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Saturday, 18 May, 2024
होममत-विमतमुझे शरिया-समर्थक जिहादी कह लें, पर मैं चाहती हूं कि बलात्कारियों को फांसी दी जाए

मुझे शरिया-समर्थक जिहादी कह लें, पर मैं चाहती हूं कि बलात्कारियों को फांसी दी जाए

बलात्कारियों को मृत्युदंड के खिलाफ राय रखने वालों की दलील है कि इस अपराध के अंतर्निहित कारण – स्त्री जाति से घृणा – को लक्षित किया जाना चाहिए. पर 130 करोड़ लोगों के देश में इसकी शुरुआत कहां से हो?

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भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध, खास कर बलात्कार के मामलों में, न्यायिक प्रणाली का एक कानूनी पहलू जो हर बार बहस के केंद्र में रहता है, वो है – मृत्युदंड. क्या बलात्कारियों को फांसी दे दी जानी चाहिए?

भारत में बलात्कार की एक संस्कृति है. इसकी वजह है मर्दों का स्त्री-विरोधी सोच, जोकि खुद को ताकतवर साबित करने के लिए महिलाओं, यहां तक कि बच्चों पर भी प्रभुत्व दिखाना चाहते हैं. दुर्व्यवहारी पुरुषों के प्यार में पागल महिलाओं के लोकप्रिय संस्कृति में चित्रण से इस प्रवृति को बढ़ावा मिलता है. और ऐसे देश में जहां कि सेक्स अभी भी एक वर्जना है, जहां यौन-पिपासु मर्द हिंसक पॉर्न में आनंद पाते हैं, उनकी यौन फंतासियां और यौन आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति भी हिंसक रूप में सामने आती हैं.

पर बलात्कार के मामलों से अविचलित रहने वाले भारतीय समाज – जिसमें न्यायिक व्यवस्था भी शामिल है – को मौजूदा स्थिति में और भी कुछ नहीं सूझता जब अपराध के बाद महिलाओं की हत्या कर दी जाती हो. महिलाओं को बेखौफ निशाना बनाने वाले मर्दों को अब अपने पकड़े जाने को लेकर थोड़ी घबराहट होती है. इसलिए अब वे अब पीड़ितों को क्षत-विक्षत कर देते हैं, नृशंसता से उनकी हत्या कर देते हैं. इसलिए इस बारे में कुछ किया जाना चाहिए.

उन्हें फांसी दो

भले ही मुझे शरिया-समर्थक जिहादी कहा जाए, पर भारत में मृत्युदंड को बलात्कार की समस्या के एकमात्र समाधान के रूप में देखे जाने की जरूरत है. अधिकांश वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता इस पर असहमति जताते हैं क्योंकि मृत्युदंड के प्रभावी निरोधक साबित होने के पक्ष में पर्याप्त डेटा उपलब्ध नहीं है. पर 2013 के बाद भारत में एक असाधारण बदलाव देखने को मिला है.


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निर्भया बलात्कार मामले के बाद 2012 में दिखे जनाक्रोश के बाद भारत सरकार एक सख्त कानून – आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 – लेकर आई, जिसमें बलात्कार की परिभाषा को व्यापक बनाया गया. अब ना सिर्फ योनि में लिंग प्रवेश बल्कि शरीर के किसी भी अंग में जबरन किसी अंग या वस्तु को प्रवेश कराना भी इस अपराध में शामिल था. भले ही इसके लिए सजा की मियाद सात वर्ष ही रहने दी गई, पर नए कानून में सामूहिक बलात्कार के लिए 20 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा की व्यवस्था की गई, और अपराध दोहराने वालों के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया गया.

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लेकिन कानून में कड़े प्रावधानों की व्यवस्था के बावजूद 2013 के बाद बलात्कार के मामले बढ़े हैं. जहां 2012 में बलात्कार के करीब 25,000 मामले दर्ज हुए थे, वहीं 2013 में दर्ज मामलों की संख्या 33,707 थी. जबकि 2016 आते-आते बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या बढ़कर 38,947 हो गई. प्रथमद्रष्टया यही लगता है कि कड़े कानूनी प्रावधानों से बलात्कार के मामलों में कमी नहीं आ सकी. लेकिन आंकड़ों पर सावधानी से गौर करने पर स्पष्ट हो जाता है कि कड़े कानूनी प्रावधानों ने पीड़ित महिलाओं को बलात्कार के मामले दर्ज कराने के लिए प्रोत्साहित करने का काम किया है.

कठोर सजा का प्रभाव यहीं तक है. अधिकतर लोग बलात्कार और संबंधित निरोधक कानूनों को हमलावरों को केंद्र में रखकर देखते हैं, पर हमें पीड़ितों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जोकि अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने को लेकर अब अधिक सशक्त महसूस करती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि दोषियों को कड़ी सजा मिलेगी.

मौत की सजा बच्चों से बलात्कार की घटनाओं को रोकने में भी प्रभावी साबित होगी. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार बच्चों के साथ बलात्कार के दर्ज मामलों में भारी वृद्धि हुई है, जो 2012 के 8,541 से बढ़कर 2016 में 19,765 के स्तर पर पहुंच गया. इस संदर्भ में सरकार ने 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के साथ बलात्कार के लिए मौत की सजा के प्रावधान के वास्ते यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण के कानून (पॉक्सो) में संशोधन का उचित कदम उठाया है.

कानून को सख्ती से लागू करने की जरूरत

भारत में असल समस्या न्याय प्रणाली की है. आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अनुसार बलात्कार के मामलों में फास्ट-ट्रैक कोर्ट में सुनवाई 60 दिनों में भीतर पूरी की जानी चाहिए.

लेकिन दिल्ली स्थित गैर-सरकारी संस्था पार्टनर्स फॉर लॉ इन डेवलेपमेंट और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के एक संयुक्त अध्ययन के अनुसार फास्ट-ट्रैक अदालतों में बलात्कार के मामलों की सुनवाई पूरी होने में औसत आठ महीने लगते हैं. यहां तक कि जनाक्रोश के दवाब में त्वरित सुनवाई के बावजूद निर्भया गैंगरेप मामले को निपटाने में नौ महीने लगे थे. उल्लेखनीय है कि बलात्कार के सारे मामले फास्ट-ट्रैक अदालतों में ही नहीं चलाए जाते हैं.


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वर्ष 2017 के अंत तक बलात्कार के 1.27 लाख मामले अदालतों में लंबित थे और उस साल आरोपियों को सजा मिलने की दर मात्र 32 फीसद रही थी. ये आंकड़े इस बात के सबूत हैं कि सारे बलात्कारियों को सजा नहीं मिल रही है. यदि उन्हें जेल भेजा भी जाता है तो आसानी से जमानत मिल जाती है.

उन्नाव की दिल दहलाने वाली घटना को ही देख लें. गुरुवार को अपने बलात्कार के मामले की सुनवाई के सिलसिले में कोर्ट जा रही एक महिला को पांच हमलावरों ने जिंदा जला दिया. हमलावरों में दो कथित बलात्कारी भी शामिल थे, जिनमें से एक 10 दिन पहले ही जमानत पर छूटकर आया था. बुरी तरह झुलसी महिला ने शुक्रवार रात को दम तोड़ दिया. इसी तरह शुक्रवार को छत्तीसगढ़ में जमानत पर हाल ही में छूटे एक आरोपी ने शिकायतकर्ता महिला पर हमला किया.

130 करोड़ लोगों को शिक्षित करने की जरूरत

मृत्युदंड से असहमति रखने वालों की दलील ये है कि मौत की सजा के प्रावधान से वास्तव में बलात्कार के बाद हत्या किए जाने की आशंका बढ़ जाएगी. हालांकि एनसीआरबी के 2017 के आंकड़ों के मुताबिक हत्या के अपराध की दर जहां 2.2 प्रतिशत थी, वहीं बलात्कार के मामलों का अनुपात 5.2 प्रतिशत था. उल्लेखनीय है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में स्पष्ट कहा गया है कि ‘जो भी हत्या करता है उसे मौत की सजा मिलेगी’, जबकि बलात्कार के अपराध के लिए कानून में मृत्युदंड का प्रावधान नहीं है.

लेकिन नैतिक आधार पर देखें तो बलात्कार जैसे अपराध, जिसमें कि एक मर्द स्त्री के अपने शरीर पर अधिकार का हनन करता है, को मृत्युदंड लायक जघन्य नहीं माना जाना चिंतनीय है. बलात्कारी के लिए सजा निर्धारित किए जाते वक्त शारीरिक चोट के अतिरिक्त मानसिक आघात पर भी शायद ही गौर किया जाता है.

बलात्कारियों को मृत्युदंड के खिलाफ राय रखने वालों की दलील है कि इस अपराध के अंतर्निहित कारण – स्त्री जाति से घृणा – को लक्षित किया जाना चाहिए. पर 130 करोड़ लोगों के देश में इसकी शुरुआत कहां से हो? सभी को हम कैसे समझाएंगे कि बलात्कार एक जघन्य अपराध है?


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लंबे समय तक फिल्मों और लोकप्रिय संस्कृति में स्टाकिंग या लड़कियों के पीछे पड़ने का रूमानी चित्रण किया जाता रहा है. पर आज हम देख रहे हैं कि यह बलात्कार की उसी संस्कृति की सर्वाधिक भद्दी अभिव्यक्तियों में से एक है जिसमें कि मर्दों द्वारा महिलाओं के साथ भावनात्मक या शारीरिक जबरदस्ती को बर्दाश्त किया जाता है.

बलात्कार को हत्या जितना ही जघन्य मानने, और उसके समान कड़ी सजा का प्रावधान करने पर ही हम बलात्कार की पाश्विकता को समझने वाले समाज का निर्माण कर सकते हैं. क्योंकि अभी भारत में बलात्कार को बर्बर और घिनौना अपराध नहीं माना जाता है.

(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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