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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतभारत के 20 करोड़ मुस्लिम मोदी सरकार से जो नहीं करा पाए वह कुछ इस्लामी मुल्कों ने करने पर मजबूर कर दिया

भारत के 20 करोड़ मुस्लिम मोदी सरकार से जो नहीं करा पाए वह कुछ इस्लामी मुल्कों ने करने पर मजबूर कर दिया

भारतीय मुसलमानों की भावनाओं की इतनी ही कद्र होती तो नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल को नफरत भड़काने वाला बयान देते ही तुरंत बर्खास्त कर दिया जाता, दुनियाभर के विरोध के बाद नहीं.

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भारतीय जनता पार्टी के शोर-मचाऊ, नफरत का जहर उगलने वाले प्रवक्ता ने जो कर दिया वह भारत के 20 करोड़ से ज्यादा मुसलमान नहीं कर सके. इन प्रवक्ताओं ने नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा का सामना उस विरोध से करा दिया, जो भारत में जारी राजनीतिक विमर्श पर हावी इस्लाम-द्वेष के खिलाफ उभर आया है. सरकार देश में मुसलमानों के खिलाफ नफरत और हिंसा के मामलों में वृद्धि की ओर ध्यान खींचने की कोशिशों की मजे से अनदेखी करती रही है. लेकिन अब अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण वह इस मसले पर ध्यान देने को मजबूर हुई है.

अब भूतपूर्व भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा और पार्टी की दिल्ली शाखा के पूर्व मीडिया प्रभारी नवीन कुमार जिंदल ने अकेले दम पर इस्लामी मुल्कों में मोदी की चमकती छवि को धूमिल कर दिया है. ये मुल्क अरब देशों के बीच मजबूत रिश्ता बनाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को अपने देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाज चुके हैं. अब उनमें से कई देशों ने तो उन बयानों की निंदा की है लेकिन ईरान, क़तर, कुवैत ने भारतीय राजदूतों को जवाबतलब के लिए बुलाया.

अंतरराष्ट्रीय दबाव के तहत शर्मा का निलंबन और जिंदल की बरखास्तगी कोई छोटी बात नहीं है. पैगंबर मुहम्मद साहब और उनकी बीवी पर शर्मा की निंदनीय टिप्पणी ने दुनियाभर के मुसलमानों को नाराज कर दिया. और इस बार विदेश मंत्री एस. जयशंकर की हाजिरजवाबी काम नहीं आई. भारत के मुसलमानों को जिहादी, पत्थर फेंकने वाला, कोविड फैलाने वाली लापरवाह जमात कहकर उन्हें गाली देने को ‘आंतरिक मामला’ बताकर दरकिनार किया जा सकता है, लेकिन इस्लाम और उसके सबसे बड़े पैगंबर पर हमला तो दुनियाभर चर्चा का मुद्दा बनेगा ही.


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भारतीय मुसलमानों को साफ संदेश

दुखद वास्तविकता यह है कि भारत के मुसलमानों की भावनाओं से मोदी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर पड़ता, तो नूपुर शर्मा और उन जैसों को नफरत उगलते ही बरखास्त कर दिया जाता, न कि अंतरराष्ट्रीय निंदा और जगहंसाई के बाद.

मुसलमानों ने अपने खानपान, पहरावा, शादी-ब्याह, और उपासना स्थल आदि से जुड़े मौलिक अधिकारों के मनमाने उल्लंघन पर कई बार आक्रोश जताया है. लेकिन मोदी सरकार ने उनके सरोकारों की ओर आंखें और कान बंद कर रखे हैं. नये कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए सिखों को ‘खालिस्तानी’ करार देने के बाद जिस तरह मलहम लगाने की कोशिश की गई वैसा कुछ मुसलमानों के साथ नहीं किया गया. अप्रैल में, लाल किले में गुरु तेग़ बहादुर के जयंती समारोह में मोदी खुद शरीक हुए जबकि उसी लाल किले पर किसान आंदोलन के दौरान निशान साहब को फहराया गया था.

वास्तव में, जब भी किसी अंतरराष्ट्रीय हस्ती ने भारत में अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के हक में आवाज़ उठाई, मोदी सरकार सीधे उसे खारिज करती रही. उदाहरण के लिए, अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने हाल में जब भारत में ‘मनवाधिकारों के उल्लंघन’ पर टिप्पणी की तो जयशंकर ने उनका खंडन कर दिया. इस्लामी देशी के संगठन ‘ओआइसी’ ने हिजाब विवाद और ‘मुसलमानों की संपत्तियों को तोड़े जाने’ का मसला उठाया तो सरकार ने उसे ‘सांप्रदायिक मानसिकता’ की उपज बताकर खारिज कर दिया.

भारत का मुस्लिम समुदाय रोज-रोज जिस नफरत का सामना कर रहा है उस हकीकत को न स्वीकार करने की मनमानी जमीनी स्तर पर सबसे बुरे रूप में सामने आई है. प्रमुख हिंदू साधु-संतों के नेतृत्व में और सैकड़ों लोगों की भीड़ के साथ जो ‘धर्म संसद’ हुई उसने हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ हथियारबंद होने और जनसंहार करने का आह्वान कर दिया.

अक्षय कुमार जैसे बॉलीवुड सितारों ने उस दुष्प्रचार को आगे बढ़ाया जिसे हिंदुत्ववादी संगठनों ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था के बार में मजबूती दी कि उसमें मुगल बादशाहों पर ज्यादा प्रकाश डाला गया है और हिंदू राजाओं की पर्याप्त जानकारी नहीं दी गई है.

चुप्पी से बनता माहौल

नफरत उगलने के लिए बदनाम रहे मंत्रियों के भाजपा में उत्कर्ष ने नफरत के माहौल और विस्तार दिया है. कपिल मिश्र, अनुराग ठाकुर, साध्वी प्रज्ञा, गिरिराज सिंह, तेजस्वी सूर्य, उनमें से कुछ चुनिंदा नाम हैं.

मीडिया नेटवर्क पार्टी प्रवक्ताओं को जब फौरी मगर सस्ती प्रसिद्धि पाने के लिए निजी, नफ़रतभरी, और बेबुनियाद टिप्पणियां करने की छूट देते हैं और मोदी सरकार इस पर मिलीभगत वाली चुप्पी साध लेती है तब माहौल और खराब होता है. टाइम्स नेटवर्क की ग्रुप एडिटर नाविका कुमार पूर्वाग्रहग्रस्त मेजबान की पक्की मिसाल हैं लेकिन ऐसे बहस कराने के लिए कभी चेतावनी नहीं दी गई.

जो विवादास्पद बहस अब अंतरराष्ट्रीय मामला बन गया है उसमें मुद्दा यह था कि ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग है या नहीं. उसमें वह चैनल खुद ही ‘झरना लॉबी’ और मस्जिद में शिवलिंग के होने का दावा करने वालों के बीच बहस का संचालन कर रहा था. लेकिन एंकर को कभी भी हस्तक्षेप करते, माइक बंद करते या नूपुर शर्मा के आपत्तिजनक बयानों की निंदा करते नहीं देखा गया. बल्कि वह दूसरे बहस में नूपुर शर्मा का बचाव करती दिखी.

नाविका कुमार और उन जैसे कई हैं जो भारत में इस कट्टरपंथ और इस्लाम-द्वेष को रोज-रोज क्या घंटे-घंटे मजबूत कर रहे हैं. और भारत की टेलिकॉम रेगुलेटरी ऑथरिटी ऐसे चैनलों या न्यूज़ एंकरों के खिलाफ कभी कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की है.

नूपुर शर्मा की बरखास्तगी को कई लोग झांसा बता रहे हैं. भारत सरकार ने अपने नागरिकों और दुनियाभर के लिए एक दुखद किस्म का संदेश दिया है कि वह केवल आर्थिक हितों की परवाह करती है. इसके अलावा, भारत के अल्पसंख्यकों— चाहे वे सिख हों या मुसलमान—की विदेश से पैरोकारी ने विभाजनकारी मान्यताओं, बहुसंख्यकवाद, और राजनीतिक ध्रुवीकरण को ही मजबूत किया है. विदेशी हस्तक्षेप के कारगर होने के कारण भारत सरकार की हस्ती कमजोर हुई है.

यह दुर्भाग्य की ही बात है कि भारत के मुसलमानों में यह धारणा बन रही है कि उनके मसलों पर तभी ध्यान दिया जाएगा जब मुस्लिम मुल्क उनकी ओर से आवाज़ उठाएंगे. दो सप्ताह पहले मैं प्रधानमंत्री के नाम खुले पत्र में अनुरोध किया था कि वे अपने हिंदुत्ववादी ब्रिगेड को उन्मादग्रस्त होने से रोकें वरना वे उन्हें और उनकी सरकार को ही नुकसान पहुंचाएंगे, और इसके साथ ही देशहित को भी चोट पहुंचाएंगे. लगता है कि यह सब कुछ जल्दी ही हो गया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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