आठ चरणों तक लंबा खिंचा विधानसभा का चुनाव जब अपने आखिरी मुकाम को पहुंचा है तो एक बात साफ दिख रही है: पश्चिम बंगाल की राजनीति हमेशा के लिए बदल चली है और ये बदलाव अपने साथ कहीं ज्यादा बुराई लिए हुए है.
मैं यहां चुनावों के नतीजों की भविष्यवाणी नहीं कर रहा. एक्जिट पोल्स जल्दी ही सामने आयेंगे और हमें अंदाजा हो जायेगा कि चुनावी मुकाबला क्या नतीजे लेकर आ रहा है. चूंकि मुकाबला कांटे का रहा है तो मेरे लिए 2 मई का इंतजार करना ही बेहतर है जब मत पत्रों की असली गिनती शुरू होगी और सचमुच के नतीजे आयेंगे.
यों नतीजे चाहे जो भी रहें यहां मुझे जो बात लिखनी है, उसके लिए पश्चिम बंगाल के चुनाव के नतीजों का अनुमान कुछ खास मायने नहीं रखता. कुछ बुनियादी बातों को मानकर चलने से यहां मेरा मकसद पूरा हो जायेगा. मैं मानकर चल रहा हूं कि पश्चिम बंगाल की विधानसभा के इस चुनाव में मुकाबला सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) तथा भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच था. उम्मीद बेशक थी कि वाम मोर्चा, कांग्रेस तथा इंडियन सेक्युलर फ्रंट के साथ चुनावी टक्कर के मैदान में अपनी वापसी करेगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं. चुनावी मैदान का यह तीसरा मोर्चा मुकाबले में बहुत दूर यानि तीसरे नंबर पर ही रहेगा और बहुत हुआ तो उसे कुल वोटों का 10 फीसदी हासिल होगा.
मैं ये भी मानकर चल रहा हूं कि वोटों के मामले में भी तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच अन्तर उन्नीस-बीस का ही रहने वाला है, भले ही वोटों का ये अन्तर सीटों के मामले में इतना नजदीकी ना नजर आये. लगभग 80 प्रतिशत वोट तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के खाते में जायेंगे. अगर मानकर चलें कि दोनों को 40:40 के अनुपात में वोट मिलते हैं तो फिर मुकाबला एकदम ही कांटे का नजर आने वाला है और हार-जीत के फैसले के लिए मतों की गिनती के एकदम आखिरी वक्त तक हमें दम साधकर बैठे रहना पड़ सकता है. लेकिन वोटों का अनुपात ममता बनर्जी के पक्ष में 42:38 का रहता है तो फिर मीडिया उनके नेतृत्व और प्रशांत किशोर के माइक्रो-मैनेजमेंट का यशोगान सुनाने में लग जायेगा. लेकिन वोटों का यही अनुपात बीजेपी के पक्ष में रहता है तो फिर टीवी स्टूडियो नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के हाथों पश्चिम बंगाल में उठायी गई भगवा लहर में भक्ति भाव से गोते लगाते दिखेंगे.
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नया राजनीतिक समीकरण
अब चुनावी मुकाबले में 2 मई के दिन ऊंट चाहे जिस करवट बैठे, लेकिन एक बात अभी से शीशे की तरफ साफ है कि पश्चिम बंगाल के राजनीतिक आसमान में सियासी हवाओं का रुख बड़े बुनियादी किस्म से बदल चुका है. 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को पश्चिम बंगाल में जो बड़ी जीत हासिल हुई थी वह अकस्मात चमक उठने वाली बिजली की तरह नहीं थी बल्कि उसके पीछे भरपूर आग का दम था. देश के बंटवारे के तुरंत पहले और तुरंत बाद के वक्त में हिन्दू संगठनों की दमदार मौजूदगी के बावजूद पहले जनसंघ और फिर बाद को बीजेपी पश्चिम बंगाल की राजनीति में हाशिए पर ही रहे. 2011 तक तो हालत ये थी कि बीजेपी को पश्चिम बंगाल के विधानसभा में बस 4.1 प्रतिशत वोट हासिल हुए और सीटों के मामले में झोली खाली रही. आगे 2016 के चुनाव में हालत कुछ सुधरी और पार्टी को 10.2 प्रतिशत वोट मिले, हाथ में कुल जमा तीन सीटें आयीं. बीजेपी तब भी हाशिए पर ही थी.
लेकिन 2019 में ये परिदृश्य अचानक बदल गया जब बीजेपी मोदी की लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर तृणमूल कांग्रेस के लिए मुख्य प्रतिद्वंदी बनकर उभरी. बीजेपी को सूबे में लोकसभा की 42 सीटों में से 19 पर जीत हासिल हुई और कुल 40.6 प्रतिशत वोट हाथ आये. अब सवाल ये था कि बीजेपी अपनी इस कामयाबी को इस विधानसभा चुनाव में दोहरा पायेगी या फिर हाशिए पर सरक जायेगी. हमारे पास अभी चुनाव के नतीजे तो नहीं लेकिन इस सवाल का उत्तर अभी से दिया जा सकता है: पश्चिम बंगाल में हिन्दुत्व की राजनीति अब जड़ जमा चुकी है और आगे के वक्तों में जबर्दस्त तरीके कायम रहेगी, सूबे में सियासी होड़ तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच रहेगी जबकि इस वास्तविकता के बारे में चंद साल पहले तक सोच पाना भी मुश्किल था.
नया सामाजिक समीकरण
नया सियासी परिदृश्य अपने साथ नया सामाजिक गठजोड़ भी लेकर आया है. बीजेपी सूबे में हाशिए के इलाके और सामाजिक समूहों में पैठ बनाकर घुसी. पार्टी को शुरुआती कामयाबी उत्तरी बंगाल और पश्चिम के जंगलमहल जैसे पिछड़े इलाकों में मिली. पार्टी ने दलित, आदिवासी, बांग्लादेश से आये हिन्दू आप्रवासी तथा शहरी इलाके के हिन्दी भाषियों को लुभाकर अपना आधार बनाया. 2019 से बीजेपी अपने संपर्क-तंत्र का विस्तार इन वर्गों से आगे भी कर चुकी है. अबकी बार उसने दक्षिण बंगाल के ग्रामीण अंचलों में पैठ बनायी है और बंगाली भद्रलोक में भी अपने लिए जगह बनायी है. हां, ये जरूर है कि जाति की राजनीति को उभारकर, जो सूबे में लंबे समय से दबी हुई थी, बीजेपी ने एक नये तर्ज की अस्मितावादी राजनीति को हवा दी है.
इस राजनीति की धुरी है हिन्दू लामबंदी. अगर बीजेपी का वोट शेयर 40 प्रतिशत के आसपास रहता है तो इसका अर्थ होगा कि उसने सूबे के 70 फीसदी हिन्दू वोट में से दो तिहाई अपने पाले में खींच लिया है. इस चुनावी नव-समीकरण के दीर्घकालिक परिणाम होंगे. चूंकि सूबे में मुस्लिम मतदाता 30 प्रतिशत की तादात में हैं सो बीजेपी हिन्दुओं के बीच लामबंदी को चरम सीमा तक बनाये रखने के लिए उन्हें लगातार चिन्ता की मनोदशा में रखेगी. इंडियन सेक्युलर फ्रंट जैसे मुस्लिम पार्टी के उदय से संकेत मिलता है कि हिन्दू लामबंदी के बरक्स मुसलमानों में भी लामबंदी होगी. इस कोण से देखें तो लगता यही है कि बंगाल 1940 के दशक के अपने घृणित सांप्रदायिक अतीत की तरफ खिसक जायेगा जब वो हिन्दू-मुस्लिम हिंसा का केंद्र हुआ करता था.
धनबल और तंत्रबल का नया खेल
इन तमाम बातों में योग देने के लिए धनबल, बाहुबल और चुनावी तंत्रबल अलग से है. आशंका बड़ी थी कि इस बार का पश्चिम बंगाल का चुनाव पहले की तुलना में बहुत कम मुक्त और निष्पक्ष होगा. ऐसी आशंकाओं में कुछ सच हुई हैं. बंगाल में बाहुबल का प्रयोग कोई नया नहीं है. इसकी जड़ें 1960 के दशक की राजनीति में हैं जब कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच फसाद होते थे और कम्युनिस्ट धड़ों में भी आपस का रगड़ा चला करता था. ये बात किसी से छिपी नहीं है कि वाम मोर्चा की सरकार ने अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ बदस्तूर हिंसा का सहारा लिया. टीएमसी ने इस राजनीतिक विरासत को जोर-शोर से जारी रखा. टीएमसी के बाहुबलियों ने 2018 के पंचायत चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा की और सत्ताधारी पार्टी से लोगों के असंतोष की ये एक बड़ी वजह है. अब बीजेपी भी इसी परिपाटी पर चल रही है, वाम मोर्चा के बहुत से कार्यकर्ता अपनी निष्ठा बदलकर कथित तौर पर उसके पाले में जो आ गये हैं. तृणमूल कांग्रेस के बाहुबलियों से निपटने के मामले में बीजेपी के पास अगर किसी चीज की कमी थी तो वो कमी केंद्रीय सुरक्षा बलों के मार्फत पूरी हो गई है जैसा कि ममता बनर्जी का आरोप है. बंगाल में राजीतिक हिंसा का अध्याय जल्दी खत्म नहीं होने वाला, इसके अगले अध्यायों की कथा सुनने की लिए हमें तैयार रहना होगा.
जहां तक धनबल का सवाल है, सूबे के इतिहास में ये निश्चित ही अब तक का सबसे खर्चीला चुनाव था. ऐसी खबरें तो खैर नहीं आयी हैं कि मतदाताओं को बड़े पैमाने पर पैसा बांटा गया लेकिन धन कई तरीकों से इस चुनाव में पानी की तरह बहाया गया है, जैसा सूबे में पहले कभी नहीं हुआ था : चुनावों से ऐन पहले नेताओं ने अपनी पार्टी छोड़ी, स्थानीय स्तर के बिचौलियों की जेब भरी गई, नये टीवी चैनल खोले गये और बड़े पैमाने पर विज्ञापनबाजी हुई. एक बार कोई चीज शुरू होकर फैलने लगती है तो फिर उसका रुख पीछे मोड़ पाना संभव नहीं हो पाता. ये कहना भी अनुचित ना होगा कि किसी और दफे की तुलना में इस बार चुनाव आयोग का रुख कहीं ज्यादा पक्षपाती था. चुनाव में बड़े पैमाने पर धांधली की शिकायत की खबरें तो नहीं आयी हैं लेकिन चुनाव की तिथियों को तय करने से लेकर कोविड के दिशा-निर्देशों को लागू करने तक में चुनाव आयोग ने केंद्र की सत्ताधारी पार्टी का मददगार होने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी.
इस सिलसिले की आखिर की एक बात ये कि बंगाल के इतिहास में चुनावों का प्रोफेशनल मैनेजमेंट एक नये अध्याय के तौर पर याद किया जायेगा. 2019 के चुनावों में सदमा लगने के बाद ममता बनर्जी ने सियासी रणनीति और प्रबंधन का जिम्मा प्रशांत किशोर की टीम (आइपैक या कह लें टीम पीके) को सौंप दिया. इस टीम ने तृणमूल कांग्रेस की पार्टी संरचना के समानान्तर एक ढांचा खड़ा किया. प्रशांत किशोर की टोली ने नई और लोक-लुभावन नीतियां बनाने, नयी छवि गढ़ने, उम्मीदवारों के चयन में मदद करने, चुनाव-अभियान के नोंक-पलक को दुरुस्त करने और मतदान में मदद की. लेकिन, हम नहीं कह सकते कि इन तमाम चीजों के बूते ममता बनर्जी को सूबे में तीसरी दफे सत्ता मिल ही जायेगी. लेकिन, एक बात दावे के साथ कही जा सकती है कि अब उन पिछले दिनों में लौटना ना हो पाएगा जब राजनेता और पार्टी कार्यकर्ता चुनावी प्रबंधन का जिम्मा संभालते थे.
एक लंबे वक्त तक पश्चिम बंगाल भारतीय राजनीति के रुख और रुझान का अपवाद बना रहा. इस सूबे में दलगत प्रतिस्पर्धा अनूठी हुआ करती थी. चुनाव अभियान में राजनीतिक कार्यकर्ता विचारधारा की भाषा में बोलते थे. चुनाव में धनबल का प्रयोग ज्यादा नहीं था और चुनाव जाति या संप्रदायगत बोल-वचन से परे लड़े जाते थे. शासन तो खैर लचर ही हुआ करता था लेकिन राजनीति की भूमिका मुख्य हुआ करती थी. इस चुनाव ने बंगाल की राजनीति के अनूठेपन को खात्मा कर दिया है. हो सकता है, इस चुनाव के बाद बंगाल सहित पूरे देश में राजनीति अमेरिकी स्टाइल में हो यानि राजनीति सिरे से प्रबंधन (मैनेजमेंट) में बदल जाये.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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