चमकदार सुंदर पोटलोई और घांघरे खींचते हुआ जालिफी घूंघट में करुणा और समर्पण की देवी और कृष्ण की प्रेमिका राधा पहली बार नई भूमि के प्रतीक के रूप में फोटो में दिखाई देती हैं. उनके दोनों ओर कुंडली मारे हुए ड्रैगन ‘पखंगबा’ और ‘कंगलाशा’ थे. यह ड्रैगन के सिर और शेर के शरीर वाला सनामाही पंथ का प्रतीक एक जानवर था जिसका प्रभाव 18 वीं शताब्दी में मणिपुर में हिंदू धर्म के आधिकारिक धर्म बनने पर मुहर लगने के साथ कम होने लगा.
बांग्लादेश युद्ध में अपनी जीत के बाद, अपने विजयी राष्ट्र में कई लोगों के लिए खुद एक देवी के रूप में मानी जाने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किसी तीसरे व्यक्ति से अपने मन की इच्छा जताई: “यह हमारी इच्छा है कि मणिपुर एक रत्न की तरह चमके और पूरे को भारत को सुंदरता प्रदान करे.”
जिस राज्य में इंदिरा का जन्म हुआ था, 1972 में भले ही वहशी जातीय सफाया (ethnic cleansing) और हत्याएं उस राज्य को तार-तार कर रही थीं, पोस्टर पर छपी तस्वीर हमें यह समझने में मदद करती है कि क्या गलत हुआ था.स्कॉलर सुदीप चक्रवर्ती ने भारत की पूर्वी सीमा पर एक शानदार किताब में लिखा था कि मणिपुर नागा, कुकी, ज़ो, पांगल मुस्लिम जैसे समुदाय थे जिनके लिए मणि/रत्न की चमक अशुभ लगती थी. और मैदानी इलाकों में रहने वाले मैतेई लोगों में उनकी पहचान की चिंता धीरे-धीरे उबाल मार रही थी.
मणिपुर में हिंसा उस घटना की कहानी है जब आतंकवाद विरोधी संस्थाओं को मजबूत करने और कानून के शासन को लागू करने के बजाय जातीयता और पहचान के हेरफेर को अपने हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं.
विद्रोह का ज्वार
मैतेई विद्रोह का जन्म हिजाम इराबोत सिंह की कहानी से जुड़ा हुआ है. हिजाम का जन्म लेकाई में एक गरीब परिवार – जो गरीबी के कारण कभी स्कूल पूरा नहीं कर सका – में हुआ था. वे एक करिश्माई व्यक्ति थे. इराबोत मणिपुर के महाराजा चुराचंद सिंह के परिवार से शादी के बंधन में बंध गए. एक समय के लिए, वह निखिल मणिपुरी हिंदू महासभा के प्रभारी थे, जो कि ईसाई इंजीलवाद का विरोध करने के लिए स्थापित एक संगठन था. फिर, 1934 में, राज्य भर में राजशाही द्वारा जबरन श्रम करवाए जाने के खिलाफ महिलाओं के नेतृत्व में एक विद्रोह हुआ.
महिलाओं के खिलाफ हिंसा से क्रोधित, इराबोत ने अपने बहनोई के खिलाफ विद्रोह किया: लेखक होमेन बोर्गोहेन ने उन्हें यह कहते हुए लिखा है कि महिलाओं ने “मुट्ठी भर चावल मांगे थे और आपने उन्हें खून की एक बाल्टी दी थी.”
इराबोत के लिए, ऐसा लगता था कि मणिपुर की मुक्ति केवल तभी तभी हो सकती है जब एक स्वतंत्र पूर्वोत्तर के लिए क्षेत्र के लोगों- मैतेई, नागा, कुकी, ज़ो- द्वारा एक व्यापक विद्रोह हो. बाद में, सिलहट जेल में कैद के दौरान इराबोट की मुलाकात हेमंगा विश्वास और ज्योतिर्मय नंदी जैसे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं से होती है और वे मणिपुर में संगठन स्थापित करने में उनकी मदद करते हैं.
मणिपुर में कईयो का मानना है कि भारत में विलय की वजह से उनकी उनकी वैध राजनीतिक आकांक्षाएं दब गईं. भले ही राज्य ने 1948 में अपना स्वयं का संविधान लिखा था- और चुनाव आयोजित किए थे, जैसा कि इतिहासकार प्रियदर्शिनी गंगटे ने कहा है, प्रत्येक उम्मीदवार के पास उनकी तस्वीर वाली अपनी खुद की एक मतपेटी थी- इसे केवल तथाकथित सी-श्रेणी राज्य का दर्जा दिया गया था, बिना किसी निर्वाचित नेतृत्व के.
इतिहासकार एन जॉयकुमार सिंह कहते हैं कि भविष्य के मेइती विद्रोहियों ने इराबोत के साम्यवाद और अखिल-जातीय विद्रोह के उनके विचारों दोनों का उपयोग करके इस लोकतंत्र की कमी को दूर करने की कोशिश की. 1966 में स्थापित मैतेई स्टेट कमेटी ने संयुक्त क्रांतिकारी आंदोलन बनाने के लिए नागालैंड की तथाकथित संघीय सरकार का समर्थन किया. मैतेई स्टेट कमेटी ने बहुत कम हासिल किया – अपने शस्त्रागार में सबसे घातक हथियार बाद में एक अनुपयोगी मशीन गन बन गया – लेकिन इसने भविष्य के आंदोलनों के लिए खाका तैयार किया.
मैतेई राज्य समिति द्वारा प्राप्त भावनात्मक समर्थन 1969 में स्पष्ट हो गया था जब उस वर्ष इंफाल की अपनी यात्रा पर इंदिरा पर हमला करने की कोशिश करने वाली भीड़ को रोकने के लिए पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी थीं.
ओइनम सुधीरकुमार सिंह के नेतृत्व में, यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (यूएनएलएफ) ने मणिपुर को प्रवासियों – उनमें से, बंगाल के जातीय मारवाड़ी व्यापारी- से मुक्त करने के लिए एक सशस्त्र आंदोलन खड़ा करने की मांग की और इस तरह इसे एक राष्ट्रीय कायाकल्प कहा जाता है. यूएनएलएफ ने चीन और पूर्वी पाकिस्तान दोनों से सहायता पाने की कोशिश की, लेकिन उनकी खुफिया एजेंसियों द्वारा इसे संदेह की नजर से देखा गया. एक मामले में, दर्जनों यूएनएलएफ काडर को पूर्वी पाकिस्तान से त्रिपुरा में निर्वासित किया गया था.
अगले प्रयासों में मणिपुर की क्रांतिकारी सरकार सिलहट के पास पाकिस्तानी सेना के एक बैस कैंप में प्रशिक्षण प्राप्त करने में सफल रही. समूह के काडर ने इम्फाल में डाकघर और इंपीरियल कॉलेज के कार्यालय को लूटने सहित मणिपुर के भीतर कई सफल अभियान चलाए. हालांकि, 1971 के युद्ध से इसके ऑपरेशन को खत्म कर दिया.
1978 से, एन बिशेश्वर सिंह के नेतृत्व वाली पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने फिर से अभियान शुरू किया, जिससे सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और पुलिस के खिलाफ कई घातक कार्रवाइयां हुईं. पीपुल्स रिवोल्यूशनरी पार्टी ऑफ़ कांगलेपाक (PREPAK) और कांगलेपाक कम्युनिस्ट पार्टी अभियान में शामिल हो गए. 1980 के दशक के मध्य तक हिंसा का स्तर बढ़ गया.
एक जहरीली प्रतियोगिता
मैतेई के बीच जातीय दावे भावना ने इसकी पहाड़ियों में इसी तरह के विद्रोही आंदोलनों को बढ़ावा दिया. नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के इसाक-मुविया (NSCN-IM) गुट ने अपने पांच पहाड़ी जिलों में से चार – उखरुल, सेनापति, तमेंगलोंग और चंदेल पर वास्तविक नियंत्रण कर लिया. यहां तक कि एनएससीएन-आईएम ने 1997 में सरकार के साथ संघर्ष विराम पर हस्ताक्षर किए, लेकिन इसका प्रभाव बरकरार रहा. इससे भी बदतर, प्रतिद्वंद्वी एनएससीएन-खापलांग गुट ने पीएलए के समन्वय में सीमा पार से काम करना जारी रखा.
1988 में गठित कुकी नेशनल आर्मी, एथनिक नागा आर्म्ड पावर के विकास की एक प्रतिक्रिया थी, जिसके बाद ज़ोमी सैन्य समूहों की स्थापना हुई. प्रत्येक एथिनक मिलिशिया ने अन्य समुदायों में भय और अपने स्वयं के सशस्त्र समूहों के लिए समर्थन पैदा किया.
1990 के दशक की शुरुआत से, इस क्षेत्र में कई अंतर-जातीय संघर्ष देखे गए- कुकी-नागा, मैतेई-मुस्लिम, कुकी-कार्बी, हमार-दिमासा और यहां तक कि कुकी-तमिल संघर्ष, मोरेह में व्यापारियों के खिलाफ समुदाय को खड़ा करना, जो साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन के दौरान वहां बस गए थे. एनएससीएन-आईएम के साथ 2001 में मणिपुर में युद्धविराम को बढ़ाने से बड़े पैमाने पर हिंसा को भड़क गई क्योंकि मैतेई के बीच डर बढ़ गया था कि उनका राज्य विभाजित हो जाएगा.
हालांकि भारतीय सैनिकों ने सीमा पार म्यांमार में हमला किया है, लेकिन विशेषज्ञ बिभु राउत्रे के मुताबिक हमलों ने पीएलए या एनएससीएन-खापलांग कोई ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाया. संगठनों ने भारतीय सेना के साथ-साथ ज़ोमी और कुकी विद्रोही समूहों पर हमला करना जारी रखा है. विद्वान सेखोलाल कॉम ने लिखा है कि समूहों के बीच विवाद कानूनी व्यापार से आकर्षक राजस्व को नियंत्रित करने और मोरेह के सीमावर्ती शहर में नशीले पदार्थों की तस्करी को नियंत्रित करने के संघर्षों से प्रेरित है.
लंबे समय से चल रहे सैन्यीकरण ने भी भारतीय सेना के खिलाफ कटु आक्रोश पैदा किया है. 2004 में, 12 महिलाओं ने प्रसिद्ध रूप से इम्फाल के कांगला किले तक मार्च किया, कपड़े उतारे और सैनिकों को बलात्कार करने के लिए कहकर नारे लगाए. विरोध थंगजम मनोरमा के कथित बलात्कार-हत्या के बाद हुआ, जिस पर पीएलए के लिए एक कूरियर के रूप में काम करने का संदेह था.
खंडित राजनीति
सम्मानित बीएसएफ अधिकारी ईएन राममोहन ने लिखा है, जब से मणिपुर में लंबे समय से उग्रवाद शुरू हुआ है, तब से नई दिल्ली ने इस क्षेत्र पर कैश की बौछार करके और उसे ठिकाने लगाने की अनुमति देकर जातीय संभ्रांत लोगों को खरीदने की कोशिश की. वे कहते हैं कि जातीय सशस्त्र समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर जबरन वसूली को भी सहन किया गया था, सरकार ने चुपचाप उन्हें सरकारी कार्यालयों से सीधे वेतन और विकास निधि का एक प्रतिशत एकत्र करने की अनुमति दी थी. इस नीति से कुछ हद तक शांति कायम रही – लेकिन इसने राजनीति को भी भ्रष्ट कर दिया, और संस्थानों को और कमजोर कर दिया.
मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने नए हिंदू राष्ट्रवादी मिथकों का उपयोग करके अपनी पार्टी के लिए वैधता प्राप्त करने की कोशिश की है. 2018 में, बीरेन सिंह ने घोषणा की कि, कृष्ण के समय में, भगवान ने अरुणाचल प्रदेश की राजकुमारी से शादी करके पूर्वोत्तर बनाया था. हालांकि हिंदू भावना के प्रति इस अपील ने भारतीय जनता पार्टी को कुछ जातीय मैतेई लोगों के बीच अपनी पहुंच बनाने में मदद की है, इसने अन्य समूहों के बीच भय पैदा किया है. मुख्यमंत्री के कुकी विरोधी विवाद ने आग को हवा दी है.
पहचान के संघर्ष का समाधान खोजने के लिए वास्तविक लोकतांत्रिक संस्था के निर्माण की आवश्यकता है, जो समुदायों को सार्थक रूप से अपने स्वयं के जीवन पर अधिकार के प्रयोग करने की अनुमति देगा. ऐसा न हो पाने से मणिपुर में सभी को- कूकी, मैतेई, ज़ोमी और नागा- को पीड़ित बना दिया है और भारत के आदर्शों को खतरे में डाल दिया है.
(लेखक दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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