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Sunday, 28 April, 2024
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किसानों के प्रदर्शन ने बहस को ‘MSP क्यों’ से ‘MSP कैसे’ पर ला दिया, अब देखना है ‘कब’ की बारी कब आएगी

किसान को एमएसपी की गारंटी देने के ठोस तरीके पर आंदोलन की समझ परिपक्व हो चुकी है, देखना है कि सरकारी नौकरशाह, दरबारी मीडिया और किताबी अर्थशास्त्री उस मुकाम तक कब पहुंचते हैं.

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किसानों का मौजूदा विरोध-प्रदर्शन देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) को लेकर चलने वाली बहस में एक बड़े बदलाव की प्रतीक है. साल 2021 में 13 माह तक किसानों ने जो ऐतिहासिक मोर्चा बांधा था उसमें यह बहस पहली बार “एमएसपी क्या” से “एमएसपी क्यों” तक पहुंची थी. मौजूदा विरोध-प्रदर्शन इस बहस को “एमएसपी क्यों” से “एमएसपी कैसे” तक ले गया है. बहस का आखिरी सिरा है ‘एमएसपी कब’ और हमें अब भी बहस के इस आखिरी सिरे तक पहुंचने का इंतजार है.

 

मुझे याद है साल 2016 और 2017 का वक्त जब मैं कई अग्रणी मीडिया संस्थानों के संपादकीय विभाग में जाया करता था. जय किसान आंदोलन ने विभिन्न राज्यों के कृषि-मंडियों से गुजरती एक एमएसपी यात्रा निकाली थी. जिस दाम पर सरकारी मंडी में अनाज की खरीद हो रही थी और जो घोषित तौर पर सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य था उसके बीच के अन्तर को देखकर तब हमें बड़ी हैरत हुई थी. इस बात का तो फिर जिक्र ही क्या कि सरकारी मंडी में घोषित सरकारी मूल्य से बड़े नीचे के भाव पर बिक रहा यह अनाज गांवों में किस भाव से खरीदा गया होगा. हमें ये भी पता चला कि ज्यादातर किसान इस बात से अनजान थे कि एमएसपी जैसी भी कोई चीज हुआ करती है. यह बात कुछ इलाके के थोड़े से किसानों को पता थी जहां सरकार खास फसलों की खरीद किया करती है. हमने ‘किसान की लूट’ नाम से अनाजों की खरीद का रोजमर्रा का हाल बताने वाला ट्रैकर जारी किया. इसमें हमलोग उन सरकारी आंकड़ों को प्रकाशित करते थे जिससे पता चले कि एमएसपी से नीचे की कीमत पर खरीद से किसानों को प्रतिदिन कितना नुकसान हो रहा है. अपवादस्वरूप चंद पत्रकारों को छोड़ दें तो ऐसी ज्यादातर सूचनाओं का जिक्र मुख्यधारा की मीडिया में नहीं हुआ.

इसी नाते हम लोग अपनी बात लेकर अखबार और टीवी चैनलों के दफ्तर पहुंचे. मुझे उन दफ्तरों में एमएसपी के जिक्र पर मीडियाकर्मियों के भावहीन चेहरे को देखकर बड़ा अटपटा लगा—वे पूछते थे कि ‘ये एमएसपी क्या चीज होती है?’ जिन थोड़े से मीडियाकर्मियों ने एमएसपी के बारे में सुना था वे भी यही मानकर चल रहे थे कि यह एमआरपी यानी न्यूनतम खुदरा खरीद मूल्य जैसी कोई चीज होती है, भले ही देश में इसे हर जगह लागू न किया गया हो. हमने जब सरकारी आंकड़ों के जरिये ये साबित किया कि एमएसपी एक ऐसी व्यवस्था है जिसका पालन हमेशा उसका उल्लंघन करके होता है तो मीडियाकर्मियों की हैरत देखने लायक थी.

साल 2020-21 का किसान आंदोलन बदलाव का एक बड़ा मोड़ साबित हुआ. हालांकि तब ज्यादा जोर तीन ‘काले कानूनों’ को वापस करवाने पर था लेकिन हमारी दूसरी बड़ी मांग एमएसपी की कानूनी गारंटी करने से जुड़ी थी. यहां तक कि जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी काले कानूनों के मुद्दे पर कदम वापस खींचने पर मजबूर हुए तब भी किसान लगभग एक महीने तक अपने मोर्चे पर डटे रहे ताकि एमएसपी की कानूनी गारंटी के मसले पर सरकार की तरफ से कोई ठोस पहल सामने आये. आखिरकार हिचकिचाहट में पड़ी सरकार ने एक समिति बनाने का लचर-सा वादा किया. यह समिति न तब कुछ कर पायी और न ही उससे अभी तक कुछ हो सका. फिर भी 2020-21 के किसान आंदोलन की उपलब्धि ऐतिहासिक रहीः ज्यादातर किसानों को पहली बार एमएसपी का जिक्र सुनने को मिला भले ही उन्हें ये न पता चला हो कि आखिर एमएसपी के नाम पर इतना हल्ला क्यों मचा है. चाहे एमएसपी तय करने के फार्मूले की समझ न बन पायी हो तो भी बहुत से किसान कार्यकर्ता इस बात से आगाह हो गये कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य का हक हासिल है और यह भी कि फसल का उचित दाम हासिल करने के इस हक से उन्हें वंचित रखा गया है. और, सबसे जरूरी बात कि किसान नेतागण आपस में सहमति कायम करने में कामयाब हुए कि आखिर एमएसपी की मांग से उनका आशय क्या है.


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सहमति के तीन बिन्दु

किसानों के आंदोलन में कायम इस सहमति में तीन चीजें थीं : ऊंचे दाम, बड़ा दायरा, और अमल में लाने की गारंटी.

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किसान आंदोलन में बनी सहमति के पीछे एक बुनियादी समझ ये रही कि एमएसपी तय करने का मौजूदा तरीका अनुचित है, यह तरीका बदलना चाहिए ताकि किसानों को उपज का लाभकर दाम मिले. इसके लिए कई तरह के बदलाव करने जरूरी होंगे जिसमें रमेश चंद समिति का सुझाया वह तकनीकी बदलाव भी शामिल है जिसके सहारे एमएसपी को बगैर फार्मूला बदले बढ़ाया जा सकता है. लेकिन सबसे बड़ा बदलाव होगा स्वामीनाथन आयोग के सुझाये फार्मूले को स्वीकार करनाः फार्मूला ये है कि एमएसपी संपूर्ण कृषि लागत-मूल्य (सरकार के दस्तावेजों की भाषा में कहें तो सी 2) और इस मूल्य के ऊपर 50 प्रतिशत और जोड़ने से जो रकम निकलकर आती है उससे कम नहीं होनी चाहिए.

दूसरी बात, समर्थन मूल्य की मांग सिर्फ उन्हीं 23 फसलों तक सीमित नहीं जो अभी सरकारी घोषणा के दायरे में आते हैं. सरकारी समर्थन मूल्य हर कृषि उत्पाद पर लागू होना चाहिए जिसमें फल, डेयरी तथा मुर्गीपालन आदि से मिलने वाले उत्पाद शामिल हैं.

तीसरी बात ये कि लाभकर दाम का आश्वासन सिर्फ जबानी जमा-खर्च तक सीमित नहीं रहना चाहिए. कृषि उत्पादों के लाभकर दाम देने के आश्वासन को कारगर बनाने का एक मात्र तरीका इसे कानूनी गारंटी का रूप देने का है. कानून बनने पर सरकार की जिम्मेदारी बन जायेगी कि वह किसानों को उपज पर एमएसपी दे. तीन परतों वाली यह मांग हर तरह के किसान-आंदोलन के बीच एका कायम करने के लिहाज से एक धुरी तरह काम करती है. इसमें वामपंथी रूख वाली किसान-सभाओं और दर्जनों भारतीय किसान यूनियनों से लेकर आरएसएस-समर्थित भारतीय किसान संघ तक शामिल है.

किसान आंदोलनों के बीच इस बात पर भी सहमति कायम हुई कि एमएसपी की गारंटी कैसे हो. हालांकि इस बदलाव का कोई औपचारिक दस्तावेजी रूप अभी तक सामने नहीं आ सका है तो भी किसान-आंदोलन अपनी मांगों के मामले में पुराने और कच्चे रूप से आगे बढ़ चुका है जबकि आलोचक अभी तक मांगों के पुराने रूप पर ही अपनी प्रतिक्रिया देने में लगे हैं.


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हवा में तलवार मत भांजिए

खास तौर पर देखें तो किसान आंदोलन एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग के पिछले दो रूपों को अब छोड़ चुका है. इन पुराने रूपों को आसानी से खारिज किया जा सकता है.

एमएसपी के पुराने रूपों में एक अधिकतम खरीद की समझ पर आधारित है. इसमें एमएसपी को कृषि उपज की सरकारी खरीद का पर्यायवाची मान लिया गया है. इसका मतलब हुआ, सभी किसानों को एमएसपी का मिलना तभी सुनिश्चित हो पायेगा जब सरकार हर फसल की पूरी उपज एमएसपी की दर पर खरीद ले. हर किसान को एमएसपी सुनिश्चित करने का आंदोलन का यह तरीका ठीक ही आलोचना का शिकार हुआ—आपत्ति जतायी गई कि किसान दरअसल असंभव की मांग कर रहे हैं. सरकार ने न तो ऐसे जमीनी इंतजाम किये हैं और न ही सरकार के पास इतनी रकम है कि वह एमएसपी की दर से नीचे बिकने वाली सारी ऊपज को खरीद ले. अगर सरकार ऐसा कर ले तो भी यह स्थिति कृषि-व्यापार पर सरकारी नियंत्रण जैसी बन पड़ेगी जो शायद ही कारगर साबित हो और आखिरकार ऐसी स्थिति में घाटा किसानों को ही उठाना होगा. किसान कत्तई नहीं चाहते कि एमएसपी सरकारी खरीद के जरिए ही मिले, वे बस इतना चाहते हैं कि सरकार गारंटी करे कि तरीका चाहे जो भी हो लेकिन उन्हें अपनी उपज एमएसपी से कम कीमत पर न बेचनी पड़े.

दूसरी तरफ किसान-आंदोलन में एमएसपी को लेकर एक समझ थी कि सरकार को इसके लिए बस कुछ न्यूमतम उपाय करने होंगे. इस समझ से चलने पर एमएसपी की कानूनी गारंटी का मतलब सिर्फ़ इतना होगा कि एमएसपी से नीचे ख़रीद फ़रोख़्त करने को क़ानूनी अपराध घोषित कर दिया जाए. ऐसी समझ के तहत बीते वक्तों में किसान-नेता कभी-कभी ये मांग करते थे कि सरकार बस एमएसपी से नीचे ख़रीद करने वाले व्यापारी को जेल भेज दे. ऐसी समझ के पीछे भोला-भाला सा यह विश्वास काम कर रहा होता था कि एक बार ऐसा कानून बनकर लागू हो जाये तो किसान को आप से आप एमएसपी हासिल हो जायेगी और सरकार को एक पाई खर्च नहीं करनी होगी. अब ये बात न तो अर्थशास्त्र के नियमों के अनुकूल है और न ही अनुभव में ऐसी कोई चीज देखने में आयी है. कई राज्यों ने अपनी कृषि-उपज विपणन समिति (एपीएमसी) के लिए बेशक ऐसे प्रावधान बनाये हैं लेकिन इन प्रावधानों को लागू करना असंभव है. अगर बाजार-मूल्य एमएसपी से बहुत कम हो तो किसी भी दंडात्मक प्रावधान को अमल में लाने पर सारी खरीद-बिक्री ढंके-छिपे होने लगेगी और किसान इस काला-बाजारी में अपनी उपज और ज्यादा कम कीमत पर बेचने को मजबूर होंगे. दूसरी तरफ सरकार के पास कानून बन जाने की स्थिति में एक स्थायी बहाना हो जायेगा कि हमने किसानों के फायदे के लिए एक ठोस उपाय आखिरकार कर दिखाया.

किसान-आंदोलन और इसके साथी एमएसपी गारंटी के इन दोनों ही पुराने तरीके को छोड़कर अब आगे बढ़ आये हैं जबकि एमएसपी गारंटी के सरकारी और दरबारी आलोचक इन्हीं दो रूपों पर अभी तक अपने तर्कों के तीर चला रहे हैं. एमएसपी गारंटी के इन दो रूपों से अलग अब किसान-आंदोलन के बीच इस बात पर लगातार सहमति बढ़ती जा रही है कि नीतियों के एक गुलदस्ते की ज़रूरत है। इस गुलदस्ते मे चार या पांच नीतिगत उपाय एक साथ करके वांछित नतीजा हासिल करने पर जोर हो. इस समझ के मुताबिक, एमएसपी की गारंटी करने का मतलब है सरकार कानून बनाकर गारंटी करे कि किसानों को अपनी सारी ऊपज की एमएसपी हासिल करने का हक है. सरकार या तो ख़ुद ख़रीदे, या फिर यह सुनिश्चित करे कि बाज़ार दाम एमएसपीएस से नीचे ना गिरें या अगर कमी रह जाती है तो सरकार किसानों के घाटे की भरपायी करे.

एमएसपी गारंटी का गुलदस्ता

इस गुलदस्ते में तीन तरह के फूल होंगे यानी सरकार को एमएसपी की गारंटी करने के लिए मुख्य रूप से तीन किस्म के बड़े हस्तक्षेप करने होंगे.

अव्वल तो सरकार को कुछ ऐसी योजनाएं चलानी होंगी जिनके जरिए चुनिन्दा फसलों की उपज की कुछ अतिरिक्त खरीद हो सके. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ते दर पर अनाज देने के मौजूदा चलन का दायरा बढ़ाते हुए उसमें दाल और तेल को भी शामिल करना (ऐसा तमिलनाडु में हो रहा है), मिड डे मील योजना में दूध, अंडे तथा फल की मात्रा बढ़ाना, मोटे अनाज को बढ़ावा देना और किसानों को दलहन की पैदावार के लिए प्रोत्साहित करने जैसे कई उपाय सरकार को किसान हितों से इतर मामलों में भी सुझाये गये हैं. ऐसे उपायों को अमल में लाने पर मोटे अनाज, दलहन और तिलहन के साथ-साथ दूध और अंडे का सरकारी उपार्जन बढ़ जायेगा.

दूसरी बात, सरकार बाजार में चंद चुनिन्दा मगर कारगर हस्तक्षेप कई तरीकों से कर सकती है. जल्दी खराब होने वाले खाद्य-उत्पादों की कीमतें आपूर्ति में हल्की सी बढ़त होने पर भी तेजी से घट सकती हैं. ऐसी स्थिति में सरकार खाद्य-उत्पाद का एक छोटा सा हिस्सा खरीद सकती है ताकि कीमतें ऊंची हो जायें. ऐसा मार्केट इंटरवेन्शन स्कीम के जरिए किया जा सकता है बशर्ते स्कीम के पास काम करने को ठीक-ठाक धनराशि हो. भारत सरकार के पास यह योजना पहले से मौजूद है लेकिन मौजूदा सरकार ने इस योजना को धन देने से हाथ खींच रखा है. यही काम मौजूदा वेयरहाऊस रिसीट स्कीम में सुधार करके भी किया जा सकता है. इस योजना के तहत किसानों को फसल बेचने की बजाय वेयरहाउस में रख कर उसके बदले कुछ पैसा मिल जाता है, जिसे एमएसपी से जोड़ा जा सकता है. इसके अतिरिक्त एफपीओ’ज़ को बढ़ावा दिया जा सकता है जो किसानों से एमएसपी पर खरीद करते हैं. और, इस सिलसिले की एक बात यह भी कि सरकार आयात-निर्यात की नीति में ऐसे सुधार कर सकती है कि कृषि-उत्पादों के निर्यात पर लगी गैर-जरूरी बाधाएं खत्म हों तथा आयात को बढ़ावा ना मिले यानी एक ऐसी नीति में बदलाव जो उत्पादकों की जगह फिलहाल उपभोक्ताओं और व्यापारियों को तरजीह देती है. इन उपायों को करने पर थोड़ी सी रकम खर्च करनी होगी और यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि कीमतें एमएसपी से नीचे न जायें.

कानूनी गारंटी का उपाय तो तीसरे चरण में काम आयेगा जब लगे कि ऊपर बताये गये तमाम उपायों को अमल में लाने के बावजूद कुछ किसानों को कुछ फसलों पर एमएसपी नहीं मिल पा रहा है. ऐसा होने पर सरकार भाव में अंतर के भुगतान के जरिए किसानों को घाटे की भरपायी कर सकती है. भावान्तर भुगतान योजना कई राज्यों में अमल में आ चुकी है और कमोबेश सफल भी रही है.भुगतान की जाने वाली रकम की गणना प्रति एकड़ औसत उपज (बगैर किसी वास्तविक रसीद आदि के) तथा अवधि-विशेष में बाजार-मूल्य का औसत निकालकर की जायेगी और इस रीति से आकलित कृषि-उपज की राशि सीधे किसान के बैंक खाते में भेजी जायेगी.

नयी संस्थागत व्यवस्था

इन सबके लिए संस्थागत नये इंतजाम करने होंगे. संसद को ऐसा कानून पारित करना होगा जिसमें एमएसपी के योग्य वस्तुओं की पहचान की गई हो, ऐसी पद्धति को परिभाषित किया गया हो जिसके जरिए स्वतंत्र रीति से ऐसी वस्तुओं का निर्धारण हो सके और ऐसे तरीके बताने होंगे जिनसे एमएसपी का मिलना सुनिश्चित हो तथा न मिलने की हालत में समाधान के ऐसे रास्तों का जिक्र होना चाहिए जिन्हें कानूनी तौर पर अमल में लाया जा सके. मौजूदा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) को खत्म कर एक स्वतंत्र तथा संवैधानिक किसान आयोग बनाना होगा जो क्रियान्वयन का काम संभाले तथा हर कोटि के किसान को पेश आ रही दिक्कतों का समाधान करे. सरकार को इसके लिए पर्याप्त प्रशासनिक इंतजाम करने होंगे और इसके लिए उचित राशि मुहैया करानी होगी.

किसान आंदोलन एमएसपी की बहस को आगे के पड़ाव तक ले आया है. लेकिन अब भी कुछ लोग ऐसे हैं जो समझते ही नहीं कि एमएसपी है क्या चीज और कुछ ऐसे भी हैं जो हर किसान को एमएसपी मुहैया कराने का अर्थ यह लगाते हैं कि सारी की सारी कृषि ऊपज सरकार निर्धारित दामों पर खरीद ले. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अर्थशास्त्र की स्कूली पोथियां खोलकर बैठे हैं और उसके भीतर से झांककर पूछते हैं कि एमएसपी को होना ही क्यों चाहिए. लेकिन अब बहस आगे बढ़कर ऐसी ठोस चर्चा तक आ चुकी है कि हर किसान को एमएसपी का मिलना सुनिश्चित कैसे किया जाये. आइए, उम्मीद करें कि किसानों के प्रतिरोध-प्रदर्शन और कांग्रेस की घोषणा के जरिए बहस अब ‘एमएसपी कब’ के पड़ाव तक पहुंचेगी. अगर कहीं राजनीतिक इच्छा-शक्ति है तो समझिए कि वहीं कानूनी रास्ता भी है.

(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से एक हैं और राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनका एक्स हैंडल @_YogendraYadav है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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