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Friday, 1 November, 2024
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पार्टियां और प्रत्याशी तो नतीजे आने पर जीते-हारेंगे, चुनाव आयोग पहले ही हार गया है!

चुनाव आयोग का मोदी जी का साथ न सिर्फ इस चुनाव की बल्कि भविष्य के चुनावों की निष्पक्षता का भी जो रूप गढ़ेगा, वह कितना कुरूप होगा?

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शुक्रवार की सुबह जब आप ये पंक्तियां पढ़ेंगे, अवगत होंगे कि सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस सांसद सुष्मिता देव की उस याचिका पर सुनवाई 6 मई तक टाल दी है, जो उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह द्वारा आदर्श चुनाव आचार-संहिता के उल्लंघन की विरुद्ध दायर की गई है, जिसकी शिकायतों पर चुनाव आयोग ने एक महीना बीत जाने के बावजूद कार्रवाई नहीं की है. पहले न्यायालय उनकी याचिका पर गत मंगलवार को ही सुनवाई करने वाला था, लेकिन अपरिहार्य कारणों से उसने इसे शुक्रवार तक के लिए टाल दिया है और अब 6 मई की तारीख तय की है. इसके साथ ही उसने चुनाव आयोग से कहा है कि इन दोनों महानुभावों के खिलाफ आचार संहिता उल्लंघन की जितनी भी शिकायतें हैं, उन पर 6 मई से पहले फैसला ले ले.

इस बीच अचानक चुनाव आयोग फिर ‘जाग’ गया है. वैसे ही जैसे गत 16 अप्रैल को जागा था, जब सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे उल्लंघनों के खिलाफ बेबसी का ढोंग रचने के लिए न सिर्फ उससे कैफियत तलब की, बल्कि लताड़ भी लगाई थी. लेकिन उसके दोनों बार के जागने के नतीजों में एक बड़ा फर्क है: पिछली बार जागा तो उसे अपनी शक्तियां याद आ गई थीं और उसने उनका इस्तेमाल कर न सिर्फ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बल्कि बसपा सुप्रीमो मायावती व सपा नेता आजम खां जैसे कई बड़बोले नेताओं की बोलती बंद कर दी थी. लेकिन इस बार उसने प्रधानमंत्री के खिलाफ की गई शिकायतों पर, जिनमें से एक को पहले उसने ‘गायब’ बता डाला था, कोई कार्रवाई करने के बजाय क्लीन चिट देने का रास्ता अपना लिया है. उसके अनुसार प्रधानमंत्री ने आदर्श आचार संहिता अथवा उसको लेकर दिये गये किसी परामर्श का कोई उल्लंघन किया ही नहीं, इसलिए उन पर कार्रवाई का कोई सवाल ही नहीं है.


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गौरतलब है कि इस सिलसिले में प्रधानमंत्री के खिलाफ पहली शिकायत उनके वर्धा में दिए उस भाषण के बाबत थी, जिसमें उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के उत्तर प्रदेश की अमेठी के साथ केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ने के फैसले की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘अब कांग्रेस भी समझ रही है कि देश ने उसे हिन्दुओं को आतंकवादी कहने की सजा देने का मन बना लिया है. इसलिए उसके अध्यक्ष भाग कर वहां शरण लेने के लिए मजबूर हो गए हैं जहां देश का अल्पसंख्यक बहुसंख्या में है.’

दूसरी शिकायत गत 9 अप्रैल को महाराष्ट्र के लातूर के औसा में पहली बार मतदान करने जा रहे युवकों से पूछे गये उनके इस सवाल को लेकर थी कि ‘क्या आपका पहला वोट उन वीर जवानों को समर्पित हो सकता है, जिन्होंने पाकिस्तान के बालाकोट में हवाई हमले किए?’ इसके अतिरिक्त 21 अप्रैल को गुजरात के पाटन में उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान जानता था कि उसने हमारे बन्दी पायलट को नहीं लौटाया तो अगली रात कत्ल की रात हो जाएगी.

राजस्थान के बाड़मेर में उन्होंने न्यूक्लियर बटन वाला अपना अब तक का सबसे गैर जिम्मेदार बयान दिया और पूछा था कि क्या हमने अपने परमाणु बम दीवाली में फोड़ने के लिए बनाये हैं? इतना ही नहीं, पश्चिम बंगाल में उन्होंने खुलेआम तृणमूल कांग्रेस के विधायकों की खरीद-फरोख्त की बात की थी. अपने साक्षात्कारों में भी वे लगातार सेना का जिक्र करते रहे हैं. इन सबके खिलाफ शिकायतें भी चुनाव आयोग को दी गई हैं.


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इनमें दूसरी शिकायत को लेकर लातूर के स्थानीय चुनाव अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में पहली नजर में आयोग के उस आदेश का उल्लंघन हुआ माना था, जिसमें पार्टियों से चुनाव प्रचार के दौरान सशस्त्र बलों का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया था. लेकिन चुनाव आयोग ने उनके नजरिये से अलग हटते हुए प्रधानमंत्री को इस बिना पर ‘बरी’ कर दिया कि उन्होंने युवाओं से अपना पहला वोट बालाकोट हवाई हमले के नायकों को समर्पित करने का आह्वान किया तो उसे अपनी पार्टी या खुद के लिए नहीं मांगा था.

इस दलील की समझदारी पर कौन न बलि-बलि जाये! है कोई पूछने वाला कि जिस मंच से प्रधानमंत्री ने उक्त आह्वान किया, वह सर्वदलीय या कि राष्ट्रीय था क्या? अगर नहीं था और वह भाजपा के लिए वोट मांगने के उद्देश्य से आयोजित सभा का मंच था, तो उसमें प्रधानमंत्री उक्त पहले वोटों का और किसके लिए समर्पित चाहते थे? इस सवाल को थोड़ा और आगे ले जायें तो पूछने का मन होता है कि चुनाव आयोग का इस तरह प्रधानमंत्री के बचाव के वकील का रूप धर लेना हमारे लोकतांत्रिक भविष्य के लिए कितना ‘सुखकर’ होगा?

सोचिये जरा, चुनाव में ‘मोदी जी की सेना’ का शौर्य बखान कर वोट बटोरने की रोके नहीं रुक रही जुगत को ‘मोदी जी का चुनाव आयोग’ का यह साथ न सिर्फ इस चुनाव बल्कि भविष्य के चुनावों की निष्पक्षता का भी जो रूप गढ़ेगा, वह कितना कुरूप होगा? क्या यह संयोग मात्र है कि जैसे ही कांग्रेस सांसद आयोग द्वारा प्रधानमंत्री के विरुद्ध शिकायतों पर कार्रवाई न होने के मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गईं, आयोग ने अपनी कुंभकर्णी नींद तोड़कर उन्हें निपटा दिया. इस तरह कि न रहे बांस और न बजे बांसुरी. अब वह बेहद सुभीते से सर्वोच्च न्यायालय को अवगत करा सकता है कि शिकायतों पर विचार के बाद उसने पाया कि वे झूठी हैं और झूठी शिकायतों पर कार्रवाई नहीं की जाती.

लेकिन प्रधानमंत्री का वायनाड के सिलसिले में अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक या हिन्दू-मुसलमान करना और बालाकोट में सैन्य कार्रवाई के लिए वोट-समर्पण की मांग करना आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है तो एक राजनीतिक दल के पोस्टर में वायुसेना के विंग कमांडर अभिनंदन की तस्वीर के इस्तेमाल का संज्ञान लेते हुए चुनाव आयोग द्वारा गत 19 मार्च को जारी उस परामर्श का क्या अर्थ रह जाता है, जिसमें उसने सभी दलों से अपने चुनाव अभियान में सैनिकों और सैन्य अभियानों की तस्वीर का इस्तेमाल करने से बचने को कहा था?

कुछ अपेक्षाकृत छोटे कद व पद वाले नेताओं-प्रत्याशियों से सख्ती और प्रधानमंत्री से नरमी की राह पर चलकर वह निष्पक्ष चुनाव के लिए उम्मीदवारों व दलों से समान व्यवहार के संवैधानिक तकाजे की जैसी मिट्टी पलीद कर रहा है, वह अपने आप में बहुत चिंतनीय है. एक मामले में तो उसने प्रधानमंत्री के प्रति नरमी का संदेश देने के लिए उनके विमान की तलाशी को लेकर आईएएस चुनाव पर्यवेक्षक को निलम्बित तक कर डाला.

नियमों के अनुसार आचार संहिता उल्लंघन के मामलों के निपटारे और कार्रवाई में आमतौर पर कोई भी अदालत चुनाव आयोग के आड़े नहीं आती. उसकी संहिता कहती है कि कोई भी दल ऐसा काम न करे, जिससे जातियों और धार्मिक या भाषाई समुदायों के बीच मतभेद बढ़े या घृणा फैले. साथ ही, कोई राजनीतिक दल ऐसी कोई भी अपील जारी न करे, जिससे किसी की धार्मिक या जातीय भावनाएं आहत होती हों. लेकिन और तो और, प्रधानमंत्री तक उसके अनुपालन की नजीर पेश करने को तैयार न हों या कि उसका अंकुश न मानते हों, उनके खिलाफ उसके उल्लंघन की एक नहीं अनेक शिकायतें होती हों और आयोग को यह बताने में एक महीना लग जाता हो कि वे सही नहीं हैं, तो यह संदेह करने के लिए और क्या चाहिए कि उसकी दाल में जरूर कुछ काला है?


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अकारण नहीं कि एक विश्लेषक ने इस स्थिति की व्याख्या करते हुए लिखा है, ‘चुनाव आयोग जैसी जिम्मेदार संवैधानिक संस्था की कर्तव्यपरायणता पर सवाल उठे, यह अच्छा नहीं लगता. इसलिए देश के जिम्मेदार नागरिकों को यह मान लेना चाहिए कि चुनाव आयोग ने मोदी जी को दूध-भात जैसी छूट दे रखी है. जैसे बहुत सारे बच्चे मिलकर कोई कठिन खेल खेलते हैं, तो उसमें अक्सर छोटे बच्चों की ‘दूध-भात’ होती है, यानी खेल में वे कोई भी गलती करें, खेल से बाहर नहीं होते. न उन्हें कोई आउट कर सकता है, न दाम देने को कह सकता है. वे हर हाल में खेल का हिस्सा बने रहते हैं.’

याद कीजिए, अभी थोड़े ही अरसा पहले चुनाव आयोग की इतनी साख थी कि वह देश की सबसे बड़ी अदालत से कह रहा था कि उसकी तरह उसे भी मानहानि करने वालों को दंड देने का अधिकार मिलना चाहिए, ताकि राजनीतिक दल व प्रत्याशी उसके फैसलों की नाहक आलोचना न कर सकें. लेकिन अब उसके सत्ता या कि प्रधानमंत्री समर्थक लिजलिजे रुख से कहा जाने लगा है कि इस लोकसभा चुनाव के नतीजे आने पर जो भी पक्ष जीते या हारे, चुनाव आयोग नतीजे आने से पहले ही हार गया है. उसकी जीत तो तब हुई मानी जाती, जब वह चुनावों की निष्पक्षता के नये प्रतिमान बनाता नजर आता. लेकिन अफसोस कि यह निष्पक्षता उसके आचरण से ही गायब हो चली है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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