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Friday, 12 December, 2025
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एयरस्पेस सेक्टर में दिग्गज होना तो दूर, भारत असल में एक आयातक ही है

दशकों से भारतीय रक्षा उद्योग ‘देसी’ कलपुर्ज़े ही देता रहा है. इनमें से ज़्यादातर में बस आयातित पुर्जों की एसेंबलिंग की जाती है और आयात पर गहरी निर्भरता के ऊपर परदा डाल दिया जाता है.

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भारत का वायु-अंतरिक्ष (एयरस्पेस) अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी विकट वास्तविकता का सामना कर रहा है और उम्मीद की कोई किरण नहीं दिख रही है. दो अग्रणी परियोजनाओं — ‘तेजस’ फाइटर विमान और ‘ध्रुव’ हेलिकॉप्टर जिन्हें ‘मेड इन इंडिया’ के तहत डिज़ाइन और तैयार किया जा रहा है, पर फिलहाल एक घातक हादसे की वजह से काले बादल छा गए हैं. हादसे की जांच जारी है. अमेरिक से एफ-404/414 इंजनों की आमद में देरी की वजह से भारतीय वायुसेना को ‘तेजस’ की डेलीवरी में बुरी तरह बाधा आई है. इस बीच, ‘ध्रुव’ का समुद्री मॉडल डिजाइन में बड़ी खामी की जांच की वजह से 11 महीने से अटका पड़ा है.

इस उद्योग ने ‘तेजस’ के फिफ्थ जेनरेशन वाले दो संस्करणों—एड्वान्स्ड मीडियम कंबैट विमान और ट्वीन इंजिन डेक-बेस्ड फाइटर को लेकर महत्वाकांक्षी योजना बना रखी है, लेकिन ये दोनों योजनाएं ब्लूप्रिंट वाले चरण में ही हैं और उनका कोई नमूना नहीं तैयार हुआ. इसमें अड़ंगा शायद आयातित इंजन के इस्तेमाल को लेकर अनिर्णय के कारण लगा है. इस देरी को गंभीर बना रहा है डीआरडीओ के गैस टर्बाइन रिसर्च एस्टेब्लिश्मेंट (जीटीआरई) द्वारा बनाए जा रहे देसी जीटीएक्स-35वीएस/कावेरी इंजन के निर्माण में रुकावट, जबकि इसे 1986 में ही शुरू किया गया था. इसका पहला परीक्षण 1996 में किया गया था, इसके बाद से पिछले 39 साल में इस योजना की प्रगति को डिजाइन और प्रदर्शन में कमज़ोरी के कारण जितना झटका लगा है उतना ही डीआरडीओ की दूरदर्शिता और संकल्प में कमी के कारण लगा है.

इतिहास बताता है कि एयरोस्पेस की हर बड़ी ताकत ने एयरफ्रेम और एयरो-इंजन के डिज़ाइन में महारत हासिल कर ली है, जिसके कारण विमानों की परियोजनाओं पर उनका पूरा नियंत्रण है. भारत को भी इसकी कोशिश करनी चाहिए.

संस्थागत जड़ता

विडंबना यह है कि दुनिया में हथियारों के दूसरे सबसे बड़े आयातक, भारत के पास दुनिया की सबसे विशाल डिफेंस टेक्नोलॉजी और औद्योगिक आधार (डीटीआईबी) है. इसमें डीआरडीओ शामिल है जिसके पास प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों का बड़ा काडर और 50 प्रयोगशालाओं का नेटवर्क मौजूद है, जिन्हें आयुध कारखानों और डिफेंस क्षेत्र के 16 सार्वजनिक उपक्रमों की उत्पादन सुविधा का समर्थन हासिल है. सात दशकों से इस पूरी व्यवस्था ने ‘देसी’ कलपुर्ज़े दिए हैं और आत्मनिर्भरता का भ्रम पैदा किया है. हकीकत यह है कि इनमें से ज़्यादातर में बस आयातित पुर्जों की एसेंबलिंग की जाती है या रॉयल्टी के भुगतान के बाद लाइसेंसशुदा उत्पादन किया जाता है और आयात पर गहरी निर्भरता पर परदा डाल दिया जाता है.

भारत की एयरोस्पेस दिग्गज, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) इसकी एक मिसाल है. यह 1950 वाले दशक से अब तक ब्रिटिश, फ्रेंच, रूसी कड़ी के करीब 3,000 विमान, 5,000 एयरो-इंजन दे चुका है. लाइसेंस के आधार पर दशकों से निर्माण और मरम्मत करने के बावजूद एचएएल का इंजन डिवीजन धातु विज्ञान, प्रिसीजन इंजीनियरिंग, टूलिंग या मशीनिंग के मूल तत्वों को समझने में विफल रहा है. यह संस्थागत जड़ता और दूरदर्शिता की कमी को दर्शाती है जिसमें तकनीकी स्वतंत्रता हासिल करने की प्रेरणा नदारद होती है.

भारत की राजनीतिक व्यवस्था को भी कुछ दोष कबूलना होगा. 1960 के दशक से भारत हथियार खरीदने के लिए सोवियत संघ/रूस, अमेरिका, फ्रांस और इज़रायली खजाने को भरता रहा है; कुछ देशों की कंपनियों को तो दिवालिया होने से बचाया. नागरिक विमानन, ऊर्जा और भारी उद्योग जैसे सेक्टर भी विदेश में खूब पैसा खर्च करते रहे हैं, लेकिन किसी सरकार ने इन भारी-भरकम सौदों का लाभ भारत के पिछड़ रहे ‘डीटीआईबी’ के लिए विदेशी विक्रेताओं से आधुनिक टेक्नोलॉजी हासिल करने में नहीं उठाया.

इसके विपरीत, चीन को देखिए. भारत की तरह, 1950 से शुरुआत करके चीन ने चतुराई और संकल्प के साथ अपने सैन्य-उद्योग परिसर में क्रांति ला दी. चीनी गणतंत्र को अपनी स्थापना के साथ ही दोस्ती सोवियत संघ से भारी पैमाने पर हथियार मिले, लेकिन जब वैचारिक विवाद उभरने लगा तो मॉस्को ने सहायता से हाथ खींच लिए. यह स्थिति आते देख चीनी नेताओं ने सोवियत हार्डवेयर और ब्लूप्रिंट को कब्जे में रखा. टूट के बाद माओ ज़ेदौंग ने ‘गुओचान्हुआ’ का राष्ट्रीय अभियान शुरू कर दिया. यह ‘रिवर्स इंजीनियरिंग’ की मुहिम थी. दो दशक के भीतर चीन ने राइफल से लेकर जेट फाइटर, टैंक, युद्धपोत, पनडुब्बी और मिसाइल जैसे सोवियत हार्डवेयरॉन का देसीकरण कर दिया. लाइसेंस न होने के कारण डिज़ाइन में खोट रही और हादसे हुए, लेकिन चीनियों ने जोखिम उठाने से परहेज नहीं किया और जुटे रहे.

सैन्य वैमानिकी में एयरो-इंजन की केंद्रीय भूमिका को कबूल करते हुए तंग श्याओपिंग ने 1986 में ही जेट इंजन परियोजना की शुरुआत कर दी. अरबों खर्च करने और कई नाकामियों का सामना करने के बाद चीन WS-10 एयरो-इंजन का उत्पादन करने में सफल हो गया, जो लाइसेंसशुदा उत्पादन के तहत फ्रेंच-अमेरिकन CFM56 इंजन पर आधारित था. अब सुधरा हुआ WS-10 एयरो-इंजन चीन की वायुसेना ‘पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एयर फोर्स (पीएलएएएफ)’ के लड़ाकू विमानों के बेड़े को उड़ान भरने की ताकत दे रहा है. अनुमान है कि ये इंजन हाल में उदघाटित सिक्स्थ जेनरेशन जे-36 और जे-50 फाइटर विमानों को ताकत दे रहे हैं.

इस हालात में भारतीय वायुसेना, आईएएफ को चीनी और पाकिस्तानी वायुसेनाओं से ऑपरेशन के मामले में भयानक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. 42 स्क्वाड्रनों की मंजूरशुदा तादाद के जगह फिलहाल 29 स्क्वाड्रन ही तैनात हैं. ऐसे में इस सेवा को विविध क्षितिज-कोणों और भूगोल से खतरों का मुकाबला करने जुटे रहना पड़ेगा. उत्पादन में सुस्ती के कारण तेजस एमके-1 और 1ए की डिलीवरी में जबकि देरी हो रही है और नौकरशाही की प्रक्रियाओं के कारण विदेश से अधिग्रहण रुका पड़ा है.

टेक्नोलॉजी में चीन से बराबरी की कोशिश

‘आत्मनिर्भरता’ बेशक एक जायज आकांक्षा है, लेकिन दूरदर्शितापूर्ण योजना उपलब्धियों के मुकाम, समयसीमा और कड़ी निगरानी के बिना यह केवल नारा बना रहेगा. अपने वैमानिकी उद्योग की संभावनाओं को मुक्त करने के लिए भारत को इसे उदासीन रक्षा उत्पादन विभाग की गिरफ्त से छुड़ाना होगा और इसमें निजी क्षेत्र की गतिशीलता, आविष्कार और कार्यकुशलता को जगह देना होगा. राफेल या सुखोई Su-57 जैसे विदेश अधिग्रहण महज़ दर्दनाशक हैं, टेक्नोलॉजी के मामले में हम जो दशकों पीछे छूट गए हैं उस दूरी को पाटने में ये मदद नहीं कर सकते. भारत को जहां से मिले, वैश्विक विशेषज्ञता हासिल करने में पूरे ज़ोर से जुट जाना होगा.

पश्चिम में औद्योगिक खुफियागीरी के अलावा, बौद्धिक संपदा अधिकारों की उपेक्षा करके चीन ने ‘थाउजेंड टैलेंट्स प्लान’ लागू किया है, जिसमें अपने अनुसंधान व विकास (आर एंड डी) प्रयासों को मजबूती देने के लिए विदेशी प्रतिभाओं को वित्तीय लोभ देकर हासिल करने की योजना बनाई गई है. दुर्लभ प्रेरणा का प्रदर्शन करते हुए भारत ने भी 1956 में जर्मन डिजाइनर कुर्त टैंक की सेवाएं ली थी, जिन्होंने एचएएल को अपना पहला सफल जेट फाइटर एचएफ-24 मारुत को डिज़ाइन करने में मदद दी थी.

भारत और रूस के बीच हाल में ‘लेबर मोबिलिटी’ (कामगारों की आवाजाही) को लेकर जो समझौता हुआ है उसने भारत को अवसरों की रणनीतिक खिड़की खोल दी है. भारत जबकि कुशल कामगारों का निर्यात करके रूस की जनसांख्यिकीय कमी को दूर करने में मदद कर सकता है, उसे बदले में कुछ पाने की भी कोशिश करनी चाहिए. भारत जिन क्षेत्रों में टेक्नोलॉजी के मामले में चुनौती महसूस करता है उनमें आला रूसी विशेषज्ञों की सेवाएं दीर्घकालिक करार पर हासिल करने की मांग कर सकता है. ऐसी व्यवस्था भारत को आर एंड डी की बाधाओं से पार पाने और टेक्नोलॉजी के मामले में वैश्विक होड़ में गंवाए गए समय की भरपाई करने में मदद दे सकती है.

(अरुण प्रकाश एक नौसेना पायलट हैं. वे नौसेना प्रमुख और चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष रह चुके हैं. यह उनके व्यक्तिगत विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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