हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए चुनाव के वोटों की गिनती देखने के लिए आपको गुरुवार की सुबह बर्बाद करने की जरुरत नहीं. नतीजे तो कमोबेश पता ही हैं. हां, अगर आप बिल्कुल अपने पास-पड़ोस में पड़ने वाले वोटों में दिलचस्पी रखने वाले राजनेता हैं, महीन से महीन ब्यौरों पर नजर रखने वाले राजनीति-प्रेमी हैं या फिर आपने चुनाव के नतीजों को लेकर सट्टाबाजार में पैसा लगा रखा है तो फिर बात और है ! ज्यादातर लोगों की दिलचस्पी चुनाव में पड़ने वाले वोटों के महीन ब्यौरों में नहीं बल्कि उनसे उभरती बड़ी तस्वीर में होती है. और, जो बड़ी तस्वीर उभरकर सामने आनी है वह इस चरण के विधान-सभा चुनावों की शुरुआत के वक्त से ही साफ हो चली थी.
एक्जिट पोल और परिणाम
आपके मन में अगर कोई शक-सुब्हा बचा रह गया हो तो उसे एक्जिट पोल ने दूर कर दिया होगा. बेशक, एक एक्जिट पोल से तस्वीर कुछ अलग उभरी है. जिसमें हरियाणा में त्रिशंकु विधानसभा और महाराष्ट्र में एनडीए के बड़े छोटे बहुमत से आगे निकलने के अनुमान लगाये गये हैं. यह बात भी सही है कि चलन से अलग हटकर चुनावी तस्वीर बताने वाले एक्जिट पोल को अपवाद कहकर एकबारगी खारिज नहीं किया जा सकता और फिर एक्जिट पोल करने वाली इस एजेंसी का ट्रैक रिकार्ड भी अच्छा रहा है. लेकिन शेष एक्जिट पोल्स के संकेत हैं कि बीजेपी दोनों ही राज्यों में जीत रही है और उसकी जीत धमाकेदार रहनेवाली है. एक्जिट पोल्स में वोट-शेयर को लेकर जो अनुमान लगाये हैं उसके हिसाब से देखें तो महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन पर 10 फीसद वोटों की बढ़त हासिल है और हरियाणा में बीजेपी को अपने प्रतिद्वन्द्वी पार्टी से 15 फीसद ज्यादा वोट मिलने जा रहे हैं. अगर ऐसा है तो फिर इसे मुकाबला क्योंकर कहना, बीजेपी के लिए मैदान बिल्कुल साफ दिख रहा है. इन चुनावों में मैंने जमीनी तौर पर जो कुछ देखा-परखा है, उसके आधार पर भी मेरे मन में चुनाव-परिणाम को लेकर वैसी ही तस्वीर उभरती है जैसी कि एक्जिट पोल्स से. एक्जिट-पोल्स के आंकड़ों पर नजर रखें तो फिर बीजेपी (और उसकी सहयोगी शिवसेना) को अनुमान के मुताबिक ज्यादातर सीटें मिलने वाली हैं और अनुमान से भी कहीं ज्यादा सीटें मिल जायें तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं.
यह भी पढ़ें: अगर एग्ज़िट पोल बढ़-चढ़कर नहीं बता रहे तो भाजपा के लिए नतीजे और बड़े हो सकते हैं
टीवी देखते हुए गुरुवार की दोपहर बर्बाद करने की भी जरुरत नहीं. टीवी के पर्दे पर एंकर या फिर चुनाव-विश्लेषक जो कुछ कहेंगे, आप उसका अनुमान भली-भांति लगा सकते हैं. वे किसी ना किसी कोने से मनोहर लाल खट्टर में जन-नेता होने के गुण खोज निकालेंगे. बीजेपी-शिवसेना की जोड़ी को आदर्श गठबंधन बताया जायेगा भले ही दोनों बीते पांच सालों में आपस में लड़ते रहे हों. टीवी के विश्लेषक या फिर एंकर आपको बतायेंगे कि फडणवीस ने मराठा-आंदोलन से निपटने में बड़ी सूझ-बूझ का परिचय दिया हालांकि चंद रोज पहले तक इससे एकदम ही उलटी बात कही जा रही थी. जाट-आंदोलन के दौरान खट्टर सरकार भले ही चारो खाने चित्त नजर आयी हो लेकिन अब उसकी इस भंगिमा को सियासी दांव का दर्जा दिया जायेगा. बीजेपी के प्रवक्ता आपसे कहेंगे दोनों प्रांतों की जनता ने हमारे सुशासन पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगायी है और बीजेपी प्रवक्ताओं के ऐसा कहने के बाद यह क्यों सोचना कि महाराष्ट्र से किसान-आत्महत्या की खबरें आये दिन आती रहती हैं और हरियाणा के बारे में तो आंकड़े यह तक बता रहे हैं कि वहां बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा है.
1985 के चुनाव में भी ऐसा हुआ था
अगर आप फुर्सत के कुछ लम्हें निकाल सकें तो फिर तनिक इतिहास पर नजर दौड़ाइए. ये दोनों चुनाव 1985 के विधानसभा चुनावों जैसे हैं जो लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस की मिली भारी जीत के वक्त हुए थे. तब उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस की निहायत ही नाकारा सरकार थी. बिहार ने जगन्नाथ मिश्र के मुख्यमंत्री रहते उनका भ्रष्ट शासन झेला और उसके बाद चंद्रशेखर सिंह मुख्यमंत्री बने जो कामकाज के मामले में अक्षम साबित हुए. उत्तरप्रदेश में वीपी सिंह थोड़े वक्त के लिए मुख्यमंत्री थे फिर कमान श्रीपति मिश्र सरीखे एक अनजान-से नेता के हाथ आयी. इसके बावजूद कांग्रेस को 1985 में भारी-भरकम जीत हासिल हुई. जिस किसी भी ऐरे-गैरे को कांग्रेस का टिकट मिला वो ही चुनाव जीत गया. लेकिन उस चुनाव में मिली जीत को सत्ताधारी कांग्रेस के सुशासन का परिणाम बताना हास्यास्पद होगा. यही बात हरियाणा और महाराष्ट्र में इस बार बीजेपी के लिए कही जा सकती हैं.
जरूरी मुद्दों से भटकता मतदाता
हो सकता है, आप शाम के समय टेलीविजन देखना चाहें और आपकी किस्मत अच्छी हुई तो टीवी के पर्दे पर कुछ राजनीति-विश्लेषक ये कहते मिल जायेंगे कि मतदाता के शासन से नाराज होने का अनिवार्य मतलब यह नहीं होता कि कोई सरकार चुनाव में हार जायेगी और किसी पार्टी के चुनाव जीतने का जरुरी मतलब यह नहीं कि उसने राजकाज अच्छा चलाया है. चुनावी राजनीति में अक्सर एक खेल यह होता है कि लोगों का ध्यान जरुरी मुद्दों से एक हद तक भटका दिया जाता है और उनके वोट किन्हीं और बातों की तरफ फिसल जाते हैं.
यह भी पढ़ें: क्यों मीडिया की ग्राउंड रिपोर्ट, ओपिनियन और एग्ज़िट पोल चुनाव को लेकर एक मत नहीं हैं
भाजपा की चुनावी नतीजों को अलगाने की कोशिश
सत्ताधारी बीजेपी ने लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी से कम से कम तीन स्तरों पर चुनावी नतीजों को अलगाने में कामयाबी हासिल की है.
पहली बात तो यह हुई है कि राज्यों के चुनाव अब राज्य अथवा वहां के स्थानीय मुद्दों के इर्द-गिर्द नहीं हो रहे. सन् 1980 के दशक में लोग-बाग विधानसभा के चुनावों में कुछ इस भांति वोट डालते थे मानो अपने प्रधानमंत्री का चुनाव कर रहे हों. सन् 1990 तथा इस सदी के पहले दशक में यह प्रवृत्ति बदली और गंगा एकदम से उल्टी बह निकली : लोग-बाग अपने प्रधानमंत्री का चुनाव इस भांति करने लगे मानो प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री चुन रहे हों. अब एक बार फिर से हम पुराने ढर्रे पर लौट आये हैं और राष्ट्रीय राजनीति का मुख्य मैदान केंद्र बन चला है. बीजेपी भले ही धारा 370 और राष्ट्रीय नागरिक पंजी को इन दो राज्यों में मुख्य मुद्दा ना बना पायी हो लेकिन बीजेपी को चुनावी होड़ में अतिरिक्त बढ़त राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों के कारण पहले से हासिल थी. छोटा-बड़ा हर चुनाव फिलहाल केंद्र में सत्ता पर काबिज सबसे बड़े नेता में विश्वास की अभिव्यक्ति का माध्यम बन चला है.
दूसरी बात बीजेपी ने इन दोनों राज्यों में बड़ी कामयाबी से सत्ताधारी पार्टी के कामकाज को उसके चुनावी-प्रदर्शन से अलगाया है. लगातार दिखायी दे रहा है कि चुनाव सरकार के किसी खास नीतिगत फैसले या फिर विभिन्न मोर्चे पर उठाये गये उसके कदमों की जांच-परख का नहीं बल्कि लोगों का विश्वास थोक भाव से जीतने और अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रति गहरा अविश्वास कायम करने का अवसर बनते जा रहे हैं. मिसाल के लिए, हरियाणा में खट्टर साहब ने दावा किया कि किसानों ने जो कुछ उपजाया है वह सारा का सारा सरकार ने खरीद लिया है लेकिन उनके इस दावे का उन्हीं की सरकार के हाथों जारी आंकड़ों के आगे टिकना मुश्किल है. लेकिन ना तो बड़ी विपक्षी पार्टियों ने खट्टर साहब के दावे की पोल खोलते हुए उन्हें इसका जिम्मेदार ठहराया और ना ही मीडिया ने.
इस सिलसिले की तीसरी और आखिरी बात यह कि सरकार ने राजनीति को अर्थव्यवस्था से अलगाने में कामयाबी पायी है. गौर करें कि एक ऐसे वक्त में जब हर पर्यवेक्षक कह रहा कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के रुझान हैं ठीक इसी वक्त सत्ताधारी पार्टी का सितारा बुलंदियां चढ़ रहा है. खेतिहर दुनिया में संकट कायम है लेकिन किसान बीजेपी को वोट दे रहे हैं. देश में बेरोजगारी की दर बढ़कर उस ऊंचाई को जा चढ़ी है जहां तक अब से पहले कभी नहीं पहुंची थी लेकिन देश के नौजवान प्रधानमंत्री के पक्ष में खड़े हैं. नजर आ रहा है कि नोटबंदी और जीएसटी की चोट खाये लोग सत्ताधारी पार्टी के सबसे उत्साही समर्थक बनकर उभरे हैं. बीजेपी ने अपने प्रतिपक्षियों को संस्कृति और पहचान के मसलों के अखाड़े में उतरकर मुकाबला करने को मजबूर कर दिया है और ये बात उसके पक्ष में जा रही है. और, मीडिया पर सत्ताधारी पार्टी की पकड़ कुछ ऐसी मजबूत है कि लोगों को उनकी जिंदगी के असली सवालों से भटकाने के मामले में एक पूरा संचार-तंत्र ही बीजेपी के साथ खड़ा नजर आ रहा है.
यह भी पढ़ें: एग्ज़िट पोल: महाराष्ट्र, हरियाणा में भाजपा लहर कायम, कांग्रेस और क्षेत्रीय दल नहीं बचा सकेंगे जमीन
रात में सोने के वक्त, टीवी के पर्दे पर जब समाचारों की सुर्खियां पूरे तेवर में चीख रही होंगी तो हो सकता है आप इस बड़े सवाल पर लेकर उधेड़बुन करना चाहें. अगर हर चुनाव देश के सबसे बड़े नेता को लेकर जनादेश हासिल करने के एक जरिये के रूप में तब्दील हो गया है, तो ये स्थिति देर-सबेर सत्ताधारी पार्टी के लिए घाटे का सौदा साबित नहीं होगी, चाहे सर्वोच्च नेता के लिए नहीं ? अगर सारा श्रेय पार्टी के नेता को जा रहा है तो क्या वो दिन बहुत दूर हैं जब सारे दोष का ठीकरा पार्टी के नेता के सिर पर ही फोड़ा जायेगा ? आखिर नागरिकों को असल और मनगढ़न्त दोनों ही तरह के दुश्मनों का हौव्वा दिखाकर कबतक लगातार उत्तेजना की हालत में रखा जा सकेगा ? आखिर कब तक मतदाताओं के वोट को उनके असली मुद्दे से अलगाया जा सकता है ?
सवालों के इस मुकाम पर पहुंचकर आपको ध्यान आयेगा कि इस बार चुनाव में मतदान के लिए नागरिकों की भीड़ कुछ कम जुटी—हरियाणा में वोट डालने वालों की तादाद 8 फीसद कम हुई तो महाराष्ट्र में 3 फीसद. क्या यह आम नागरिक के भीतर पैठती किसी थकान का संकेत है ?
इन सवालों सोचते-विचारते अगली सुबह तक के लिए नींद में उतरना कहीं ज्यादा बेहतर होगा !
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)