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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतअंबानी-अडानी पर हो रहे हमलों से पता चलता है कि क्यों अरबपतियों से लोग नफरत करना पसंद करते हैं

अंबानी-अडानी पर हो रहे हमलों से पता चलता है कि क्यों अरबपतियों से लोग नफरत करना पसंद करते हैं

सरकारी कार को निजी काम में इस्तेमाल करने वाला सरकारी कर्मचारी भी उतना ही भ्रष्ट काम कर रहा है जितना कृषि उपज को कम तोलने वाला अढ़तिया.

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हर कोई अरबपति से नफरत करना पसंद करता है. ये आधुनिक जीवन की एक सच्चाई है. हालांकि भारत में, नफरत में एक प्रवृत्ति होती है कि वो बहुत तेज़ी से सीधी कार्रवाई में तब्दील हो जाती है. हमने इसका कुछ हालिया नमूना कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के बारे में सोशल मीडिया चर्चाओं में देखा है- उन्होंने अडानी और अंबानी को बदनाम करना शुरू कर दिया.

पंजाब के आंदोलनकारी किसान एक कदम और आगे बढ़ गए, जब उन्होंने इन दो विशाल समूहों से जुड़े प्रतिष्ठानों और सेवाओं के बहिष्कार का अह्वान कर दिया. कुछ जगहों पर तो उन्होंने एक कंपनी विशेष के सेलफोन टावर्स को भी निष्क्रिय कर दिया. कुछ दूसरों का कहना था कि ऐसी कंपनियों की दौलत, भ्रष्टाचार, बेईमानी के सौदों और कुछ अपरिभाषित हेरा-फेरी का नतीजा होती है.

बस कुछ साल पहले तक टाटा और बाटा पसंदीदा निशाना हुआ करते थे, शायद इसलिए कि इनके नाम इतने मिलते जुलते थे. इस तरह के तिरस्कार को समझा जा सकता है क्योंकि आमतौर पर ये माना जाता है कि पैसे वाले लोगों ने अपनी दौलत कुछ धोखाधड़ी करके कमाई है. इस बात की बिल्कुल सराहना नहीं होती कि ज़्यादातर लोग जो दौलतमंद हो जाते हैं वो इसलिए होते हैं कि ‘कामयाबी’ हासिल करने के लिए उन्होंने एकाग्रता व लगन के साथ कड़ी मेहनत की होती है.

मुझे इस और इशारा करने दीजिए कि आज पंजाब के किसानों में मौजूद रोष और किसी भी बदलाव के प्रति उनके अविश्वास के बीच क्या संबंध है.


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भरोसे का अभाव

किसानों में ज़्यादातर गुस्सा इस बात से पैदा हो रहा है कि अगर निजी कंपनियों को मंडियां स्थापित करने की अनुमति मिल गई तो वो किसानों के साथ धाखोधड़ी करेंगी जैसा कि पुरानी फिल्मों में दुष्ट महाजन और ज़मींदार होते थे.

पंजाब में भूमि अलगाव अधिनियम, 1991 के पारित होने के बाद भी जिसने ज़मीन के मालिकाना हक को कृषि जनजातियों तक सीमित कर दिया, उनकी ये शंकाएं कम नहीं हुईं. एक धारणा ये भी है जिसे आज़ादी के समय से पाला गया है कि कमज़ोर और अयोग्य शासन इस बात को सुनिश्चित कर देता है कि नियम-कानून ताकतवर लोगों के लिए होते हैं. लेकिन आधुनिक समाज में औपचारिक संगठन या इकाइयां अपनी इच्छा से धोखाधड़ी या शोषण नहीं कर सकतीं.

अविश्वास की इस संस्कृति को समझने की शुरूआत करनी चाहिए, मुफ्तखोर भारतीय से. भारत एक ऐसा समाज है, जहां बिल्कुल सामान्य और नियमित लेन-देन में भी सच्चे व्यवहार से ज़्यादा मुफ्तखोरी पसंद की जाती है. बस ज़रा स्थानीय सब्ज़ी वाले के पास खड़े हो जाइए और देखिए कि हम में से कितने लोग मुफ्त हरा धनिया दिए जाने पर ज़ोर देते हैं- एक ऐसा अहसास जिसमें इस बात पर ज़ोर नहीं होता कि सेल पर रखी सब्ज़ियां सही से तोली जाएं और वज़न बढ़ाने के लिए, उन पर लगातार पानी न छिड़का जाए. सच्चाई यही है कि ज़िंदगी में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता. मुफ्त धनिया लेकर खुश हुए बहुत कम लोग, इस बात को समझ पाते हैं कि वो धनिया उन्हें पानी छिड़की हुई सब्ज़ियां ख़रीदने के एवज़ में मिल रहा है.

कारोबारी सौदे जो कामयाब होते हैं और लंबे चलते हैं, वास्तविक और उचित मूल्य तैयार करने पर टिके होते हैं. लेकिन फिर भी भारत में ये विचार बहुत व्यापक रूप से प्रचलित है कि व्यवसायी (और रातनीतिज्ञ भी) सबसे बड़ा ‘फिक्सर’ होता है. हम बरसों तक व्यवस्थित ढंग से की गई कड़ी मेहनत और उससे पैदा हुए विश्वास की पूरी तरह अनदेखी कर देते हैं.


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लकीर के फकीर

जिन चीज़ों को वास्तविक समझा जाता है, उनके अक्सर वास्तविक नतीजे होते हैं. षड्यंत्रकारी व्यवसायी, भ्रष्ट नौकरशाह, अनाड़ी पुलिस वाला, हमारी सार्वजनिक बातचीत में एक स्थाई छवि होते हैं. इस तरह की रूढ़िवादी सोच अविश्वास का एक व्यापक वातावरण पैदा करती है. ये अविश्वास अनुपयुक्त कायदे कानून और नियम बनाने से और बढ़ जाता है- वो सामाजिक ढांचा जो आधुनिक समाज को एकजुट रखता है.

दुर्भाग्यवश, भारत में एक ऐसा माहौल बन गया है, जहां कामकाज का अनौपचारिक तरीका, समाज और शासन के ढांचे पर हावी हो गया है. और इससे जो छोटा-छोटा भ्रष्टाचार अक्सर पैदा होता है, उसे न केवल सहन किया जाता है बल्कि सराहा भी जाता है. बेची गई वस्तुओं की औपचारिक रसीद न देकर टैक्स से बचना, वैसा ही भ्रष्ट काम है जैसा किसी सरकारी कर्मचारी का निजी काम के लिए सरकारी गाड़ी इस्तेमाल करना या किसी आढ़तिए का कृषि उपज को कम तोलना. फिर भी, ये व्यवहार उन लोगों में भी खूब प्रचलित है जो भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करते हैं. दिक्कत ये है कि जब ऐसा व्यवहार सामान्य बन जाता है तो अविश्वास भी सामान्य हो जाता है, चूंकि हर कोई अपेक्षा करता है कि हर कोई उससे धोखा करेगा. ऐसे में जो लोग उचित और भरोसेमंद तरीके अपनाकर कामयाब हो जाते हैं उन्हें फिर बहुत शक भरी निगाहों से देखा जाता है.

भरोसे और सच्चाई पर बेशक कोई समझौता नहीं हो सकता. हम जानते हैं कि जो औपचारिक कारोबार, सामान्य रूप से बचे रहने की उम्मीद रखते हैं, वो आमतौर से नियमों का पालन करते हैं. बेशक उनमें से बहुत से कभी कभार, मुनाफे की खातिर रचनात्मक बहीखाते तैयार कर लेते हैं. लेकिन अगर वो इसे बड़े पैमाने पर और निरंतर करेंगे तो वो बैठ जाएंगे.

एनरॉन कॉर्पोरेशन और सत्यम इनफोटेक, ऐसी बहुत सी मिसालों में से कुछ गिनी चुनी हैं जिनकी पूरी तरह जांच की गई, ये संकेत देने के लिए कि धोखाधड़ी पर खड़े किए गए कारोबार ज़्यादा समय नहीं चलते. जो कारोबार लंबे समय तक कामयाब रहते हैं, वो सिर्फ इसलिए रहते हैं कि उन्होंने समाज के लिए कुछ वैल्यू पैदा की, भ्रष्ट तरीकों की वजह से नहीं.

सामाजिक अविश्वास और रूढ़िवादी व्यवहार आर्थिक विकास को गंभीर रूप से पीछे खींच सकते हैं. एकमात्र तरीका यही है कि अच्छे नियम बनाएं और उनका पालन करें.

(मीता राजीवलोचन एक आईएएस अधिकारी और मेकिंग इंडिया ग्रेट अगेन: लर्निंग फ्रॉम अवर हिस्ट्री की लेखिका हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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12 टिप्पणी

  1. जब समस्याएं बृहत स्तर पर हो तो बुद्धिजीवी इधर उधर के बिंदुओं को जोड़कर अपने सिद्धान्त प्रतिपादित करते है और उन्हें आशा है कि वो इस प्रकार भारत को पुनः महान बनायेगे

  2. इसका मतलब आप भारतीय नहीं हो और आप मुक्त खोरी में कुछ नहीं लेते हो वह किसान ही है जो मुफ्त में धनिया दे सकता है मुफ्त में गन्ने खिला सकता है और मुफ्त में आपको पानी भी पिला देता है रही बात उसके कर्जे की देने की तो तेरी औकात नहीं है किंतु उसका खाया हुआ भी चुका दे जितने परसेंट में सरकारी कर्मचारी का डीए बढ़ता है उतने परसेंट में अगर किसानों का पैदावारी का बढ़ा दिया जाए तो तुझे खाने के लाले पड़ जाएंगे

  3. सब्जी वाला तो चाहे धनिया ले या ना ले वो तो उतने ही पैसे लेगा जितने उसने बताए हैं तो फिर धनिया क्यों नहीं लिया जाए ये बड़े कारोबारी बड़े चोर होते है में लोकल मार्केट से बाजरा 24 kg में लाता हूं ये मॉल में 45 kg पर बेचते वो भी अहसान करके की हम आपको एमआरपी पर डिस्काउंट दे रहे है

  4. Pura ka pura apne aap ko modiayapa se bech diye ho ….ye to bakchodi pele ho jo tippani ki hai kisanon k upar kabhi ek hal chalakar dekho th samajh aa jayega or rahi baat Ambani Adani ki to Pakistan me bijli w supply kr rha hai Adani iske bare me kuchh pratikirya dene ka kast karogi ya sirf aam admi knliye hindustan Pakistan hai

  5. घटिया न्यूज बनाने वालो,,,तुम्हारा भी अंत समय जल्दी आएगा,,तुमको कौन बोला बे,, कि पब्लिक बड़े व्यापारियों जैसे – अंबानी,,अदानी या टाटा बिरला से नफ़रत करता है,, आबे नफरत करता है,,तुम जैसे चापलूस चमचों से,,

  6. बिस्वास, ईमानदारी, कर्म निष्ठा , भरोसा, सच्चाई हमारे समाज में बची नहीं है हर कोई फ्रीफंड का लेन-देन से ज्यादा खुश होता है और अगर कोई है तो उसका कोई भी कार्य होना असंभव हो जाता है। हर जगह यही भावना बनी है कार्य होते नहीं है। चाहे राजनीति, मीडिया, सरकारी तंत्र सभी जगह बिस्वास बचा ही नहीं है आज मानव समाज में बिस्वास जगाना लगभग असंभव है।

  7. Paissa to brastachaar se hi kmaya hai inhone bhai dash ka greeb ka paisa loot kar bna ameer kya khaak ameer hoga or vo dash ka greeb or pe or greeb huaa chle jaa rha hai jisme tum bhi hoo

  8. because woh log un jaisa banne ki aukat nahi h
    kamchor or impassionate loge hi hote h jo yeh sab karte h
    kyunki unko pata h ki woh un jaisa nahi ban sakte unhone kabhi unki mehnat nahi dekhi
    ambani is trusted
    trust is the most expensive thing that cheap peoples cant afford it

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