पंजाब में जबकि चुनाव अभियान जारी था, वहां की दीवारों पर लिखी इबारतों को पढ़कर मैं इस दुविधा में पड़ गया कि पहले किस मसले को चुनूं, राजनीति और चुनावी संभावनाओं को या उनके मुक़ाबले ज्यादा गंभीर सामाजिक बदलाव को, जो कि राजनीतिक और धार्मिक बदलाव भी है.
साफ कहूं तो यह भेद खास तौर से पंजाब पर नहीं लागू होता क्योंकि धर्म और राजनीति का मेल सिख धर्म के केंद्रीय सिद्धांत ‘मीरी-पीरी’ में दर्ज है. पिछली सदियों में यह और मजबूत ही होता गया है क्योंकि इसे सिखों के छठे गुरु गुरु हरगोविंद (1595-1644) ने औपचारिक स्वरूप दे दिया था. वे अपने साथ दो तलवारें रखते थे—एक तलवार ‘मीरी’ (राजनीतिक/लौकिक शक्ति) के लिए, दूसरी ‘पीरी’ (आस्था/अध्यात्म की शक्ति) के लिए.
इस कॉलम की सीरीज का यह लेख मुख्यतः पंजाब के माझा क्षेत्र की यात्रा पर आधारित है. ब्यास नदी के पश्चिम में पाकिस्तानी पंजाब से सटे बेहद उपजाऊ कृषि प्रधान इलाके को माझा क्षेत्र कहा जाता है. इस क्षेत्र के लगभग चप्पे-चप्पे पर महान सिख गुरुओं के कर्मों और पदचिह्नों की छाप महसूस की जा सकती है. मैं बाद वाले पहलू से शुरू करूंगा.
सिखों के सबसे पवित्र स्थल इसी क्षेत्र में हैं, जैसे अमृतसर का स्वर्णमंदिर, उसकी प्रतिकृति के रूप में गुरुद्वारा पास के तरण तारण में है, जिसे दरबार साहिब कहा जाता है. इसके साथ जो सरोवर है उतना बड़ा सरोवर किसी दूसरे गुरुद्वारा के साथ नहीं है.
राजनीति के साथ धर्म का इतना घालमेल कट्टरपंथ के लिए हमेशा उर्वर जमीन तैयार करता ही है. महत्वपूर्ण और चिंताजनक बात यह है कि इस बार के चुनाव में जो पांच दावेदार हैं उनमें से कम-से-कम तीन ऐसे हैं जो तीन दशकों से दबी आग को फिर से भड़काने की कोशिश में लगे हैं. यह संकेत आपको किसी दीवार पर लिखी इबारत से नहीं मिल सकता लेकिन प्रदर्शन के लिए रखे गए अकाल तख्त के एक ऐसे विशाल मॉडल से मिल सकता है जिसे 40 साल पहले इसी सप्ताह सेना के विजयंत टैंकों और 25 पाउंड वाली तोपों के गोलों से क्षत-विक्षत रूप में प्रस्तुत किया गया है.
इस मॉडल को बड़े अर्थपूर्ण मकसद से अकाल तख्त और स्वर्ण मंदिर के बीच रखा गया है ताकि यहां दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की नजर सबसे पहले इसी के ऊपर पड़े. इसे किसने वहां स्थापित किया? शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजीपीसी) ने. एसजीपीसी का कर्ताधर्ता कौन है? शिरोमणि अकाली दल, सिखों की प्रमुख राजनीतिक पार्टी, जो आज अपना वजूद बचाने की जद्दोजहद में लगी है, जिसका वोट प्रतिशत पहली बार 20 के आंकड़े से भी नीचे जा चुका है.
कुछ वोट तो उसने काँग्रेस के हाथों गंवाए, जबकि बड़ा हिस्सा उसने पिछले विधानसभा चुनाव में अपनी बदहाली के साथ ‘आप’ के हाथों गंवा दिया. और अब उसे नये-पुराने उग्रवादी नेताओं के मेल से खतरा पैदा हो रहा है. उसने अपने सबसे मजबूत साथी भाजपा का साथ भी खो दिया. गौरतलब बात यह है कि केवल अकाली दल ही इस आग से नहीं खेल रहा है. यहां तक कि भाजपा भी, जिसके कई कार्यकर्ता आतंकवाद से लड़ाई में मारे गए थे, इस खेल में कूद पड़ी है. इसके एक उम्मीदवार, सम्मानित पूर्व आइएफएस अधिकारी तरणजीत सिंह संधु की एक बड़ी चुनावी सभा में भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा जबकि मंच पर नहीं पहुंचे थे, पार्टी के ताकतवर सिख नेता मनजिंदर सिंह सिरसा ने पहले भाषण देते हुए श्रोताओं को याद दिलाया कि “काँग्रेस पार्टी ने किस तरह आपके मंदिर पर टैंकों और तोपों से हमला किया था”.
पंजाब में बीते उस सबसे यातनादायी सप्ताह के चार दशक बाद आज अकाली दल को लग रहा है कि उस सप्ताह की याद दिलाना उसकी राजनीतिक मजबूरी बन गई है. और भाजपा अपनी जगह बनाने और एक ठुकराए गए पुराने प्रेमी के रूप में बदला सधाने के फेर में इस हवा के साथ बह रही है.
टूट चुकी पुरानी जोड़ी के दोनों साथी इस मामले में एक-दूसरे से होड़ ले रहे हैं जबकि पूर्व आइपीएस अधिकारी सिमरनजीत सिंह मान दूर के संगरूर में दोबारा चुनाव जीतने की कोशिश कर रहे हैं, अमृतपाल सिंह (फिलहाल डिब्रुगढ़ जेल में कैद) बगल के खडूर साहिब से, और सरबजीत सिंह फरीदकोट (रिजर्व्ड) से चुनाव लड़ रहे हैं. गौरतलब है कि सरबजीत सिंह उस बेअंत सिंह के बेटे हैं, जो इंदिरा गांधी हत्याकांड के लिए मौत की सजा पाने वालों में शामिल था.
कट्टरपंथ खासकर उन इलाकों में वापसी कर रहा है जहां ग्रामीण सिखों की आबादी ज्यादा है, और इस चुनाव में दावेदार बनी पांच राजनीतिक ताकतों में से तीन इस आग से खेल रही हैं. अब आप समझ सकते हैं कि क्षत-विक्षत अकाल तख्त साहिब का मॉडल आज पंजाब की दीवारों पर लिखी सबसे बेबाक इबारत क्यों है.
अपने गुट का नाम कुछ विनीत भाव से ‘वारिस दे पंजाब’ रखने वाला अमृतपाल सिंह अभी मात्र 31 वर्ष का है और खुद को जरनैल सिंह भिंडरांवाले (वह भी 30 वर्ष की उम्र में उभरा था) की जमात का होने का दावा करता है. उसने पंजाब में पिछले साल खलबली मचा दी थी. भिंडरांवाले ने तो खालिस्तान का कभी नाम तक नहीं लिया था लेकिन अमृतपाल इस नाम का खूब इस्तेमाल करता था.
अपने एक साथी को पुलिस की गिरफ्त से छुड़ाने के लिए अजनाला में सीमावर्ती बड़े पुलिस थाने पर दुस्साहसी हमला करने के कुछ दिनों के बाद उसे पिछले साल 23 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया और असम के पूर्वी छोर पर डिब्रूगढ़ जेल में बंद कर दिया गया था. यह जेल शायद तरण तारण के उसके जल्लुखेड़ा खुर्द गांव से सबसे दूर है.
लेकिन तमाम आशंकाओं के बावजूद, उसकी गिरफ्तारी का न कोई विरोध किया गया और न कोई बवाल किया गया. ऐसा लगा कि उसकी ‘लोकगाथा’ का उपसंहार हो गया. एक गुब्बारा तेजी से फूला और फट गया. अब वह गुब्बारा फिर से फूलने लगा है. अमृतपाल अपने खडूर साहिब चुनाव क्षेत्र (जिसके अंदर उसका गांव स्थित है) से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहा है. उसे सिमरनजीत सिंह मान का समर्थन हासिल है. उनके पास उसका चुनाव चिह्न नहीं है मगर तमाम पोस्टर, पुस्तिकाएं, घोषणाएं, सब इसकी बात करते हैं. मान ने मुझसे कहा कि अमृतपाल ने उनसे समर्थन मांगा, और उन्होंने हां कह दिया. लेकिन इसके बाद कुछ सोचते हुए कहा कि “वैसे, मैं नहीं मानता कि उसे मेरे समर्थन की जरूरत है, वह ऐसे ही जीत रहा है.”
आप इसकी वजह जानना चाहते हैं? तो मेरे साथ उस रोड-शो में चलिए, जिसका नेतृत्व उसकी मां कर रही हैं. वे अमृतसर के बगल में और पंजाब की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान के साथ लगे खडूर साहिब सीट से उसके लिए वोट मांगती घूम रही हैं. नीले, भगवा और पीले रंग से बना उसका झंडा सबसे रंगीला है, और उसे बिलकुल माकूल चुनाव चिह्न मिला है, माइक्रोफोन. नारे ऐसे नहीं हैं जिन पर आप आपत्ति कर सकें.
दोपहर के 3 बज चुके हैं, सूरज पूरी बेरहमी बरत रहा है, तापमान चरम पर है. रोड-शो जैसे-जैसे गांवों के बीच से आगे बढ़ता है, उसके साथ चलने वाली गाड़ियों की संख्या बढ़ती जाती है. जुलूस बड़ा होता जाता है, उसमें ज़्यादातर युवा सिख, कुछ निहंग नजर आते हैं मगर कोई धार्मिक नारा नहीं सुनाई देता है.
अमृतपाल के घर के बाहर लंगर लगा है, एक झुंड वहां पहुंचता है, मैं उसके पिता तरसेम सिंह से पूछता हूं कि चुनाव लड़ने का खर्च कौन दे रहा है? वे बताते हैं, “हमारे पास तो कुछ भी नहीं है, ‘संगत’ ही दे रही है. और फिर, अकाल पुरख (ऊपरवाला) है.“ बातचीत आगे बढ़ाते हुए मैं पूछता हूं कि क्या उन्हें लगता है कि अमृतपाल चुनाव जीत गया तो सरकार उसे रिहा कर देगी? मुंबई, बहरीन, और दुबई में क्रेन ड्राइवर का कम कर चुके तरसेम सिंह का सोच बिलकुल साफ है : “तब उन्हें सोचना पड़ेगा कि वे उसे वोट देने वाले पांच लाख लड़कों को वे क्या जवाब देंगे.”
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वे खालिस्तान शब्द का सीधे-सीधे इस्तेमाल करते हुए कहते हैं, “हम चाहते हैं कि हर कोई ‘खालिस’, शुद्ध बने. खालिस्तान से हमारा मतलब यही है.”
अमृतपाल के कई चाचाओं में से एक, स्वरण सिंह ‘गोल्डन’ सिखों को लगाए गए ‘धक्कों’ (यानी उनके साथ की गई नाइंसाफ़ियों) की बात करते हैं. वे जो कहानी सुनाते हैं उसे आपने 40 साल पहले अगर इस इलाके की यात्रा की होगी तो जरूर सुनी होगी : 1849 तक सिख आज़ाद कौम थी, अंग्रेजों ने उसे धोखे से गुलाम बना लिया, यहां तक कि कश्मीर भी हमारा था; हमारे पवित्र ग्रन्थों में लिखा है कि चीन और रूस मिलकर पश्चिमी देशों से लड़ाई करेंगे; विश्वयुद्ध होगा और दुनिया का नक्शा फिर से बनाया जाएगा. जो लिखा जा चुका है उसे होने कोई रोक नहीं सकता, वह होकर रहेगा.
अब जरा याद कीजिए, ‘वारिस दे पंजाब’ के संस्थापक, और अभिनेता रहे दीप सिंह संधु ने किसान आंदोलन के दौरान दिए गए एक छोटे-से भाषण में क्या कहा था, जो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था. उसने कहा था कि यह आंदोलन केवल किसानों के लिए नहीं है, यह दुनिया की भू-राजनीति बदलने जैसे मुद्दों के लिए है.
वैसे, अमृतपाल फिलहाल ऐसा कोई वादा नहीं कर रहा है जिसे आप या मैं आपत्तिजनक या उग्रपंथी कह सकूं. उसके मांगपत्र में पवित्र स्थल को भ्रष्ट करने वालों को सजा देने, ड्रग्स संस्कृति के खिलाफ गंभीर संघर्ष करने, प्रलोभन और धोखे से धर्म परिवर्तन (ईसाई धर्म में) पर रोक लगाने, पाकिस्तान के साथ व्यापार शुरू करने, और पंजाब से बाहर जाने वाले प्रवासियों पर रोक लगाने जैसी 10 मांगें शामिल हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है जिसका वादा पंजाब के दूसरे दल नहीं कर सकते, सिवा शायद आखिरी मांग के.
मैं सोचने लगता हूं, तीन-चार दशक पहले यहां के गांव कैसे दिखते थे. खेत वही हैं, फसलें वही हैं, लगभग पूरा कृषि समाज वही है, लेकिन शिक्षा और हुनर के प्रति उदासीनता है और एकमात्र सपना है— विदेश में बसने का. लेकिन इसके लिए आपको सबसे पहले ‘आइईएलटीएस’ (इंटरनेशनल इंगलिश लंग्वेज़ टेस्टिंग सिस्टम) पास करना होता है जो कि अंग्रेजी भाषा के प्रयोग की बुनियादी परीक्षा है लेकिन जिसमें ज़्यादातर लोग फेल हो जाते हैं. यहां युवा लोग भी जिस तरह की ड्रेस, चाल-ढाल, बातचीत का लहजा अपना रहे हैं, पवित्र ग्रंथों के हवाले देते रहते हैं उस सबसे ऐसा लगता है मानो यह क्षेत्र किसी एक कालखंड में ही ठहर गया है जबकि बाकी देश का बड़ा हिस्सा आगे बढ़ चुका है. अगली बार जब आप क्षेत्रीय असंतुलन के बारे में विचार करें तो केवल समुद्रतटीय राज्यों और हिंदी क्षेत्र की ही तुलना न करें. ग्रामीण पंजाब इन दोनों के बीच काही अटका नजर आएगा. एक ही अंतर है कि पंजाब के गांवों का कामगार वर्ग किसी भारतीय राज्य में नहीं बल्कि कनाडा में प्रवासी बनना चाहता है. इसकी वजह क्या है, मैं बताता हूं.
खेती-बाड़ी से कमाई और विदेश से आने वाले पैसे से यहां के परिवारों ने अपने अच्छे घर बना लिये हैं. इनके आगे से गुजरते हुए आप मक्के और अनाज के खेतों के बीच खड़े इनके हवेलीनुमा आकारों को देखकर हैरान रह जा सकते हैं. लेकिन तरण तारण की आज की जेन ‘ज़ी’ (Gen Z) पीढ़ी यहां क्या करे? ऐसा लगता है कि उद्यमशीलता और शहरीकरण पंजाब के गांव को अछूता छोड़ आगे बढ़ गया है. यहां के अधिकतर युवा भारत के नये दौर के रोजगारों के लिए योग्यता नहीं हासिल कर पाए हैं.
वे छोटे-मोटे रोजगार के लिए केवल कनाडा की ओर देखते हैं. यही उनके लिए एक तरह से शहरीकरण में छलांग लगाने जैसा है. इन स्वाभिमानी लोगों की हताशा, उनका दबा हुआ आक्रोश, यह शिकायत कि उन्हें उपेक्षित कर दिया गया है—
यह सब एक तरफ से तो ड्रग्स संस्कृति को, तो दूसरी तरफ से कट्टरपंथ को आगे बढ़ा रहा है.
पवित्र ग्रंथों में की गईं भविष्यवाणियों के अलावा फिलहाल मोदी, आरएसएस, और उनके ‘एकरूपीकरण’ कार्यक्रम को लेकर शोरशराबा है. सभी आयुवर्गों के लोगों से आज आप एक सवाल सुन सकते हैं : हमसे यह मत कहिए कि हम खालिस्तान क्यों मांग रहे हैं, आप यह बताइए कि अगर एक ‘हिंदू राष्ट्र’ हो सकता है तो एक सिख राष्ट्र क्यों नहीं हो सकता?
संगरूर में थकाऊ चुनाव प्रचार के अंत में सिमरनजीत सिंह मान ने, जो अब 80 साल से ऊपर के हो चुके हैं, विस्तार से समझाते हुए कहा, “मणिपुर में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है, छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के नाम पर महिलाओं समेत कई आदिवासियों की हत्या कर दी गई है, मुसलमानों पर हमले हो रहे हैं. पहले, भारत विदेशी सरकारों को सिख एक्टिविस्टों के खिलाफ सूचनाएं देता था, लेकिन आज वे विदेश जाकर उन्हें गोली मार रहे हैं. ऐसे में सिख एक छोटे अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अपने लिए उपलब्ध विकल्पों पर गंभीरता से क्यों नहीं विचार करें?”
‘कैंपेन अमृतपाल’ से ‘कॉमरेड’ जगदीश कौर की ओर मुड़ना कई तरह से एक बुनियादी तब्दीली है. चार दशक पहले, भिखीविंद को हम उस खेमकरण के पास एक छोटे सीमावर्ती गांव के रूप में जानते थे जहां 1965 के युद्ध में टैंकों की ऐसी लड़ाई हुई थी जो किंवदंती बन गई. यह गांव उग्रवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में भी शामिल था. इस क्षेत्र में आतंकवादी गुटों ने सरकार की अवज्ञा नहीं की. वे 1990 में सरकार थे, जिस साल पंजाब में अलगावाद सबसे खूनी दौर में था, जब 5,070 आम नागरिक मारे गए थे (‘साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल’ का आंकड़ा).
यह गांव अब एक छोटा शहर बन गया है, जहां निजी अस्पताल, पिज्जा-बर्गर की एक-दो दुकानें (जिनमें एक का नाम ‘कनाडा बर्गर’ है), बड़े स्कूल खुल गए हैं. एक स्कूल की कक्षाओं की इतनी खिड़कियों में आपको एसी लगे नजर आएंगे कि आप उसे किसी मझोले आकार के शहर के हवाईअड्डे के पास का टू-स्टार होटल मान बैठेंगे.
एवरग्रीन सीनियर सेकेंडरी स्कूल एक साधारण-सा स्कूल है जिसके सह-संस्थापक कॉमरेड बलविंदर सिंह की हत्या कथित रूप से ‘खालिस्तान कमांडो फोर्स’ के निशानेबाज ने 16 अक्तूबर 2020 को कर दी थी. बाद में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने इस गुट पर धावा बोला और कथित आठ हत्यारों और साजिशकर्ताओं को दबोच लिया और अब उनके ऊपर मुकदमा चल रहा है. जगदीश कौर आज उस स्कूल को चलाने की जद्दोजहद में लगी हैं. जब सीबीएसई वाले स्कूल उपलब्ध हैं तब अपने बच्चों को किसी प्रादेशिक बोर्ड स्कूल में कोई नहीं भेजना चाहता. इसके अलावा, कौर के स्कूल में किसी कक्षा में एसी नहीं लगा है.
साल 1990 की बात करें तो तब 5,070 आम नागरिकों के अलावा पंजाब पुलिस ने अपने 452 लोग भी खोए. भारत में एक साल में इतने ज्यादा वर्दीधारी बलों के लोग कभी नहीं मारे गए थे. उस समय भारत में सबसे कमजोर सरकार सत्ता में थी, और वी.पी. सिंह जबकि हिचकिचा रहे थे, पुलिस ने कुछ नये काम किए. इन कामों में से एक का नतीजा यह निकला कि बलविंदर सिंह और उनकी पत्नी जगदीश कौर सरीखे अविश्वसनीय रूप से साहसी लोग सामने आए. माकपा के सदस्य इन दोनों ने अपने नाम की आगे कॉमरेड जोड़ रखा था. उस दौर की इस कहानी को कम ही लोग जानते हैं कि इन ‘कॉमरेडों’ ने जमीन पर कैसी लड़ाई लड़ी.
पुलिस ने उन्हें हथियार दिए और उन्हें प्रायः उनके अपने भाग्य के भरोसे छोड़ दिया. 200 से ज्यादा कॉमरेड लड़ते हुए मारे गए. उनके बारे में बाकी बातें फिलहाल अपने पास रखता हूं, जिन्हें अपनी सीरीज ‘फर्स्ट पर्सन/सेकंड ड्राफ्ट’ में प्रस्तुत करूंगा.
फिलहाल दिसंबर 1990 की कहानी की ओर लौटते हैं. तब हमने फोटोग्राफर प्रशांत पंजियार के साथ पंजाब की यात्रा के आधार पर ‘इंडिया टुडे’ के लिए आवरण कथा लिखी थी, जो अपने शीर्षक ‘रूल ऑफ द गन’ (बंदूक का राज) को सार्थक करती थी. अंग्रेजी और हिंदी ‘इंडिया टुडे’ के आवरण चित्र यहां प्रस्तुत हैं.
ट्रैक्टर पर बैठी हथियारबंद जोड़ी कॉमरेड बलविंदर और जगदीश की ही है. छोटा बच्चा उनका बेटा गगनदीप है. इस परिवार को आतंकवादियों ने लगभग रोज निशाना बनाया. इस परिवार ने 42 हमलों का मुक़ाबला किया, जिनमें दो हमले तो रॉकेट लॉन्चर से किए गए. बलविंदर और जगदीश को शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया.
उनकी कच्ची सड़क वाली गली की रखवाली एक और कॉमरेड मेजर सिंह करते थे, जो भी आतंकवादियों के निशाने पर थे. उन पर एक जानलेवा हमला एक दूधवाले के जरिए करवाया गया, जिसके दूध के बर्तन में बम रखा गया था. लेकिन बम समय से पहले ही फट गया और दूधवाला मारा गया था. हमने इस जोड़ी से मुलाक़ात की और खबर दी कि नन्हे बच्चे गगनदीप समेत यह पूरा परिवार किस तरह इस लड़ाई में जुटा था.
गगनदीप तो अपनी छोटी-छोटी नाजुक उंगलियों से कार्बाइन मेगज़ीन को भरने में भी निपुण हो गया था, जबकि गोलीबारी घंटों चलती थी. यह लड़ाई 1994 तक अच्छी तरह जीत ली गई. उसके बाद से पंजाब में शांति रही है. लेकिन ‘दुश्मन’ की याददाश्त लंबी होती है. इसलिए बलविंदर और उनकी पत्नी हमेशा निशाने पर रहे.
जगदीश कौर बीते कल और आज की बातें उस समभाव से करती हैं, जो दशकों के संघर्ष से ही पैदा होता है. वे बताती हैं कि उनके पति को धमकियां मिलती रहती थीं. आखिरी धमकी उनकी हत्या से दस दिन पहले मिली थी. उन्होंने पुलिस मुख्यालय को ई-मेल से शिकायत भेजी थी, जिसकी पावती भी मिली थी. लेकिन किसी को शायद यह संदेह नहीं था कि हत्यारे इतने करीब थे. कौर बताती हैं कि उनके परिवार की सुरक्षा के लिए अभी भी पुलिस का एक गनमैन तैनात है लेकिन उसे पुराने दौर का कार्बाइन दिया गया है और हमेशा यह डर बना रहता है कि अगर उसने गलती से उसे गिरा भी दिया तो उससे गोली छूट जाएगी और किसी को भी लग सकती है. उसे एके-47 दिए जाने का अनुरोध किया गया है लेकिन अभी तक इसकी मंजूरी नहीं मिली है.
कॉमरेड कौर हमें स्कूल में घुमाकर वह जगह दिखाती हैं जहां पर बलविंदर की हत्या की गई थी. वाहा की दीवार पर गोलियों के निशान मौजूद हैं. पुलिस के सीसीटीवी कैमरे हर गतिविधि कि कैद करते रहते हैं. अब 30 से ऊपर की उम्र के गगनदीप अपनी पत्नी के साथ हमारे साथ जुड़ जाते हैं. कौर के लिए, सुरक्षा के मामले में चूक के अलावा साथी शौर्य चक्र विजेता बलविंदर की हत्या के बाद सरकार से कोई अनुदान या समर्थन न मिलना वामपंथियों, खासकर हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद के दौर की माकपा में आई अफसोसजनक गिरावट है. वे उस क्षेत्र में रहती हैं जहां 1981 से 1994 के बीच भारत की एकता को मिली सबसे बड़ी चुनौती का मुक़ाबला किया गया था. उस क्षेत्र में उस खूनखराबे की वापसी की कोई संभावना नहीं है. उससे बची पुरानी पीढ़ी को आज भी ऐसे दुःस्वप्न आते हैं कि वह उस दौर की वापसी कभी नहीं चाहेगी. लेकिन आर्थिक गतिरोध, युवाओं का मोहभंग, ड्रग्स की लत, कनाडा वाले सपने के साकार होने की बेहद क्षीण संभावना, सोशल मीडिया पर अलगाववादी प्रचार (मुख्यतः कनाडा से किया जाने वाला), धर्म का चढ़ता नशा, और अमृतपाल जैसे नेताओं ने इस संकट को फिर से उभरने की जमीन तैयार की है.
ऊपर आपने जितने भी कारण पढ़े उन्होंने हमें इस सामाजिक-धार्मिक उथलपुथल को अपने इस कॉलम में तात्कालिक चुनावी राजनीति के मुक़ाबले ज्यादा तरजीह देने पर मजबूर किया. वैसे,यहां की राजनीति भी देश के प्रायः किसी भी हिस्से की राजनीति से ज्यादा दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण है. आखिर, यह पंजाब है! यह छोटा राज्य केवल इस लिहाज से है कि यह केवल 13 सांसद लोकसभा में भेजता है. यह राज्य इतना क्यों महत्वपूर्ण है, यह बताने पर हम आपका और ज्यादा समय नहीं लेंगे.
चुनाव कितना दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण है यह आप ‘दीवारों’ पर तभी पढ़ लेंगे जब आप अमृतसर के रियाल्टो चौक (एक पुराने सिनेमाघर के नाम पर मशहूर) पर एक मिनट के लिए ठहर जाएंगे. यहां ‘आप’ से लेकर काँग्रेस, अकाली दल, भाजपा, सबके होर्डिंग एक लाइन से लगे मिलेंगे. ये चारों दल इस सीट के लिए चुनाव लड़ रहे हैं. पास के खडूर साहिब में एक छोटा होर्डिंग अमृतपाल का भी है, जिसके चुनाव चिह्न माइक की तस्वीर भी लगी है.
इस तस्वीर को दो और होर्डिंग पूरी करते हैं. पंजाब की 10 सीटों पर ‘आप’, काँग्रेस, अकाली दल, भाजपा, के बीच चौतरफा मुक़ाबला है. बाकी तीन सीटों पर पांच कोणीय मुक़ाबला है, जिन पर उग्रपंथियों का एक पक्ष भी मैदान में है— खडूर साहिब में अमृतपाल, संगरूर में सिमरनजीत सिंह मान, और फरीदकोट में इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह का बेटा सरबजीत सिंह. संगरूर और फरीदकोट मालवा क्षेत्र में पड़ते हैं. चौकोने मुक़ाबले में, जिसमें मोदी का कोई नामोनिशान नहीं है, जो भी पार्टी डाले गए करीब 10 लाख वोटों में से करीब 2.5 लाख वोट हासिल करेगी, वह जीत सकती है. पंजाब उत्तर भारत का वह राज्य है जिसने 2014 और 2019 में मोदी लहर को पूरी तरह नकार दिया था, और इस साल भी ऐसा ही होने की उम्मीद है. अकाली-भाजपा टूट ने वोटों के विभाजन को और बढ़ा दिया है. इससे दोनों दलों को नुकसान हो सकता है लेकिन विडंबना यह है कि इससे किसी उम्मीदवार को यहां, तो किसी को वहां मदद मिल सकती है. केवल ढाई लाख वोट लेकर आप दूसरों से आगे निकला सकते हैं ऐसे में कोई लापरवाह और मूर्ख विश्लेषक ही इसे चुनाव कह सकता है.
होर्डिंगों की उसी कतार में एक और होर्डिंग ‘पुरोहित अंकुर यूसुफ नरूला मिनिस्ट्रीज’ का है, जो अपनी ‘छुटकारा सभा’ के साथ आपको रोगों, ड्रग्स और दूसरी सांसारिक व्याधियों से मुक्ति दिलाने के लिए आपकी आध्यात्मिक सहायता करने को तैयार हैं. ‘पुरोहित’ तो ईसाई पादरी के लिए एक सांकेतिक शब्द है. ‘दप्रिंट’ की चितलीन के. सेठी की इस शानदार रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण पंजाब में हिंदू और सिख नाम वाले पादरियों की भरमार हो गई है. उन पर व्यापक तौर पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे सिखों का धर्म परिवर्तन करके ईसाई बना रहे हैं. आज की सियासत के लिहाज से यह एक बड़ा मुद्दा है, जो कट्टरपंथ को बढ़ावा दे रहा है. यह सिखों में यह डर भी पैदा कर रहा है कि उनकी आबादी कम होती जा रही है और अमृतपाल इस पर रोक लागाने के वादे कर रहा है.
होर्डिंगों वाली उसी दीवार पर आपको 1984 में क्षत-विक्षत अकाल तख्त की विशाल तस्वीर भी नजर आएगी. राजनीतिक विभाजन, हिंदू-सिख (भाजपा-अकाली) विभाजन, धर्म परिवर्तन का डर, और ऑपरेशन ब्लू स्टार— ये सब मिलकर नये उग्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसके प्रतीक हैं चुनाव उम्मीदवार अमृतपाल सिंह. यह सब एक ही दीवार पर लिखी इबारतों के रूप में आप यहां अमृतसर के प्रमुख स्थल पर खड़ी एक दीवार पर पढ़ सकते हैं. चुनाव लड़ने वाले पंजाब को भ्रमित करने वाला राज्य कह कर शायद हमने गलती की.
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