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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमत‘मोदी के जादू की मियाद पूरी हो गई’ यह मानने वाले भी कहते हैं कि 'आयेगा तो मोदी ही'

‘मोदी के जादू की मियाद पूरी हो गई’ यह मानने वाले भी कहते हैं कि ‘आयेगा तो मोदी ही’

मोदी की मौजूदगी बाकी तमाम मुद्दों को एक किनारे सरका कर लोगों के दिमाग पर छा जाने के मामले में अब नाकाफी है. साधारण राजनीति वापिस आ रही है और लंबे वक्त से दबे चले आ रहे मुद्दे अब सिर उठा रहे हैं.

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इस असाधारण समय में साधारण ढर्रे की राजनीति की तरफ वापसी कितनी दमदार है? पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी पंजाब, उत्तरी हरियाणा और पूर्वी राजस्थान में पांच दिन और 1,500 कि.मी. के सफर के बाद ये सवाल मैंने खुद ही से पूछा. यात्रा की शुरूआत के वक्त हम पांच जन (लकदक कार वाले ‘लिबरल’ नहीं बल्कि बुनियादी बदलाव के हमराह बंजारे) हमारे मन में सीधा सा सवाल यह था कि: क्या अयोध्या का मंदिर और ‘400 पार’ की लहर हिन्दी पट्टी में वैसी ही है जैसी कि पुलवामा-बालाकोट की लहर 2019 में और ‘अच्छे दिन’ की 2014 में थी? क्या देश के उत्तरी इलाके में विपक्ष का एक बार फिर से सफाया होने जा रहा है ?

घर-बाजार और सड़कों-चौबारों पर लगभग चार सौ की तादाद में आम मतदाताओं से बातचीत करने के बाद इस सवाल का सीधा और बड़ा जाहिर सा जवाब हमें मिलाः नहीं. हमने देखा कि लोग सामान्य ढर्रे की राजनीति की तरफ मुड़ रहे हैः उनकी बातों में रोजी-रोजगार का सवाल, स्थानीय स्तर की बद-इंतजामियों के प्रश्न, सत्ताधारी दल के प्रति आलोचना का भाव, जातिगत और संप्रदायगत समीकरणों की चिन्ताएं, राजनीतिक गुटबाजी और ऐसी ही रोजमर्रा की कई बातों का स्वर प्रमुख है जिन्हें प्रधानमंत्री न तो दबा सकते हैं और न ही जिस पर उनका कोई जोर ही चल सकता है. और, यह सत्ताधारी बाजेपी के लिए बुरी खबर है. अगर जनता-जनार्दन की यही मनोदशा चुनावी नतीजे में तब्दील होती है तो फिर मोदी की बीजेपी के लिए उत्तर भारत में सीटों को थोक भाव से समेट ले जाना बहुत मुश्किल साबित होने जा रहा है.

लेकिन, हम किसी साधारण समय में तो रह नहीं रहे. और, यह चुनाव भी कोई सामान्य ढर्रे का चुनाव नहीं है. सो, ये सवाल पूछना बनता है कि क्या लोगों में कायम यह बेचैनी जिसने भले ही गुस्से का रूप ना धरा हो, क्या एक ठोस जनमत के रूप में सामने आ पायेगी? क्या यह जनमत वोटों के गणित में उलट-फेर कर सकेगा? और एक सवाल यह भी — क्योंकि इस बार ये सवाल हमें पूछना ही पड़ेगा— क्या चुनाव के नतीजों में सचमुच लोगों के वोटों की झलक होगी? इन सवालों के जवाब के तौर पर हमारे मन में उससे कहीं ज्यादा सवाल हैं जिससे हमने अपने यात्रा की शुरूआत की थी.

धुंधला पड़ रहा है मोदी का करिश्मा

“हर चीज की एक मियाद होती है-” यह बात कही पूर्वी राजस्थान के झुंझनू में सादे वेश में तैनात तीस पार की उम्र में पहुंच रहे एक पुलिसकर्मी ने. उसके शब्द थेः “कोरोना की भी मियाद थी, फिर अपने आप खत्म हो गया. इसी तरह मोदी के जादू की भी मियाद पूरी हो गई है.”

यात्रा के दौरान हम जहां कहीं भी गये और जो कुछ भी महसूस किया वह सब पुलिसकर्मी की इस एक बात से जाहिर हो जाता है. मोदी लोगों की नजरों से उतरे नहीं और ना ही गायब हुए हैं. बेशक जनमत सर्वेक्षण मोदी को अपने प्रतिद्वन्द्वियों से मीलों आगे बतायेंगे. हमारी भी अपनी यात्रा के दौरान बहुत से मोदी-भक्तों से भेंट हुई. लेकिन, कुल मिलाकर देखें तो मोदी की मौजूदगी बाकी तमाम मुद्दों को एक किनारे सरका कर लोगों के दिमाग पर छा जाने के मामले में अब नाकाफी है. उनका करिश्मा अब धुंधला पड़ रहा है, लंबे वक्त से दबे चले आ रहे बाकी मुद्दे अब सिर उठा रहे हैं.

सत्ताधारी दल की बोलती बंद कर देने वाले मुद्दों की कमी नहीं है. लोगों की सबसे ज्यादा दुखती रग का नाम है बेरोजगारी. बेरोजगारी की बात छेड़ो और लोगों का दर्द जैसे बाहर आने को बेचैन हो उठता है. बीजेपी के वे धुर-भक्त जो हर जगह अपनी पार्टी का प्रवचन किसी तोतारटंत की तरह सुनाते रहते हैं, उनसे भी बेरोजगारी के सवाल पर कुछ कहते नहीं बनता. आप किसी भोले-भाले, सहज विश्वासी श्रोता को इस झूठी कहानी पर यकीन दिला सकते हैं कि `चीन को हमने उसकी औकात बता दी है` लेकिन आप पार्टी (बीजेपी) के कट्टर से कट्टर समर्थक के आंखों पर झांसापट्टी का इतना मोटा चश्मा नहीं चढ़ा सकते कि वह अपने परिवार के सदस्यों की बेरोजगारी को ना देख सके. अग्निवीर योजना नोटबंदी जैसी ही साबित हो चुकी है— बीजेपी के पक्ष में जनमत तैयार करने वाले वचन-वीर अब इस योजना की तरफदारी करने की कोशिश तक नहीं करते.

महंगाई का मुद्दा भी लोगों के लिए कुछ कम दुखदायी नहीं. बेशक, जनता-जनार्दन का ज्यादातर जरूरतमंद तबका मोदी को नियमित और निशुल्क राशन मुहैया कराने का श्रेय देता है (किसी को यह याद तक नहीं कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम यूपीए सरकार लेकर आयी थी) लेकिन ऐसे लोगों के दुखों को दूर करने के लिए इतना भर काफी नहीं. लोगों की जुबान से अक्सर ये सुनने को मिल जायेगा कि “गुजारा नहीं चलता”. इसके अतिरिक्त, लगभग हर कोई इस बात से सहमत मिला कि किसानों के कष्ट दूर करने के लिए सरकार ने कुछ भी नहीं किया. लोग कहते मिलते हैं कि सालाना 6,000 रूपये की रकम ऊंट के मुंह में जीरा के बराबर है—उससे तो खाद और डीजल के बढ़े हुए दाम की भरपायी तक नहीं हो पाती. और, फिर कई स्थानीय मुद्दे हैं जो मतदाताओं के लिए बड़ा मायने रखते है, जैसेः नहर खींच लाने का वादा किया गया था लेकिन उसकी शुरूआत तक नहीं हुई, वादा सड़क बनाने का था लेकिन बस गढ्ढा खोदकर रख दिया, फसल के नुकसान की भरपायी की रकम अभी तक नहीं मिली, अस्पताली उपचार का खर्चा बढ़ता जा रहा है, चारो ओर बेशर्म भ्रष्टाचार का बोलबाला है… और ऐसी ही कई और बातें और.


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लोगों की चिन्ताओं की इस फेहरिश्त से अयोध्या के मंदिर का मुद्दा गायब है. किसी ने भी अगामी चुनावों के मद्देनजर अयोध्या के राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा की बात को एक विचारणीय बात मानकर स्वगत-भाव से चर्चा नहीं की. आप जब प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धियां बताने के लिए लोगों से कुरेद-कुरेद कर पूछते हैं तो बहुत से बीजेपी समर्थक अयोध्या के मंदिर का जिक्र करते हैं लेकिन यह जिक्र बातचीत की शुरूआत में नहीं आता बल्कि प्रधानमंत्री को दुनिया के मंचों पर भारत की छवि चमकदार बनाने और धारा 370 को हटाने का श्रेय दे देने के बाद आता है. आपको जहां-तहां विरोध की ईमानदार और सच्ची अभिव्यक्तियां भी सुनने को मिल जायेंगी. एक युवा आदिवासी मतदाता ने वेध देने वाले स्वर में कहाः “जनता को मंदिर में भेज रहे हैं और जिन्हें मंदिर में होना चाहिए उन्हें पॉलिटिक्स में ला रहे हैं.”

मौजूदा सांसदों के कामकाज भी इस बार लोगों के सवालिया निगाह के घेरे में हैं. चंद एक को छोड़कर इस इलाके के सभी सांसद चूंकि बीजेपी के हैं— सो इनमें से ज्यादातर को फिर से टिकट मिला है. कइयों को लगातार तीसरी बार तो कुछ को इससे भी ज्यादा दफे. ऐसे में सत्ताधारी पार्टी गहरे दबाव में है. सांसदों के बारे में आप कुछ पूछें इसके पहले ही लोगों की तरफ से जवाब मिलता है— “पांच साल से शक्ल नहीं दिखायी” और ऐसा सुनते ही आपको आगे पूछने की जरूरत नहीं रह जाती कि इलाके के मौजूदा सांसद को दोबारा मौका मिलना चाहिए या नहीं. सामाजिक समीकरण तो हमेशा ही मायने रखते हैं लेकिन इस बार के चुनाव में उनकी कहीं ज्यादा अहमियत है. बीजेपी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भले ही अपने विरूद्ध राजपूतों के बगावती तेवर को काबू कर लेने में कामयाब हो गई हो लेकिन हरियाणा और यहां तक कि राजस्थान में भी जाटों का बीजेपी से अलगाव इतना पक्का है कि चाहे जो जतन करो उसे चुनाव में पार्टी (बीजेपी) के पक्ष में मोड़ा नहीं जा सकता. बीजेपी पंजाब के शहरी इलाके में अपने पग-चिन्हों का विस्तार कर रही है लेकिन उसे राजस्थान और हरियाणा में अपने नव-अर्जित दलित समर्थक खोने पड़ सकते हैं. ये बात रोजमर्रा की राजनीति की चलताऊ सी बात जान पड़ सकती है लेकिन इन बातों का फिर से उभरना अपने आप में मानीखेज है.

‘तानाशाही’ की चर्चा

‘चार सौ पार’ के बड़बोल से इन बातों का जरा भी मेल नहीं बैठता. हमने जो कुछ जनमत की शक्ल में लोगों की जुबान से जाहिर होता देखा वही अगर वोट डालने का आधार बन जाता है और वोटिंग तथा वोटों की गिनती नियम-कायदों के प्रति ईमानदारी बरतते हुए होती है तो फिर समझिए कि बीजेपी का हाल हिन्दी पट्टी में वही होने जा रहा जो कभी `इंडिया शाइनिंग` के वक्त हुआ था. यहां तक कि अभी की स्थिति में भी, जब चुनावी मुकाबले का मैदान सत्तापक्ष की तरफदारी में बनाया गया जान पड़ता है, बीजेपी अपना 2019 वाला चुनावी-प्रदर्शन भी नहीं दोहरा सकती, सीटों की संख्या बढ़ने की तो बात ही क्या करना. हरियाणा और राजस्थान में बीजेपी की सीटों की संख्या अबकी बढ़नी नहीं बल्कि घटनी ही है.

लेकिन हम किसी साधारण वक्त में तो रह नहीं रहे और लोग इस बात को जानते हैं. तानाशाही (डिक्टेटरशिप) का जिक्र मैंने लोगों के मुंह से इस बार जितनी दफे सुना उतना पिछले चार दशकों में कभी सुनने को नहीं मिला. जिन वोटरों का स्वभाव उड़ंता किस्म का है वे भले ही इसके बारे में बात नहीं कर रहे लेकिन जो मतदाता बीजेपी के खिलाफ हैं उनकी बातों में तानाशाही की आशंका का जिक्र एक से ज्यदा दफे आता है. लोग `गोदी मीडिया` की जकड़ की बात कर रहे हैं (गोदी मीडिया अब एक आमफहम शब्द बन गया है), वे विपक्षी सरकारों को हेरा-फेरी से गिराने, पार्टी बदलने के लिए जबरन मजबूर करने तथा अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी को तानाशाही के सबूत के तौर पर गिनवाते हैं. `वॉशिंग मशीन बीजेपी` का जुमला अब लोगों की स्थानीय बातचीत में जगह पा चुका है और ग्रामीणों की आपस की बातचीत में ईडी तथा सीबीआई को चटखारेदार बाते हो रही हैं. किसी राष्ट्रीय स्तर के नेता की जगह लोगों में चर्चा स्थानीय स्तर के उस कांग्रेसी नेता की होती मिली जिस पर पहले तो छापा पड़ा, फिर दल बदलकर बीजेपी में जाने पर क्लीनचिट दे दी गई. ईवीएम को लेकर लोगों में पहली बार बड़े पैमाने का अविश्वास देखने को मिला– “बटन कहीं दाबेंगे, मशीन में निकलेगा कहीं और.” पहले ऐसी आशंकाओं को निर्मूल मान लिया जाता था लेकिन इस बार, जो मतदाता किसी पार्टी से नहीं जुड़े उनके बीच ऐसी आशंकाएं सहानुभूति के भाव से सुनी जा रही हैं.

असाधारण समय में साधारण ढर्रे की राजनीति को कई किस्म की विसंगतियां घेरे रहती हैं. जमीनी स्तर के मुद्दे राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी नहीं बन पाते. जो कुछ `जनमत` बताकर पेश किया जाता है, जनता-जनार्दन की राय उससे जुदा होती है. जनता के हक के संगत पड़ने वाली खबरें जनता तक पहुंच ही नहीं पातीं. हमने जिन मतदाताओं से बात की उनमें से इक्के-दुक्के को `चुनावी बांड घोटाला` का पता था और जिन लोगों ने इसके बारे में सुना था उनमें भी अधिकतर को ये मालूम नहीं था कि इस घोटाले में `चंदा दो–धंधा लो` को एक नियम की तरह बरता गया है.

देश में जो कुछ हो रहा है उसको लेकर लोगों के मन में जो धारणा बनी है उसका लोगों के अपने निजी अनुभव से कोई मेल नहीं है. आम तौर पर यही सुनने को मिलता है कि `पिछले पांच सालों में मेरी और मेरे परिवार की दशा तो खराब हुई है लेकिन देश आगे को बढ़ा है`. और, एक बात यह भी है कि लोगों की व्यक्तिगत पसंद और समुदायगत पसंद में अन्तर है. आमतौर पर भारतीय मतदाता यह मानकर चलता है कि जिस घोड़े पर वह दांव लगा रहा है वही घुड़दौड़ में जीतने जा रहा है. लेकिन इस बार बहुत से मतदाताओं ने कहा कि हम बीजेपी को वोट नहीं डालेंगे` और `ना ही हमारा परिवार या गांव ही बीजेपी को वोट डालने जा रहा है — `लेकिन आयेगा तो मोदी ही`

मैंने यह `आयेगा तो मोदी ही` वाला तकियाकलाम कई सुर और स्वर में सुना. बीजेपी के कार्यकर्ता ऐसा कहते हुए बड़े मुखर थे और आत्मसंतुष्टि के भाव से कह रहे थे. कई बार ऐसा भी प्रतीत हुआ मानो वस्तुस्थिति को बयान करने की कोशिश के तौर पर यह तकियाकलाम सुनाया जा रहा है. लेकिन बहुधा लोगों के ऐसा कहने के पीछे गहरी निराशा और निस्सहाय होने का भाव भी झलक रहा था. असाधारण समय में साधारण ढर्रे की राजनीति का सफर बड़ा कठिन होता है.

नोट: इस यात्रा में योगेन्द्र यादव के साथ उनके चार सहकर्मी आशुतोष मिश्र, दीपक लांबा, राहुल शास्त्री और श्रेयस देसाई शामिल हुए हालांकि लेख में व्यक्त विचारों के लिए चारों में से कोई भी उत्तरदायी नहीं है

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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