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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतयूपी में योगी आदित्यनाथ के पोस्टरों में प्रदर्शित हर व्यक्ति अब गौरी लंकेश की तरह ही असुरक्षित है

यूपी में योगी आदित्यनाथ के पोस्टरों में प्रदर्शित हर व्यक्ति अब गौरी लंकेश की तरह ही असुरक्षित है

सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के नाम और फोटो सार्वजनिक करना उन्मादी भीड़ को निमंत्रण देने जैसा है – इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे नागरिकों की स्वतंत्रता का 'सरासर अतिक्रमण' करार दिया है.

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जिस देश में दोषी ठहराए जा चुके अपराधियों को भी पुलिस के साथ चलते हुए या अदालतों से बाहर निकलते समय अपना चेहरा ढंकने की इजाज़त है, वहां उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा उन नागरिकों को सरेआम अपराधियों के रूप में चिन्हित और बदनाम करने की कार्रवाई अत्यंत क्रूर है, जो कि संभव है किसी अपराध के दोषी हों या नहीं भी हों.

यूपी की भाजपा सरकार ने पिछले सप्ताह लखनऊ में बड़े आकार के पोस्टर और होर्डिंग लगाए हैं जिन पर सीएए-विरोधी प्रदर्शनकारियों के नाम, पते और फोटो प्रदर्शित हैं. इन लोगों को ‘दंगाई’ बताते हुए कहा गया है कि दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में प्रदर्शन करते हुए कथित रूप से सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुंचाने के कारण उन्हें प्रशासन को मुआवज़ा चुकाना पड़ेगा. पोस्टर में नामित 53 लोगों– जिनमें एक वकील, एक महिला कार्यकर्ता-नेता और एक पूर्व आईपीएस अधिकारी शामिल हैं – में एक को भी किसी कानून के तहत दोषी नहीं ठहराया गया है. इन लोगों में एक अवयस्क भी है.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दो जजों ने स्वत: संज्ञान लेते हुए रविवार की सुनवाई में राज्य सरकार के कदम को ‘बेहद अन्यायपूर्ण’ और नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ‘सरासर अतिक्रमण’ करार दिया.

पुलिस आमतौर पर ‘वांटेड’ पोस्टरों में किसी अपराध के आरोपी या दोषी व्यक्तियों के फोटो या स्केच का इस्तेमाल करती है. इन प्रकरणों में कथित अपराधियों की पहचान या ठिकाने का पता नहीं होने के कारण जनता की सहायता लेने के लिए पुलिस ऐसा करती है. पर आदित्यनाथ सरकार के पास उन सभी 53 व्यक्तियों के बारे में पूरी जानकारी है जिनको उसने सार्वजनिक रूप से चिन्हित और बदनाम किया है. तो फिर किस उद्देश्य से ये पोस्टर लगाए गए हैं?


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उन्मादियों के लिए इशारा

जर्मनी में 1943 में यहूदीवाद विरोधी दुष्प्रचार के तहत लगाए गए पोस्टरों में यहूदियों को दोषी ठहराते हुए कहा गया था: Der ist Schuld am Kriege! – युद्ध इनके कारण हुआ है!

लखनऊ में लगाए गए पोस्टर उन्मादियों को हमले के लिए उकसाते हैं– जैसे कि गौरी लंकेश को निशाना बनाया गया था, जिनके हत्यारे को अभी तक सज़ा नहीं मिली है.

इसमें एक संदेश सरकार से असहमत जमात के लिए भी है: ‘तुम हमारे खिलाफ गए तो हमले के लिए हम दीवारों को तुम्हारी तस्वीरों से पाट देंगे. हम तुम्हें तंग करेंगे, तुम्हारे पीछे पड़ जाएंगे’.

विगत कुछ वर्षों में यदि कोई बात स्पष्ट हुई है तो वो ये कि भारत में दंगाइयों के लिए कोई कानून नहीं है. भीड़ द्वारा पिटाई या हत्या के मामलों में न सिर्फ किसी को सज़ा मिलेगी, बल्कि अपराधियों को फूलों के माले पहनाए जाएंगे और उनका नायकों जैसा सम्मान किया जाएगा.

क्या आदित्यनाथ सरकार इस बात की गारंटी देती है कि बिना किसी अदालती कार्यवाही के उसके द्वारा ‘दोषी’ ठहराए गए 53 लोगों पर गैरकानूनी भीड़ या आरएसएस से संबद्ध कानून अपने हाथ में लेने वाले और सच्चे संस्कारी भारतीय का तमगा बांटने वाले बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के हमले नहीं होंगे? क्या सरकार उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगी जबकि खूंखार अपराधियों को भी सरकारी सुरक्षा का हक़ है? क्या उन्हें वाई+ सुरक्षा दी जाएगी जैसा कि नफ़रत फैलाने वाले भाषण देकर दिल्ली में दंगे भड़काने के आरोपी कपिल मिश्रा को दी गई है?


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बदनाम करने का इतिहास

सार्वजनिक रूप से लोगों को चिन्हित और बदनाम करने का कदम कोई नया नहीं है. मार्च 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार के वित्त मंत्रालय ने इरादतन कर्ज नहीं चुकाने वालों के नाम और तस्वीर अखबारों में छपवाने के लिए बैंकों को निर्देश जारी किया था. उससे पहले जनवरी 2017 में, महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने यौन अपराधियों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाए जाने की मांग उठाई थी, जिसमें बलात्कार के दोषियों के नाम और अन्य जानकारियों को शामिल किया जाए. पहले भी ये मांग कर चुकीं मंत्री ने पूर्व में बलात्कार का दोषी ठहराए जा चुके एक व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद इस आशय का बयान दिया था.

यहां तक कि लोग सोशल मीडिया पर नाम सार्वजनिक कर ‘यौन अपराधियों’ को बदनाम करने भी लगे. यौन उत्पीड़न के आरोपी पुरुषों की कई ‘सूचियां’ फेसबुक पर लगाई जा चुकी हैं.

अक्सर कानून की विफलता के कारण शायद आम आदमी इस तरह के उपायों पर उतर आते हों, लेकिन तमाम कानूनी प्रक्रियाओं को तिलांजलि देकर लोगों की जान खतरे में डालने के पीछे सरकार के पास क्या बहाना है?

हालांकि ये होर्डिंग महज कुछ लोगों को निशाना बनाने की कवायद भर नहीं है, जो कि आदित्यनाथ सरकार का पसंदीदा कार्य है. ‘एंटी-रोमियो स्क्वाड’ का विचार इस बात पर आधारित था कि लोग अपनी मर्ज़ी से उन लड़कों और पुरुषों को निशाना बनाएं जो महिलाओं को परेशान करते हों और छेड़खानी में लिप्त हों. इसी तरह ‘लव जिहाद’ के विरोधियों ने अंतरधार्मिक युगलों को निशाना बनाया जिन्हें वे विश्वासघाती मुसलमानों द्वारा इस्लामी खिलाफ़त के बड़े उद्देश्य के खातिर भोली-भाली हिंदू लड़कियों को बहलाए-फुसलाए जाने का परिणाम मानते हैं.

सीएए पर भाजपा का गलत रुख

भाजपा ने लोगों की भारतीय, गैर-भारतीय या भारत-विरोधी के रूप में ‘पहचान करने’ और लिस्ट बनाने को लेकर एक कुटिल उत्साह का प्रदर्शन किया है. वास्तव में, होर्डिंग पर नामों की लिस्ट प्रदर्शित किए जाने को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनसीआर) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) जैसी सूचियों का एक नमूना मानते हुए ये समझा जा सकता है कि इनको लेकर लोगों में डर क्यों व्याप्त है. इस तरह की सूचियां त्रुटिहीन नहीं होती हैं. अंतत: इनमें यही होता है कि आम लोगों को उनके सामान्य ज़िंदगी से बाहर निकाल कर उन पर ‘सही’ नहीं होने का ठप्पा लगा दिया जाता है.

इस तरह आदित्यनाथ सरकार ने इस व्यावहारिक उदाहरण के ज़रिए ये दिखा दिया है कि सीएए के विरोधियों की चिंता किस बात को लेकर है – ‘भारतीय’ नहीं होने के नाम लोगों को चिन्हित और अपमानित करना.

मानो ‘शहरी नक्सल’, ‘दीमक’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ की उपमा ही पर्याप्त नहीं थी, जो अब नागरिकों की तस्वीरों और व्यक्तिगत विवरणों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने का विचार अपनाया गया है. ये एक दुःस्वप्न है कि कैसे सरकार लोगों की निजता का उल्लंघन कर सकती है– इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी ऐसा ही कुछ कहा है. इसके अलावा असहमत लोगों को भाषणों, सोशल मीडिया और अब पोस्टरों और होर्डिंग के माध्यम से लगातार निशाना बनाए जाने से भारत की छवि उस लोकतंत्र की नहीं रह जाती है, जिसका आम नागरिक तथा प्रधानमंत्री मोदी समेत राजनीतिक वर्ग दम भरते हैं, खास कर अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने.


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सीएए आंदोलन को लेकर भाजपा का रवैया बिल्कुल गलत है. सीएए का विरोध शांत नहीं पड़ने में खुद पार्टी और इसकी सरकारों की ही भूमिका है. सीएए के खिलाफ बोलने वाले कार्यकर्ताओं और नागरिकों को खतरनाक साबित करने की कोशिशों से प्रदर्शनकारियों की बात ही सही साबित होती है कि सरकार अपनी जनता के खिलाफ ही खड़ी है.

भाजपा सरकार मानती है कि नागरिकों से संबंधित सभी मामलों में निर्णय का अंतिम अधिकार उसी को है– जबकि लोकतंत्र की पूरी अवधारणा ही जनता द्वारा, जनता के लिए एवं जनता के शासन पर टिकी हुई है. हालांकि हमारा लोकतंत्र गौरी लंकेश जैसों को उनके हाल पर छोड़ देता है. आज यह लखनऊ की दीवारों पर प्रदर्शित लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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