समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबकों यानी ईडब्लूएस के लिए आरक्षण के सवाल पर इस सप्ताह अपना फैसला सुनाकर सुप्रीम कोर्ट ने न केवल आरक्षण के सिद्धांत की फिर से पुष्टि की बल्कि यह भी कहा कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी पर निश्चित कर देना जरूरी नहीं है. आप शिक्षण संस्थानों में बहुसंख्या में नौकरियां और सीटें आरक्षित कर सकते हैं. आप जाति की कसौटी से आगे बढ़कर आर्थिक आधार पर नौकरियों और सीटों में आरक्षण दे सकते हैं.
ओह! मैं तो सोच रहा था कि हम मंडल युग से बहुत आगे बढ़ चुके हैं. आरक्षण को लेकर 1990 में हुए आंदोलन की याद उसे ही होगी जो आज मध्यवय (आधी उम्र) का हो गया होगा. इसलिए आज के युवाओं की खातिर बता दें कि तब क्या हुआ था.
1990 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने घोषणा की कि उनकी सरकार भूले-बिसरे मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करेगी. यह उनके मूल चुनावी वादों में शामिल नहीं था, इसलिए उनकी इस घोषणा ने पूरे देश को आश्चर्य में डाल दिया.
मूलतः इन सिफ़ारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों और जनजातियों से इतर वर्गों को भी आरक्षण देने की बात की गई थी. पीछे मुड़कर देखें तो साफ लगता है कि इन सिफ़ारिशों का बहुत दूरगामी असर नहीं होने वाला था और इनके कारण भारतीय जनजीवन के अधिकांश हिस्से में खास फर्क नहीं पड़ने वाला था. कुछ राज्य सरकारों ने तो इस तरह का आरक्षण लागू कर भी दिया था.
लेकिन वी.पी. सिंह ने इसे देश के सामने इस तरह पेश किया मानो यह कोई युगांतरकारी कदम था जो पूरे राष्ट्र को बदल डालेगा. लेकिन इसके खिलाफ देशभर के कॉलेजों में विरोध शुरू हो गया. युवाओं का मानना था कि आरक्षण योग्यता के सिद्धांत के खिलाफ है. छात्रों ने आत्मदाह भी शुरू कर दिया. लेकिन वी.पी. सिंह ने कदम वापस लेने से मना कर दिया.
1991 में जब लोकसभा चुनाव हुआ तो वी.पी. सिंह और उनके जनता दल का सफाया हो गया. लेकिन जिन दलों का जनाधार उन लोगों में था, जिन्हें मंडल कमीशन से लाभ होने वाला था उनका चुनावी प्रदर्शन अच्छा रहा. पूर्व प्रधानमंत्री ने दावा किया कि वे भले हार गए हों लेकिन उनके एजेंडे की जीत हुई है.
नयी राजनीति की शुरुआत
सामान्य बुद्धि यह कहती है कि 1991 के चुनाव ने हिंदी पट्टी की, जहां जाति आधारित राजनीति का बोलबाला है, राजनीति में एक नया चलन शुरू किया. वी.पी. सिंह के कदम ने भाजपा को सकते में डाल दिया, और जाति के असर का मुक़ाबला करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के लिए रथयात्रा शुरू कर दी और हिंदी क्षेत्र पर वर्चस्व जमाने की इस लड़ाई में जाति का मुक़ाबला करने के लिए धर्म को हथियार बनाया.
यह सब महत्वपूर्ण था, क्योंकि 1971 के बाद से चुनावों में जाति की भूमिका कम से कम होती जा रही थी. 1971 में इंदिरा गांधी ने जाति और धर्म को काटते हुए जोरदार जीत हासिल की. 1977 में जब वे हारीं तब मतदान जाति आधारित नहीं हुआ था. और 1984 में, राजीव गांधी की भारी जीत भी सभी भारतीयों के समर्थन से हुई थी.
1989 में, जब कांग्रेस कमजोर पड़ी और भाजपा ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया, और जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता उभरे तो यह दृश्य बदलने लगा. लेकिन 1991 में आकर ही हमें एहसास हुआ कि भारतीय राजनीति पहचान पर केंद्रित होती जा रही है.
यह प्रवृत्ति कायम है. उत्तर प्रदेश में टक्कर भाजपा और जाति आधारित पार्टियों के बीच है. यही हाल बिहार में भी है. और भारतीय राजनीति अब विचारधारा या कामकाज पर नाम की ही आधारित है. यह वास्तव में पहचान पर ही आधारित हो गई है. शहरी, और नाम पर पहचान की राजनीति करने वाली आम आदमी पार्टी जैसी पार्टी भी जब गुजरात के चुनाव मैदान में उतरती है तो उसके नेता को ‘हिंदू कार्ड’ खेलना पड़ता है.
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1990 से 2022 तक
सुप्रीम कोर्ट का सोमवार का फैसला और इस पर आई प्रतिक्रयाओं ने यह याद दिला दिया कि जनता का मिज़ाज तीन दशकों में किस कदर बदल गया है.
उस दौर में, कई लोग आरक्षण का दायरा बढ़ाने का विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि दलितों को जो आरक्षण दिया गया है उसकी भी समयसीमा तय की गई थी. अगर नेता लोग आरक्षण के दयरे में दूसरी जतियों को भी लाते रहेंगे तो यह समता और योग्यता के सिद्धांत के खिलाफ होगा. इसका जवाबी तर्क यह होता था कि यह ऊंची जातियों की सोच है, इसलिए यह भेदभावपूर्ण है.
इस भावना की गूंज मुझे निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित और जस्टिस एस. रवीन्द्र भट्ट की असहमति में सुनाई दी. उन्होंने कहा कि आरक्षण का विस्तार ‘अवसर की समानता के विचार के विपरीत’ है, और यह ‘समानता की संहिता के मूल आधार पर चोट करता है’.
सुप्रीम कोर्ट जाति आधारित आरक्षण पर विचार नहीं कर रहा था. मसला आरक्षण का लाभ आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को देने का था. इसमें दो अहम सवालों पर विचार करना था. क्या उपलब्ध अवसरों में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ऊपर जा सकती है? बहुमत से किए गए फैसले के मुताबिक इस सवाल का जवाब है— हां ! और क्या यह सही होगा कि जिन्हें पहले से दूसरे आधारों पर आरक्षण मिला हो उन्हें इस आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाएगा? जजों के बहुमत ने इस पर भी हां में जवाब दिया.
मैं फैसले पर कोई आपत्ति नहीं करूंगा, जो राजनीतिक आम सहमति को भी प्रतिबिंबित करता है. लेकिन इससे एक अहम सवाल खड़ा होता है—आज़ादी के 75 साल बाद क्या हम यह कह रहे हैं कि हम अवसरों की समानता वाला समाज बनाने में पूरी तरह विफल रहे हैं कि हर साल हमें ऐसे कानून बनाने पड़ते हैं जो यह दावा करते हैं कि आगे बढ़ने के लिए सिर्फ योग्यता ही एकमात्र कसौटी नहीं हो सकती, कि हमें अभी भी विशेष कोटा देने की जरूरत पड़ती है? कि हमारे संविधान निर्माताओं के इस विचार को खारिज कर दिया गया है कि आरक्षण को समयबद्ध होना चाहिए? ऐसा लगता है कि हम विफल हुए हैं.
रेवड़ी की राजनीति
सुप्रीम कोर्ट से जिस प्रश्न पर विचार करने के लिए नहीं कहा गया था वह अधिक निर्णायक प्रश्न है— क्या आरक्षण का बार-बार विस्तार सबके समान अवसर उपलब्ध कराने की जरूरत पर आधारित है? या आरक्षण नेताओं के लिए अपने लिए अपना आवोट बैंक पक्का करने का एक और तरीका है?
हर चुनाव में आप नेताओं को यह वादा करते पाएंगे कि वे जीते तो आरक्षण का और विस्तार करेंगे. हर पार्टी किसी-न-किसी स्तर पर यह सब करती है. जिस तरह नेता लोग रेवड़ियां (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में) बांटते हैं उसी तरह वोट जीतने के लिए आरक्षण के वादे करते हैं.
काबिले गौर बात यह है कि मंडल सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा से सबसे ज्यादा परेशान भाजपा भी अब जाति का खेल खेल रही है. वह अक्सर यह ध्यान दिलाती रहती है की प्रधानमंत्री मोदी ‘पिछड़ी’ जाति के हैं, और यह पार्टी जातीय गठजोड़ करके चुनाव जीतती है. इस रणनीति में जनकल्याणवाद को जोड़ लीजिए (ईडब्लूएस को आरक्षण इसी श्रेणी में है), तो चुनाव जीतने का जोरदार फॉर्मूला तैयार हो जाता है—धर्म, जाति, और जनकल्याणवाद.
मैं यह नहीं कह रहा कि इसमें से कोई भी बुरी बात है; बात यह है कि 21वीं सदी में भारत की राजनीति अलग नियम-कायदे से चल रही है. चुनाव कामकाज या विचारधारा की आधार पर नहीं जीते या हारे जाते. और जातिविहीन भारत के निर्माण की कोशिश त्याग दी गई है. आरक्षण के कारण लोगों को यह ख्याल रखना पड़ रहा है कि वे किस जाति के हैं, और यह कि यह प्रथा अभी कई पीढ़ियों तक जारी रहेगी.
हालांकि हमने उस समय यह नहीं महसूस किया था कि 1990-91 में हमारी राजनीति ने नया मोड़ लिया था, लेकिन उसी दौर में पहचान की राजनीति ने अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी थी. मंडल के बाद जाति और आरक्षण प्रबल मुद्दे बन गए. और उसी दौरान राम रथयात्रा ने नये, हिंदुत्व-केंद्रित भारत की नींव डाल दी थी. जिन लोगों ने आत्मदाह किए उनका क्या? उनके बारे में हम क्या कह सकते हैं? उस दौरान केवल मनुष्य नहीं बल्कि आदर्श और राजनीति की एक पूरी शैली आग की लपटों की भेंट चढ़ गई.
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(अनुवाद: अशोक कुमार)
(संपादन: इन्द्रजीत)
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)