लेषण की मांग करता है.

मैं इस सवाल से पहले भी जूझता रहा हूं और अब भी जूझ रहा हूं. मुश्किल ये है कि मुझे मुद्दे पर दो अलग-अलग किस्म की बातें सुनने को मिलती हैं. नपी-तुली जबान में बात कहने वाले मुखर मुस्लिम एक्टिविस्ट तथा कुछ गैर-मुस्लिम सेक्युलर दोस्त एक किस्म की बात कहते हैं तो आम मुसलमान से इस मसले पर मुझे बिल्कुल अलग किस्म की ही बात सुनने को मिलती है.

सधी जबान में बात करने वाले मुस्लिम एक्टिविस्ट तथा गैर-मुस्लिम सेक्युलर दोस्त निर्णायक लड़ाई की भाषा में बात करते हैं, यों बात करते हैं मानो गैस-चैम्बर के दरवाजे पर खड़े हों. लेकिन आम मुसलमान हिम्मत हारने को तैयार नहीं. आम मुसलमान लोकतांत्रिक बदलाव की उम्मीद का दामन थामे हुए है, वह रोजमर्रा के प्रतिरोध की जमीन तैयार करता है, वह स्थानीय स्तर के गठजोड़ बनाता और नये कथानक के साथ सामने आता है. मैं ये बात ढेर सारे शाहीन बाग, पश्चिम बंगाल तथा उत्तरप्रदेश के चुनाव और हाल में उडुपी में हुए सांप्रदायिक सौहार्द्र के मार्च में देख चुका हूं. इस कारण, मैं लोकतांत्रिक प्रतिरोध की राह में बाधा पैदा करने वाले किसी काम को अपरिपक्व सोच और गैर-जिम्मेदार रवैये की नजीर मानता हूं.

इसी बिन्दु पर बात आती है राष्ट्रवाद की. मेरे आलोचकों को लगता है कि राष्ट्रवाद और सेक्युलरवाद के बीच संतुलन साधने का मेरा कोई छिपा हुआ अजेंडा है. आलोचक ठीक ही कहते हैं बस उनका ये मानना सही नहीं कि ऐसा करने के पीछे मेरा कोई छिपा हुआ अजेंडा है. मैं सचमुच ही मानता हूं कि सेक्युलरवाद भारतीय राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग है, और सिर्फ गांधी-नेहरु की परंपरा वाला सेक्युलरवाद ही नहीं बल्कि भगतसिंह और सुभाषचंद्र बोस की परंपरा वाला सेक्युलरवाद भी हमारे राष्ट्रवाद का अटूट हिस्सा है. सेक्युलरिज्म को हटा दिया जाये तो भारतीय राष्ट्रवाद हिन्दुओं के वर्चस्ववाद की एक कट्टर विचारधारा के सिवाय और क्या रह जायेगा— ऐसी विचारधारा को `हिन्दू पाकिस्तान` की विचारधारा ना कहें तो और क्या कहें.

इसके उलट, सेक्युलरवाद अगर राष्ट्रवाद की जमीन पर खड़ा ना हो तो फिर वह बेबुनियाद होगा, एक ऐसी विचारधारा बनकर रह जायेगा जिसके लिए कोई खड़ा ना होगा. हिन्दुओं और गैर-हिन्दुओं, बहुजन और `अगड़ी` जातियों को सभी समुदायों के लिए समान रुप से उपलब्ध भारत के एक साझे स्वप्न के भीतर एक साथ करने का हमारे पास सबसे कारगर औजार राष्ट्रवाद ही है. चाहे कितना भी कठिन हो लेकिन हमें एक रास्ता तलाशना होगा कि अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदाय संविधान-वर्णित सेक्युलर भारत के विचार से फिर से अपनापा जोड़ें.

अगर बात ऐसी है, तो फिर, हमें राष्ट्रवादी शब्दावली का अपने सुभीते के हिसाब से मनमाना इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. हमें भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की समृद्ध विरासत के प्रति सच्चा रहना होगा, राष्ट्रवादी संवेदनाओं के प्रति सचेत होना होगा. मुझे अंदेशा है कि यह काम दिन पर दिन कठिन होता जा रहा है. हमारे सामने दो किस्म के लोग(पब्लिक्स) हैं और इनकी आपस में बोल-चाल नहीं है. मेरे जैसे लोग, जो सेक्युलरवाद को बचाना चाहते हैं, दो घेरों में विभक्त इन लोगों से एक ही वक्त में बात करने के एक असंभव से काम पर लगे हैं. लेकिन, यह एक ऐसा काम है जिसे हम छोड़ नहीं सकते.

मेरे आलोचक मित्र कह सकते हैं कि इस किस्म की फिजूल की बातें वे बहुत सुन चुके, कि वे अब ऐसी कोई उम्मीद पालने से रहे. अगर ऐसा है तो फिर मेरे मित्रों को इस सहज से सवाल का जवाब देना चाहिए : हम सेक्युलर राज्य-व्यवस्था में किस रुप में रह पायेंगे? क्या सिर्फ डंडे के जोर से ? क्या अकेले संविधान और कानून के सहारे? या हमने भारत को तज दिया है? या हम अपने लिए नयी जनता का चुनाव करना चाहते हैं?

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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