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Sunday, 24 November, 2024
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एनकाउंटर और कस्टडी डेथ से क्यों नहीं रुकेंगे बलात्कार

एनकाउंटर या कस्टोडियल डेथ से देश में अराजकता आएगी, जिसका सबसे ज्यादा शिकार गरीब, कमजोर वर्ग और औरतें ही होंगी. कानून का राज मजबूत करने से ही रुकेंगे बलात्कार

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हैदराबाद में बलात्कार और हत्या के आरोप में पकड़े गए चारों अभियुक्त पुलिस फायरिंग में मारे गए. पुलिस का कहना है कि वे पुलिस का हथियार छीनकर भागने की कोशिश कर रहे थे. आरोपियों ने पुलिस पर पत्थर से हमला किया इस दौरान उन्होंने फायरिंग की. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस घटना का संज्ञान लेते हुए तेलंगाना पुलिस से रिपोर्ट मांगी है. इसके बाद ही घटना की सत्यता का पता चल पाएगा.

कहीं खुशी, कहीं डर

इस घटना की भारतीय समाज में मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई है. कई लोगों ने इस घटना से जुड़े तमाम पहलुओं के सामने आने का इंतजार भी नहीं किया और इस पर खुशियां जताईं. कई लोगों ने इस घटना के लिए तेलंगाना पुलिस को बधाई भी दी. ऐसा करने वालों में सिर्फ वे आम लोग नहीं थे, जो हैदराबाद में पुलिस पर फूल बरसा रहे थे, बल्कि कई सांसदों और प्रमुख नेताओं और मंत्रियों तक ने पुलिस कार्रवाई का स्वागत किया. मायावती ने तो इसका स्वागत करते हुए यूपी में पुलिस का आह्वान तक कर डाला कि वह हैदराबाद पुलिस से प्रेरणा ले.

इस घटना का स्वागत करने वाले ज्यादा लोग इस बात से बेपरवाह हैं कि पुलिस कार्रवाई की क्या वैधानिकता है. इस घटना का स्वागत करने वालों में वे लोग भी हैं जो मानते हैं कि पुलिस ने सोच-समझकर अभियुक्तों को मारा है. यानी उनको अभियुक्तों, जिनका जुर्म अभी साबित होना है, के मरने से मतलब है. वे कैसे मरे इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता. उन्हें न्याय चाहिए और वह भी तुरंत. चाहे इसके लिए कानून टूट भी जाए तो उन्हें इसकी परवाह नहीं है.

कानून राज का अंत

सवाल उठता है कि क्या एनकाउंटर या कस्टोडियल डेथ से बलात्कार रुक जाएंगे?

बलात्कार के खिलाफ बेशक एक माहौल बना है, लेकिन ये समझने की जरूरत है कि बलात्कार आखिरकार कानून और व्यवस्था की समस्या है. कानून का राज अगर मजबूत है, अगर अपराधी पकड़े जाते हैं, उनके मामलों की सही तरीके से जांच होती है और कोर्ट में मामले की पेशी के बाद अदालत अगर दोष सिद्ध होने पर उन्हें सजा देता है, तो ही बलात्कार कम हो सकते हैं या रुक सकते हैं.


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अगर एनकाउंटर को सामाजिक मान्यता मिल जाती है और बलात्कारियों को दंडित करने के लिए इस तरीके का चलन बढ़ता है, तो ये कानून के राज का अंत होगा. ये एक अराजक स्थिति होगी, जिसमें सिर्फ बलात्कार कि लिए नहीं, अन्य अपराधों के लिए भी तुरत-फुरत सजा का चलन शुरू हो जाएगा. फिर जिस पुलिस को हम एनकाउंटर करने का अधिकार देंगे, उससे क्या हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि वह राग, द्वेष, लालच, बदले आदि भावनाओं से काम नहीं करेगी. इस बात की ही क्या गारंटी है कि पुलिस वास्तविक अपराधियों का ही एनकाउंटर करेगी? ये भी तो मुमकिन है कि किसी केस में दबाव पड़ने पर मामला को सुलझाने के नाम पर वह किसी भी निर्दोष को पकड़कर उसका एनकाउंटर कर दे और लोग तालियां बजा दे.

आपको याद होगा कि गुड़गांव के एक पब्लिक स्कूल में दूसरी कक्षा के एक छात्र की हत्या के बाद मीडिया और समाज में हंगामा मचने पर पुलिस ने स्कूल बस के कंडक्टर अशोक कुमार को पकड़ लिया था और उससे अपराध कबूल भी करवा लिया था. लेकिन मारे गए छोटे बच्चे के पिता ने लगातार दबाव बनाए रखा कि असली क़ातिल वह कंडक्टर नहीं बल्कि कोई और है. पीड़ित परिवार के दबाव के बाद केस सीबीआई को गया और असली अभियुक्त पकड़ा गया जो कि उसी स्कूल का सीनियर क्लास का लड़का था जिसका पिता एक वकील है. वकील के बेटे को बचाने के लिए पुलिस ने गरीब कंडक्टर को दबोच लिया, बिना किसी कसूर के. ऐसी पुलिस के हाथ में पिस्तौल देकर को न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती.

आखिर ये कौन तय करेगा कि पुलिस जिनका एनकाउंटर करेगी, वही वास्तविक अपराधी हैं क्योंकि इसके सबूतों पर तो अदालतों को फैसला करने का मौका ही नहीं मिल पाएगा.

पुलिस रिफॉर्म है बड़ा मुद्दा

पुलिस संस्था में जो गड़बड़ियां हैं, उससे सब वाकिफ हैं और पुलिस रिफॉर्म अपने आप में बड़ा मुद्दा है. जो पुलिस खुद अक्सर कई तरह के अपराधों में लिप्त पाई जाती है, उसे मनमाना अधिकार दे देने के जोखिम को समझने की जरूरत है. और फिर पुलिस एनकाउंटर के बाद मॉब लिंचिंग को ही कैसे रोका जा सकता है?

साथ ही, इस तरह की कोई भी अराजकता आखिरकार कमजोर लोगों के खिलाफ काम करती है. जंगल का कानून और अराजकता को खत्म करने के बाद दुनिया लोकतंत्र और कानून के शासन को इसलिए अपनाती है, क्योंकि यहां न्याय मिलने की सबसे ज्यादा संभावना होती है. समाज में जब अराजकता होगी, तो इसका सबसे ज्यादा शिकार औरतें ही होंगी.

दरअसल, मॉब लिंचिंग, कस्टोडियल किंलिंग और एनकाउंटर या भीड़-न्याय एक ही तरह की प्रवृत्तियां हैं. इसके पीछे तो कई बार शुद्ध आपराधिक मानसिकता होती है. लेकिन कई बार न्याय व्यवस्था की सुस्त रफ्तार और अपराधियों के बच जाने की घटनाओं को देखते हुए, अच्छे-भले लोग भी अपराधियों को तुरत-फुरत निपटाने की वकालत करने लगते हैं. ये कुल मिलाकर, न्याय व्यवस्था की कमजोरियों से उपजी हताशा का परिणाम है.

सख्त समीक्षा

भारतीय न्याय व्यवस्था को अपने कामकाज की एक सख्त समीक्षा करनी चाहिए. भारत की अदालतें समय पर न्याय देने में अक्षम साबित हुई हैं. सुप्रीम कोर्ट में ही 50,000 से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. हाई कोर्ट में लंबित मुकदमों की संख्या 50 लाख को छूने वाली है. सारी अदालतों को मिला लें तो पेंडिंग मुकदमों की संख्या 3 करोड़ से ज्यादा है. कई बार मुकदमा करने वाले मर जाते हैं और मुकदमों का फैसला नहीं आता. कई बार ऐसा भी होता है कि फैसला आने से पहले ही लोग बरसों जेल में बिता चुके होते हैं और बाद में पता चलता है कि वे निर्दोष थे.

भारत में दो प्रमुख जगहें ऐसी मानी जाती हैं, जहां कोई आदमी अपनी ठीकठाक हैसियत गंवा कर, गरीब बन सकता है. इसमें पहली जगह अस्पताल और दूसरी जगह अदालतें हैं. न्याय प्रक्रिया की जटिलताएं और अबूझ भाषा की वजह से आम लोगों को ये जगह पेचीदा लगती हैं और इन पर स्वाभाविक रूप से अविश्वास भी होता है कि वहां सिर्फ अमीरों और हैसियत वालों को न्याय मिलता है. इस समय की सबसे बड़ी जरूरत न्यायपालिका में सुधार करने और उन्हें सक्षम बनाने की है, ताकि लोगों को न्याय मिल सके. इसके लिए जजों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है.


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अगर लोगों को ये भरोसा हो कि बलात्कार करने वाले पकड़े जाएंगे और अदालत से उन्हें सजा मिल जाएगी तो न सिर्फ बलात्कारियों के मन में खौफ पैदा होगा, बल्कि लोगों का भी कानून पर विश्वास मजबूत होगा. बलात्कार रोकने का ये तरीका ही कारगर है. एनकाउंटर और कस्टोडियल किलिंग से बलात्कार कम होने की कल्पना करना एक खामख्याली है. इससे बलात्कार कम नहीं होंगे, अराजकता आएगी. इस मामले में भावनाओं से नहीं, सोच-समझकर कोई राय बनाने की जरूरत

भारत में बलात्कार की अलग- अलग घटनाओं की प्रतिक्रिया मीडिया, कानून लागू करने वाली एजेंसी यहां तक की सरकार और नेताओं में अलग-अलग होती है. अगर पीड़िता समाज के कमजोर तबके से हो तो अक्सर मामला उतना बड़ा नहीं बनता. ग्रामीण क्षेत्र के मामलों में भी ऐसा होता है. यानी यह समाज में पीड़ित और अपराधी की हैसियत और सामाजिक स्थिति से भी तय होता है कि किस केस के साथ क्या होगा. ये बात भी बलात्कार की घटनाओं को रोकने में बाधक है.

(लेखिका सोशल मीडिया एक्टिविस्ट है और महिला विषयों की जानकार हैं.यह लेख उनका निजी विचार है)

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