भारत में इस वक़्त किसान और जवान की इज़्ज़त दांव पर है, क्योंकि प्रत्येक जवान वर्दी पहना किसान है.
किसानों का विरोध प्रदर्शन जब दिल्ली पहुंचा, तो बड़ी संख्या में भूतपूर्व सैनिकों ने भी सिंघू बॉर्डर पर उनका साथ दिया. लेकिन ‘खालिस्तान समर्थक’ और राष्ट्रविरोधी करार दिए जाने की पीड़ा ने निश्चित रूप से उनकी भावनाओं को चोट पहुंचाई होगी. पहली बार पूर्व सैनिकों ने 16 दिसंबर को 1971 के युद्ध की जीत की याद में आयोजित विजय दिवस को सिंघू बॉर्डर पर मनाया.
युद्ध में भाग ले चुके कई पूर्व सैनिक कृषि कानूनों के विरोध में राष्ट्रपति को अपने पदक वापस करने के लिए तैयार दिखे. भारत में, किसान और सैनिक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. पीढ़ियों से, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और राजस्थान में ग्रामीण परिवार अपने बच्चों को सेना में भेजते रहे हैं. छुट्टी पर आए कुछ सेवारत सैनिकों के विरोध में शामिल होने की रिपोर्ट भी सोशल मीडिया में आई थी. यह मुद्दा गंभीर है और सरकार एवं सशस्त्र सेनाएं इस पर परदा नहीं डाल सकतीं.
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किसानों के खिलाफ मीडिया का अभियान
मीडिया के एक अत्यंत अधीर और उत्साही वर्ग ने किसानों को ’खालिस्तानी’ समर्थकों के रूप में चित्रित करने के लिए एक दुष्प्रचार अभियान शुरू किया. जब किसान संगठनों में ‘अर्बन नक्सलियों’, ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ आदि की ’घुसपैठ’ होने के आरोप लगाए जाने लगे तो एक अलग कथानक तैयार होने लगा. कइयों ने पाकिस्तान के इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) और चीन को आंदोलन के लिए जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया. विरोध स्थलों पर बैठे किसानों की ’क्वालिटी’ और ‘टाइप’ पर सवाल उठने लगे. अंग्रेजी बोलने वाले, पश्चिमी परिधान पहनने वाले, पिज्ज़ा खाने वाले किसान नहीं हो सकते? दुखद बात यह है कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई नेता इस हरकत में सबसे आगे थे.
यह किसानों की इज्ज़त और अभिमान पर अनुचित प्रहार था. राष्ट्र का पेट भरने के लिए मेहनत करने वाले गरीब भारतीय किसानों की लोकप्रिय छवि का अनादर किया जा रहा था. टीवी और सोशल मीडिया पर तरह-तरह के मुद्दे उछाले जाने लगे जिनमें लंगरों में अच्छे भोजन की उपलब्धता का विषय भी शामिल था. आंदोलन को बदनाम करने के लिए एक अभियान चलाया गया, जिसका सीधा उद्देश्य कृषक समुदाय को अपमानित करना था.
किसानों की परंपरा
प्रदर्शनकारी किसानों, जिनमें से अधिकांश हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी यूपी के जाट और पंजाब के जाट सिख हैं, में कई समानताएं हैं जिनमें उनकी ऐतिहासिक परंपराएं शामिल हैं. वे गरिमा, सम्मान और प्रतिष्ठा को सर्वोपरि मानते हैं. इन बेहद अभिमानी लोगों को तिरस्कृत किया जाना या किसी राष्ट्रविरोधी साजिश का हिस्सा ठहराया जाना अस्वीकार्य है. यह उनके डीएनए में है.
आज जिस तरह उन्हें कलंकित करने की कोशिश की जा रही हैं, उससे वे बुरी तरह आहत महसूस कर रहे हैं. अपने परिवारों से दूर सड़कों पर कड़ी ठंड झेलने वाले किसानों की भावनाओं का कोई ख्याल रखे बिना उन पर ताबड़तोड़ आरोप मढ़े जा रहे हैं.
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हम आग से तो नहीं खेल रहे?
किसानों को बदनाम करने के अभियान में शामिल लोगों ने इस तथ्य पर बहुत कम विचार किया है कि ये उन्हीं लोगों में से हैं जोकि भारत की रक्षा की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं, उन्हीं परिवारों से हैं जिनके बच्चों ने सगर्व पीढ़ी दर पीढ़ी सेना की सेवा की है. कहीं हम आग से तो नहीं खेल रहे? क्या एक राष्ट्र के रूप में हम, पीढ़ियों से किसानों और सैनिकों की ज़िम्मेदारी निभा रहे समुदायों की भावनाओं को आहत करने और चोट पहुंचाने का जोखिम मोल ले सकते हैं? इस तरह के नकारात्मक चित्रण का हमारी सीमाओं पर तैनात युवा सैनिकों के मानस पर क्या प्रभाव पड़ता होगा? ‘जय जवान, जय किसान’ केवल जुमला भर रह गया लगता है.
सोशल मीडिया हमारे जीवन में गहरी पैठ बना चुका है. और सेना इससे अलग नहीं है क्योंकि अधिकांश सैनिकों के पास स्मार्टफोन हैं और वे खासे टेक्नोलॉजी प्रेमी भी हैं. वास्तव में, टेक्नोलॉजी ने हमारे समाज को इस कदर समरूप कर दिया है कि एक ही समय ग्रामीण और शहरी भारत में एक जैसा कंटेंट उपलब्ध रहता है.
टिकरी, गाज़ीपुर और सिंघू में मौजूद सेना के पूर्व सैनिक खुलेआम अपने पदक (सेवा मानकों के खिलाफ) पहने दिख रहे हैं. इनमें से अनेक पूर्व सैनिकों के बच्चे इस समय सेना की सक्रिय सेवा में हैं. उन्हें क्या संदेश पहुंच रहा होगा?
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जय जवान, जय किसान
इस इलाके के सैनिकों का बड़ा हिस्सा जाट, सिख, राजपूताना राइफल्स, ग्रेनेडियर्स और राजपूत रेजिमेंटों में तथा बख्तरबंद और तोपखाना इकाइयों से संबद्ध है. अगर उनके संबंधियों और परिजनों पर अलगाववादी समूहों का हिस्सा होने या दुश्मन देशों के इशारे पर देशविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने का आरोप लगाया जाता है, तो ये तय है कि सेवारत सैनिक भी आहत महसूस करेंगे.
सोशल मीडिया पर और व्हाट्सएप ग्रुपों में निरंतर बड़ी मात्रा में किसान समर्थक और किसान विरोधी सामग्री प्रसारित किए जा रहे हैं — जिनमें से कुछ तो शुद्ध दुष्प्रचार है, और कुछ आधे-अधूरे सच पर आधारित बातें.
जब चीन के साथ भारत की भारी तनातनी चल रही हो तो ऐसे में क्या हम इस तरह के कथानक को चलने दे सकते हैं? पहाड़ों पर शून्य से भी कम तापमान में तैनात एक युवा सैनिक के दिमाग में क्या चल रहा होगा? खासकर अगर उनके परिवार के सदस्य दो महीने से अधिक समय से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे हों. गणतंत्र दिवस के दिन की विस्फोटक स्थिति के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा खड़े किए गए अवरोध — छड़ें, कंक्रीट, कीलें — न केवल डरावने हैं, बल्कि निहायत अपमानजनक भी.
आखिरकार सेवारत सैनिक भी इंसान हैं और इसलिए उन्हें भी अपने गांव की घटनाओं की चिंता होती है. प्योर क्लास यूनिटों के सैनिकों के बीच पिछले पांच महीनों के दौरान रोज़ इस मुद्दे पर चर्चा होने की कल्पना करके देखिए? विरोध प्रदर्शन एक राजनीतिक मुद्दा होने के नाते, सेना ने शायद इस पर कोई निर्देश नहीं जारी किया हो. यहां तक कि अधिकारी भी शायद कृषि कानूनों के फायदों और नुकसानों और सैनिकों के परिवारों पर उनके असर पर चर्चा से बचना चाहेंगे. उनकी खातिर, किसानों के खिलाफ झूठी बयानबाज़ी बंद की जानी चाहिए. यदि कट्टरपंथी तत्व वास्तव में आंदोलन में शामिल हैं, तो उन्हें अलग करें और उन पर मुकदमा चलाएं.
किसी न किसी रूप में, हमें फिर से 1984 का डर सता रहा है. हमारे कृषक समाज के एक बड़े वर्ग को बदनाम और कलंकित करने की कोशिशें बंद होनी चाहिए. वास्तव में, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अपने एक साक्षात्कार में इसकी निंदा कर चुके हैं. लेकिन सत्ता पक्ष के कई नेता अभी भी आग में घी डालने का काम कर रहे हैं.
यदि इस आंदोलन को लंबे समय तक चलने दिया गया, तो यह कानून-व्यवस्था के मुद्दे से आगे राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन सकता है. हमें अपने किसानों और जवानों की गरिमा और सम्मान को बनाए रखना चाहिए. और इस मुद्दे का एक सम्मानजनक समाधान निकाला जाना चाहिए. भारत को समवेत स्वर में ‘जय जवान, जय किसान’ का उद्घोष करना चाहिए. इस नारे की पहचान लालबहादुर शास्त्री से है, जिन्हें 1965 के युद्ध के दौरान उनके नेतृत्व के लिए सम्मानपूर्वक याद किया जाता है.
मेजर जनरल यश मोर ग्रामीण हरियाणा के हिसार जिले के एक गांव में पले-बढ़े हैं. उनका संबंध एक किसान-सैनिक परिवार से है और उन्होंने सेना में परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व किया. वह नेतृत्व और सामरिक नीति से जुड़े विषयों पर लिखते हैं. ये उनके निजी विचार हैं.
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(मेजर जनरल यश मोर का जन्म और पालन-पोषण ग्रामीण हरियाणा के हिसार जिले के एक गांव में हुआ है. सेना में उनकी तीसरी पीढ़ी है जो किसान-सैनिक परिवार से हैं. वह नेतृत्व और रणनीतिक मुद्दों पर लिखते हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)
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