भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता जब भी अपनी प्रतिरोध की शानदार परम्परा पर गर्व करेगी, उसे इलाहाबाद से प्रकाशित साप्ताहिक ‘स्वराज’ की बहुत याद आयेगी. इस पत्रकारिता के इतिहास में ‘स्वराज’ को छोड़कर शायद ही कोई दूसरा पत्र हो, जिसके एक-एक करके आठ सम्पादकों ने विदेशी सत्ता का कहर झेलते हुए देश निकाले समेत 125 वर्ष से ज्यादा की सजाएं भोगी हों.
1907 में ‘स्वराज’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो उसके सम्पादक थे रायजादा शांतिनारायण भटनागर. इसके अगले ही बरस उन्हें उसमें एक राष्ट्रीयतापरक कविता प्रकाशित करने को लेकर साढ़े तीन साल की कड़ी कैद की सजा सुनाकर जेल में डाल दिया गया. उन पर लगाया गया एक हजार रुपये का जुर्माना इस सजा के अतिरिक्त था, जिसे अदा न करने की स्थिति में छह महीने की अतिरिक्त कैद की ‘व्यवस्था’ थी. वे अपनी सजा भुगतने चले गये तो रामदास को उनके स्थान पर नया सम्पादक बनाया गया.
गौरतलब है कि ये वही रामदास थे, जो बाद में प्रकाशानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए. इन्होंने अपना सम्पादन कर्म आरंभ ही किया था कि कथित तौर पर जुर्माने की राशि की अदायगी न करने का बहाना बनाकर पत्र के प्रेस को ही नीलाम कर दिया गया. किसी तरह फिर से प्रेस की स्थापना कर ‘स्वराज’ के प्रकाशन की व्यवस्था की गयी तो उसके सम्पादन का दायित्व हाल ही में इंग्लैंड से वापस आये होतीलाल वर्मा ने संभाला.
लेकिन गोरी सत्ता ने उन्हें भी नहीं बख्शा क्योंकि वह पूरी तरह उस देशाभिमानी चेतना के खिलाफ थी, जिसके प्रसार के लिए ‘स्वराज’ किसी भी हद से गुजरने को तैयार रहता था. इसलिए कुछ ही दिनों बाद एक मामले में दो साल की सजा सुनाकर रामदास को भी बंदी जीवन के लिए मजबूर कर दिया गया. उनके उत्तराधिकारी बनकर बाबू हरिदास ने ‘स्वराज’ के सम्पादन की जिम्मेदारी संभाली तो उनकी पारी भी लम्बी नहीं होने दी गयी. ग्यारह अंक ही निकल पाये थे कि एक सर्वथा निराधार मामले में फसाकर उन्हें भी इक्कीस साल के देशनिकाले की सजा सुनाकर अंडमान निकोबार भेज दिया गया, जहां जुल्म व सितम की कोई सीमा नहीं रहने दी गयी.
गोरे सत्ताधीशों को मुगालता था कि इस तरह एक के बाद एक सम्पादकों को देश से निर्वासित करने और जेल भेजे जाने का सिलसिला चलेगा तो ‘स्वराज’ को सम्पादक मिलने ही मुश्किल हो जायेंगे और उसका ‘आग उगलना’ खुद ही बंद हो जायेगा. लेकिन वे गलत सिद्ध हुए.
‘भारतमाता’ के सम्पादक मुंशी रामसेवक ने लाहौर में बाबू हरिदास के देश निकाले की खबर पढ़ी तो उनकी कर्तव्यनिष्ठा ने ऐसा जोर मारा कि उन्हें वहां से इलाहाबाद के लिए जो पहली ट्रेन उपलब्ध हुई, उसी से ‘स्वराज’ के सम्पादक का पद संभालने चल दिये. बाद में पता चला कि गोरे सत्ताधीशों ने उसी ट्रेन से उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अधिकारी भी भेज दिये थे.
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जैसे ही वे अपने सम्पादकत्व वाली ‘स्वराज’ की नयी उद्घोषणा प्रस्तुत करने इलाहाबाद के कलक्टर के कार्यालय पहुंचे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें पुलिस के हवाले करने के बाद अंग्रेज कलक्टर ने ‘स्वराज’ के पैरोकारों को चिढ़ाते हुए व्यंग्यपूर्वक कहा, ‘है कोई और, जो स्वराज के मुगल सल्तनत की तरह ढहते सिंहासन पर बैठना चाहे?’ उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसने देखा कि देहरादून से आये नंदगोपाल चोपड़ा ने तत्काल आगे बढ़कर उसकी चुनौती स्वीकार कर ली और खुद के सम्पादकीय दायित्व संभालने से जुड़ी नयी उद्घोषणा प्रस्तुत कर दी.
पता नहीं, उनके साहस से कलक्टर सकते में आ गया या उसका बलिदानी सम्पादकों की इस लम्बी श्रृंखला को प्रणाम करने का मन हो आया, उसने चोपड़ा के लिए कोई सजा तजवीज करने में इतना समय लगाया कि उन्होंने ‘स्वराज’ के लगातार बारह अंक निकालकर बाबू हरिदास का लगातार ग्यारह अंकों के सम्पादन का रिकार्ड तोड़ दिया. लेकिन यह रिकार्ड तोड़ना उन पर इतना भारी पड़ा कि आगे चलकर सत्ताधीशों ने उन्हें तीस साल का देश निकाला भोगने को अभिशप्त कर दिया.
लेकिन ‘स्वराज’ के सम्पादक की कुर्सी इसके बावजूद खाली नहीं हुई. थोड़े ही दिनों पहले दक्षिण एशिया से लौटे लड्ढाराम कपूर ने अपनी पारिवारिक सुख-सुविधाओं को दांव पर लगाकर इस कुर्सी पर बैठने का फैसला किया तो, बताते हैं कि, अपनी पत्नी से कह आये थे कि, ‘मैं तुम्हें तहेदिल से प्यार करता हूं, लेकिन जितना प्यार मैं अपने देश को करता हूं, उससे तुम्हारे प्यार का कोई मुकाबला नहीं.’ बाद में उन्हें तीस साल की कड़ी कैद भुगतकर देश को इस तरह प्यार करने की कीमत चुकानी पड़ी. कहा जाता है कि जेल जीवन की उनकी राष्ट्रवादी हरकतों से चिढ़कर सत्ताधीशों ने उनकी सजा छह महीने और बढ़ा दी थी.
लड्ढाराम कपूर के बाद पंडित अमीरचंद बम्बवाल ‘स्वराज’ के आठवें सम्पादक बने तो अंग्रेज कलक्टर ने उनसे दो हजार रुपये की नकद जमानत मांगी और नयी उद्घोषणा प्रस्तुत करने को कहा. उसे उम्मीद नहीं थी कि सत्ता के जुल्म व सितम के साथ लगातार खराब आर्थिक स्थिति का सामना करता आ रहा ‘स्वराज’ नकद जमानत की इतनी बड़ी राशि तत्काल जमा कर सकेगा. लेकिन ‘स्वराज’ ने हार नहीं मानी और शुभचिंतकों के सहयोग से ऐसा संभव करके नयी सज-धज के साथ पाठकों तक पहुंचने का मंसूबा प्रदर्शित कर डाला.
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इतने पापड़ बेलने के बाद उसके चार ही अंक प्रकाशित हो पाये थे कि खार खाये बैठे कलक्टर ने पहले जमा की गयी उसकी नकद जमानत जब्त कर ली. सम्पादक बम्बवाल जब तक फिर से नकद जमानत का इंतजाम करते, उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया. यह कहर ‘स्वराज’ के लिए मर्मान्तक सिद्ध हुआ और उसका प्रकाशन हमेशा के लिए बंद हो गया.
प्रसंगवश, एक बार उसमें विज्ञापन छपा था- ‘स्वराज’ को एक ऐसा सम्पादक चाहिए, जिसे रोज दो सूखी रोटियां, एक गिलास सादा पानी और हर सम्पादकीय लेख पर बंदूक की गोली अथवा बीस वर्ष की सजा मिलेगी.’
उन दिनों के बलिदानी पत्रकारों का जज्बा देखिये कि इसके बावजूद ‘स्वराज’ के लिए सम्पादकों की कमी नहीं पड़ी और वह बंद भी हुआ तो सम्पादकों की कमी के कारण नहीं, जब्त कर ली गयी दो हजार रुपये की नकद जमानत फिर से न जुट पाने के कारण. दो हजार रुपये तब आज जितने कम नहीं होते थे और उन्हें जुटाना टेढ़ी खीर हुआ करता था.
इस सिलसिले में एक और बात काबिलेगौर है, जिससे पता चलता है कि स्वतंत्रता संघर्ष में किस कदर सब कुछ साझा था और किसी तरह के दुराव, भेदभाव या साम्प्रदायिकता के लिए जगह नहीं थी. उर्दू में छपने वाले ‘स्वराज’ के आठों सम्पादकों में से कोई भी मुसलमान नहीं था और न ही उसके सोच में हिन्दू-मुस्लिम जैसा कोई बंटवारा था.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
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