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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतअग्निपथ खत्म भी कर दी जाती, तो भी सेना के पेंशन बिल में कमी लाने वाले सुधार करने ही होंगे

अग्निपथ खत्म भी कर दी जाती, तो भी सेना के पेंशन बिल में कमी लाने वाले सुधार करने ही होंगे

सेना में बढ़ते पेंशन बिल के मसले का 2022 में अग्निपथ योजना की घोषणा से पहले तक समाधान नहीं ढूंढा गया था. अब पेंशन के मद में खर्च को घटाने के जो उपाय किए जाएंगे उनका असर 15 साल बाद ही दिखेगा.

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कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अग्निपथ योजना को ‘भेदभावमूलक’ बताते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को जो पत्र लिखा उसने इस लोकसभा चुनाव में इस मुद्दे के महत्व को रेखांकित कर दिया. भाजपा सरकार ने इस योजना को 2022 में लागू किया था, जिसके तहत सेना में चार साल के लिए भर्ती किए जाने वाले सैनिकों को ‘अग्निवीर’ कहा जाता है.

इस योजना को लेकर अलग-अलग राजनीतिक दलों ने अलग-अलग विचार जाहिर किए हैं. कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र ने कहा कि पार्टी सत्ता में आई तो “अग्निवीर योजना को रद्द कर देगी और सेना (थलसेना, वायुसेना, नौसेना और कोस्ट गार्ड) में भर्ती की सामान्य प्रक्रिया अपनाई जाएगी ताकि सेना अपनी मंजूरशुदा ताकत हासिल कर सके”.

दूसरी ओर भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में दोहराया कि चार साल के लिए सैनिकों की भर्ती की योजना से युवाओं और रोजगार की तलाश करने वाले बड़े तबके को फायदा पहुंचेगा. उसमें यह भी कहा गया कि सेनाओं की समीक्षा के बाद इस योजना में बदलाव भी किया जा सकता है. लेकिन चुनाव अभियान के मनोवैज्ञानिक ढांचे में यह मसला राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी के बड़े मसले के साथ जुड़ गया.

लेकिन अग्निपथ को लेकर होने वाली बहसों में इस मुद्दे को नहीं उभारा गया कि इस योजना को आगे बढ़ाने के पीछे पेंशन पर बढ़ते खर्च को घटाने का दबाव है. इस बढ़ते खर्च के कारण कोष की कमी के चलते सेना के आधुनिकीकरण पर उलटा असर पड़ा है. सरकार ने अग्निवीर योजना के जो सकारात्मक परिणाम गिनाए हैं उनमें समाज और सेना के रिश्ते में मजबूती, युवाओं में राष्ट्रवादी भावना का उभार, सैन्यकर्मियों की औसत उम्र में कमी, युवाओं को सेना में सेवा देने की आकांक्षा को पूरा करने का मौका देना  शामिल है. 

वर्षों से उपेक्षित पेंशन का मसला

सैनिकों के पेंशन पर बढ़ते खर्च को लेकर खतरे की घंटी दशकों से बज रही थी, ‘वन रैंक वन पेंशन’ (‘ओरोप’) जैसी बेहद महंगी योजना लागू किए जाने से काफी पहले से. उदाहरण के लिए, 1999 की कारगिल समीक्षा कमिटी की रिपोर्ट ने कहा कि “सेना के पेंशन बिल में 1960 के दशक के बाद से बड़ा इजाफा होता जा रहा है और यह राष्ट्रीय खजाने पर बड़ा बोझ बनता जा रहा है.

1990-91 में सेना का पेंशन बिल 1568 करोड़ रुपये का था, जो 1999-2000 में बढ़कर 6932 करोड़ रुपये (बजटीय अनुमान) का हो गया, जो सेना के कुल वेतन बिल के लगभग दो-तिहाई के बराबर है”. भारतीय सेना के बढ़ते पेंशन बिल पर ‘दिप्रिंट’ के इस लेख को देखें.

2024-25 के अंतरिम बजट में 30 फीसदी हिस्सा वेतन-भत्तों आदि के लिए रखा गया है, 22.7 फीसदी हिस्सा सेना वालों के पेंशन के लिए, और 27.6 फीसदी हिस्सा सेनाओं के आधुनिकीकरण पर पूंजीगत खर्च के लिए. 

सेना के पेंशन बिल पर लगाम कसने के लिए पिछले दो दशकों में कई मंचों से कई तरह के उपाय बताए गए (देखें : ‘तक्षशिला डिसकशन डॉक्युमेंट’ की अनुसूची ए). लेकिन इनमें से कोई भी उपाय लागू नहीं किया जा सका. ये उपाय लोकसभा के लिए 33वीं रिपोर्ट ‘रीसेटलमेंट ऑफ एक्स-सर्विसमेन’ के हिस्से तौर पर अगस्त 2017 में, रक्षा मामलों की संसदीय स्थायी कमिटी के विचाराधीन प्रस्तुत किया गया. प्रस्ताव दिया गया कि सेवारत सेनाकर्मी को सेना में सात साल की ‘कलर सर्विस’ देने के बाद ‘सीएपीएफ’ में भेजने का प्रावधान किया जाए. लेकिन गृह मंत्रालय को यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया.

गृह मंत्रालय ने स्थायी कमिटी के सामने तर्क पेश किया कि सेना से केंद्रीय/प्रादेशिक पुलिस सेवाओं में पार्श्विक प्रवेश (लेटरल इंट्री) बल प्रयोग के मामले में सेना वालों के नजरिए और अधिक उम्र में रिटायर होने के कारण पुलिस में उनकी संदिग्ध प्रभावशीलता के कारण अवांछनीय है.


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प्रवृत्ति में अंतर से संबंधित तर्क में इस बात की ओर से आंख मूंद लिया गया कि मनुष्य की प्रवृत्ति बदल भी सकती है. सात साल की सेवा देने वाले की उम्र को मुद्दा बनाना कुछ अति ही थी. 

सितंबर 2019 में, सार्वजनिक नीति से संबंधित थिंक टैंक तक्षशिला संस्थान (बेंगलुरू) ने ‘अ ह्यूमन कैपिटल इनवेस्टमेंट मॉडल फॉर इंडियाज़ नेशनल सिक्यूरिटी सिस्टम कंटेनिंग इंडियाज़ बर्जिओनिंग डिफेंस पेंशन एक्सपेंडीचर’ नामक ‘तक्षशिला डिसकशन डॉक्युमेंट’ प्रकाशित किया.  

इस डॉक्युमेंट में कहा गया कि “भारतीय सेना के बढ़ते पेंशन बिल को चलाया नहीं जा सकता और यह तुरंत कदम उठाने की मांग करता है. इस समस्या को सुलझाने के लिए पिछले दो दशकों में कारगिल रिव्यू कमिटी से लेकर कई समाधान सुझाए गए हैं लेकिन कोई भी सिरे नहीं चढ़ पाया है.

इस बीच, ‘OROP’ योजना लागू किए जाने के बाद से यह खर्च काफी बढ़ गया है. इस पत्र में हम प्रस्ताव कर रहे हैं कि सेनाकर्मियों को राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र में पार्श्विक प्रवेश का जो समाधान सुझाया गया है उसमें सेना के पेंशन बिल को सीमित करने की बड़ी क्षमता है.

लैटरल एंट्री को लागू करने का मॉडल हम प्रस्तुत कर रहे हैं. हमारा यह भी अनुमान है कि इस मॉडल को लागू किया गया तो सरकार वर्तमान मूल्य के हिसाब से 1.2 लाख करोड़ रुपये के बराबर बचत कर सकती है. 

इस मॉडल में गृह मंत्रालय की अधिकतर शंकाओ का समाधान किया गया था और इसमें उन सभी सरकारी सेवाओं को शामिल किया गया था जिनमें साझा हुनर की पहचान की जा सकती थी.

इसमें पेंशन के बढ़ते मसले का समाधान करने के अलावा सेनाओं और उन एजेंसियों की कार्यकुशलता को भी बनाए रखने का उपाय शामिल था, जो सेना में पांच-छह साल काम कर चुके लोगों को अपने यहां नौकरी देतीं.

अग्निपथ नहीं तो और कुछ

सेना में बढ़ते पेंशन बिल के मसले का 2022 में अग्निपथ योजना की घोषणा से पहले तक समाधान नहीं ढूंढा गया था. अब पेंशन के मद में खर्च को घटाने के जो उपाय किए जाएंगे उनका असर 15 साल बाद ही दिखेगा जब हर साल रिटायर होने वाले अग्निवीरों की संख्या कम होगी. तब तक पेंशन का बिल बढ़ता रहेगा. 

अग्निपथ योजना के विरोध में मुख्य राजनीतिक तर्क यह है कि यह योजना अधिकतर अग्निवीरों को आजीवन सरकारी नौकरी और उसके बाद पेंशन से वंचित करती है. सेना के नजरिए से, सैन्य कार्यकुशलता पर इसके कारण पड़ने वाले प्रभावों को लेकर आशंकाएं थीं, जबकि इस मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता.

कहा गया कि सेना की आशंकाओं को इस योजना की समीक्षा के दौरान रखा जा सकता है और इसके बाद राजनीतिक मंजूरी के बाद बदलाव किए जा सकते हैं. 

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल ने 24 मई को दिल्ली के विज्ञान भवन में रुस्तमजी स्मृति व्याख्यान देते हुए यह विचार रखा कि ‘सीएपीएफ’ में भेजे जाने की प्रक्रिया को सेनाओ के संयुक्त थिएटर कमांड की तर्ज पर ढाला जा सकता है.

एकीकरण के इस विचार को आगे भी बढ़ाया जा सकता है अगर सेना में पांच-छह साल काम कर चुके लोगों को उस मानव पूंजी का हिस्सा बनाया जाए जिन्हें सभी तरह के पुलिस बल में और उन एजेंसियों में भेजा जा सकता है जहां समान तरह के कार्य किए जाते हों. 

अग्निपथ योजना के तहत सेना को सेवा देने के साथ सबसे बड़ी समस्या इस सेवा से निवृत्ति के बाद आगे रोजगार के आश्वासन को लेकर है. हालांकि मौखिक राजनीतिक आश्वासन दिए गए हैं लेकिन इस प्रक्रिया में सेना से लोगों को दूसरी सरकारी एजेंसियों में भेजे जाने की कोई व्यवस्थित प्रक्रिया नहीं बनाई गई है.

राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी की जो स्थिति है उसमें निजी क्षेत्र में संभावनाएं बेहद सीमित हैं. अग्निवीरों का पहला बैच 2027 तक सेना की सेवा से मुक्त हो जाएगा और उसे कहीं रोजगार दिए जाने की संभावना नहीं दिखती है.

योजना की पहली समीक्षा 2024-2025 तक पूरी होने की उम्मीद है, और शायद कुछ बदलाव भी किए जाएंगे, खासकर सेवा अवधि को चार साल से बढ़ाकर पांच-छह साल का का किया जा सकता है लेकिन  इसके साथ ही सेना के युद्ध कौशल को बचाए रखने के लिए सेवा मुक्ति के बाद रोजगार की मांग को भी पूरा करना होगा. नयी सरकार को इस मामले में तेजी से काम करना पड़ेगा.

राजनीतिक नेतृत्व के लिए यह कबूल करना भी महत्वपूर्ण है कि अगर अग्निपथ योजना को रद्द किया जाता है तो उसकी जगह एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जो सेना की कार्यकुशलता को बचाए रखने के साथ पेंशन पर खर्च में भी बचत करे.

जो भी हो, अगले 10-15 साल तक जब तक अग्निपथ योजना के तहत पेंशन पर खर्च में कमी नहीं आती तब तक भारत के रक्षा बजट में सेना के आधुनिकीकरण की बढ़ती मांग और पेंशन बिल के हिसाब से वृद्धि करने पड़ेगी. दशकों से ऐसी वृद्धि नहीं की गई है. वैश्विक तथा क्षेत्रीय भू-राजनीति को लेकर टकराव के जो बादल मंडरा रहे हैं उनके मद्देनजर यह वृद्धि उचित भी लगती है.

नवनिर्वाचित सरकार को यह साबित करना होगा कि वह रक्षा बजट में वृद्धि और अग्निपथ योजना में जरूरी बदलाव करने की जरूरत को महसूस करती है.

(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (सेवानिवृत्त) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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