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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतशिक्षा, उम्मीदें और 3 तरह के बदलाव: बदलते कश्मीर में वोटिंग और उसकी भावनाएं

शिक्षा, उम्मीदें और 3 तरह के बदलाव: बदलते कश्मीर में वोटिंग और उसकी भावनाएं

कश्मीर घाटी में तीन तरह की टूटन साफ दिखती है— युवा लोग उग्रवाद से टूट रहे हैं, पाकिस्तान से जुड़ाव टूट रहा है, और सुरक्षा एजेंसियां लोगों और हथियारों के बीच के रिश्ते को तोड़ने में सफल हुई हैं

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‘राइटिंग्स ऑन द वाल’ (दीवार पर लिखी इबारतें) नामक यह कॉलम वह रूपक है जो पिछले तीन दशकों में मुख्यतः आम चुनाव के दौरान भारत का जायजा लेने के लिए की गई यात्राओं से उभरा है. इसकी यह किस्त इस बार के चुनाव में कश्मीर घाटी की यात्रा पर आधारित है. कश्मीर घाटी जैसे बेहद संवेदनशील, महत्वपूर्ण, और दिलचस्प क्षेत्र में चुनाव का जायजा लेने का यह मेरा पहला अनुभव है.

सबसे पहले तो यह देखना है कि दीवारों पर क्या इबारतें लिखी हैं? इसका मकसद दीवारों पर नजर डाल कर यह पता लगाना है कि क्या कुछ बदल रहा है और क्या नहीं बदला है, लोग क्या चाहते हैं और क्या वे बिल्कुल नहीं चाहते.

दीवारें हमें यह भी बताती हैं कि लोग क्या-क्या खरीद रहे हैं (नीतीश के 2020 के बिहार में ब्रांडेड अंडरवियर), या वे इतने दिवालिया हो गए हैं कि कुछ भी नहीं खरीद सकते (लालू का 2005 का बिहार). यह हमें अर्थव्यवस्था की हालत, और उसमें बदलाव की एक झलक दे देता है. कश्मीर के बारे में बेहतर जानकारी के लिए आप इस सीरीज की पुरानी रिपोर्टे्स यहां पढ़ सकते हैं.

कश्मीर घाटी की तीन लोकसभा सीटों में से दो (श्रीनगर और बारामुला) के लिए मतदान हो चुका है और तीसरी सीट (अनंतनाग-राजौरी) के लिए पिछले शनिवार को वोट डाले गए. इनसे तीन बातें उभरती हैं. या कहा जा सकता है कि तीन तरह की टूटन या अलगाव उभरता है. इनमें से केवल एक का अंदाजा ही आपको दीवारों की इबारतों से लग सकता है, बाकी दो के लिए आपको दीवारों के अंदर कदम रखने पड़ेंगे.

उपरोक्त तीन टूटन या अलगाव ये हैं : पहली टूटन तो यह है कि युवाओं (जिनकी तादाद कश्मीरियों में अच्छी-ख़ासी है) का मन फिलहाल तो उग्रवाद, अलगाववाद, आक्रोश और शिकायत की सियासत से टूट चुका है. लेकिन यह मान लेने का भ्रम मत पाल लीजिएगा कि वह सब खत्म हो चुका है. वह सब वहां मौजूद है और तब बाहर आता है जब युवा आपको इतना भरोसेमंद मान लें कि आपसे खुल कर बात कर सकें. आज उनके लिए पढ़ाई, प्रतियोगिता, रोजगार और केरियर सबसे ऊपर है.

दूसरी टूटन पाकिस्तान से है, जो काफी गौरतलब है. पाकिस्तान के राजनीतिक संकट, आर्थिक पतन, इमरान खान की लोकप्रियता के बावजूद उनकी जेलबंदी, आदि पर लोग खूब बातें करते हैं. इसमें पाकिस्तान की राष्ट्रीय ताकत में भारी गिरावट के साथ ही भारत के उत्कर्ष का भी योगदान है.

और तीसरी टूटन सामरिक और जमीनी स्तर पर आई है, जो लोगों को हथियारों से दूर करने में सुरक्षा एजेंसियों की सफलता की देन है. हर किसी को मालूम है कि घाटी में हथियार भरे पड़े हैं और ऐसे लोगों की संख्या भी बड़ी है जो इन हथियारों के इस्तेमाल की ट्रेनिंग ले चुके हैं और उनके इस्तेमाल की मंशा भी रखते हैं. लेकिन दोनों को जोड़ने वाला तार फिलहाल टूट गया है. जो हथियारों का इस्तेमाल कर सकते हैं उन्हें वे नहीं मिल रहे, या हथियार उन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं.

आप बेशक यह कह सकते हैं कि भारत के अधिकांश भाग में (उत्तर के खासकर पंजाब जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर, जहां इमिग्रेशन/वीसा/आइईएलटीएस का बोलबाला है) दीवारें कोचिंग संस्थानों के होर्डिंग्स और पोस्टरों से भरी होती हैं.

लेकिन मुझे नहीं लगता कि कश्मीर घाटी में ये जिस कदर छाये हुए हैं उतने और कहीं होंगे. एलेन केरियर इंस्टीट्यूट, चाणक्य आइएएस अकादमी, एलीट आइएएस, एमर्ज इंस्टीट्यूट ऑफ कोचिंग, द कमर्सियंस, वेदान्तु, न्यूक्लियस इंस्टीट्यूट ऑफ एक्सेलेंस… आदि-आदि तमाम ब्राण्डों के विज्ञापन दीवारों, पेड़ों, खंभों से लेकर हर उस जगह से लटके मिलेंगे जहां से उन्हें टांगा जा सकता है.

यहां हर कोई यूपीएससी, नीट, जेईई की परीक्षा पास करना चाहता है, जो पूरे देश की युवाओं की भी चाहत है. इन होर्डिंगों में उन अकादमियों के कामयाब छात्रों की तस्वीरें जरूर मिलेंगी. यह पत्थरबाजों के बाद की कश्मीरी पीढ़ी है. ये घाटी के नये भविष्य हैं.

मैंने अपने पुराने मित्र और सहयात्री उदय शंकर को— जी हां, स्टार-डिस्नी वाले, जो अब एक बड़े उद्यमी हैं— मेसेज किया कि मैंने यहां उनकी नयी कोचिंग अकादमी उपक्रम एलेन के इतने होर्डिंग देखे कि मुझे लग रहा है कि इस जगह का नाम एलेन घाटी या एलेनिस्तान ही रख देना चाहिए. उन्होंने बड़े फख्र से मुझे बताया कि बड़ी संख्या में कश्मीरी युवा इन परीक्षाओं को पास करके डॉक्टर, इंजीनियर आदि बन रहे हैं.

अगर आप उग्रवाद और अलगाववाद के बोलबाले के दिनों को ही यादों में फंसे होंगे तो आप इसे भारी बदलाव कह सकते हैं. अगर ऐसा हुआ भी हो तो यह इससे अच्छा बदलाव और क्या होगा? अगर हजारों लड़के-लड़कियां सर्वोत्तम से प्रतिस्पर्द्धा करके देश के बाकी हिस्सों में केरियर बनाने की ख़्वाहिश रखते हैं तो यह ऐसा बदलाव है जो रक्षा बजट में दोगुनी वृद्धि करके या ‘यूएपीए’ से भी तीन गुना सख्त कानून बनाकर भी नहीं लाया जा सकता.

किसी चीज को पूर्व निर्धारित मानकर न चलिए

दीवारें इस बात के ठोस प्रमाण भी देती हैं कि क्या नहीं बदला है, और उसमें निहित तनाव भी नहीं बदला है. श्रीनगर की गुपकर रोड से गुजरिए, जिस पर कश्मीर की शक्तिशाली हस्तियां रहती हैं. इसी रोड के नाम पर उस गठबंधन का नाम ‘गुपकर अलायंस’ रखा गया था, जो घाटी के प्रमुख दलों ने बनाया था.

इस सड़क का हर एक ‘घर’ एक किला है, जिसकी कंक्रीट की मजबूत दीवारें 18 फीट या उससे भी ऊंची हैं. इन दीवारों के ऊपर स्टील की चादरें खड़ी की गई हैं और उनके साथ घुमावदार तार की बाड़ बनाई गई है. यह सब मिलकर दीवार इतनी ऊंची हो जाती है कि जिसके ऊपर से सर्गी बुब्का सरीखे महान पोल वॉल्टर भी छलांग न लगा सकें.

लेकिन, जैसा कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने एक पेड़ के नीचे करीब दो घंटे की बातचीत में बताया, बदलाव इतनी जल्द नहीं आने वाला है.

उन्होंने यह तो माना कि हालात बेहतर हुए हैं, हिंसा नहीं हो रही है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि युवा गुस्से में नहीं हैं. युवाओं को लगता है कि दिल्ली ‘बदले’ की कार्रवाई कर रही है. कई लोग जेलों में बंद हैं, उन्हें दूर के राज्यों की जेलों में भेज दिया गया है.

ताजा तोड़ी गई स्ट्रॉबेरी के साथ अब्दुल्ला ने शांति से मुझे जो पाठ पढ़ाया उसका सार मैं इस रूप में पेश कर सकता हूं— अमन तो ठीक है लेकिन उसका फायदा क्या मिल रहा है? हालात बेहतर हैं, लोग अमन-चैन की तारीफ कर रहे हैं और पाकिस्तान को लेकर सारे भ्रम टूट चुके हैं. लेकिन इस सबको स्थायी मत मान लीजिए.

Fortification outside a bungalow on Gupkar Road | Illustration: Prajna Ghosh | ThePrint
गुपकार रोड पर एक बंगले के बाहर किलेबंदी | चित्रण: प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

अब्दुल्ला जो कुछ कहते हैं उसमें इतिहास का, अपने वालिद साहब के मातहत उन्होंने अपना जो सार्वजनिक जीवन शुरू किया उसके बाद के दशकों में हुई उथलपुथल का जिक्र ज्यादा है.

87 की उम्र छूने जा रहे अब्दुल्ला भारत की सबसे बुजुर्ग, पुरानी (मगर सबसे ऊर्जावान और जोशीली) राजनीतिक हस्तियों में शुमार हैं. उनका यह भावावेश तब उबल पड़ता है जब हमारी बातचीत अनुच्छेद 370 पर पहुंचती है. “वे कहते हैं कि इस अनुच्छेद को रद्द किए जाने के बाद हम कश्मीरी लोग भारतीय हो गए. क्या आप यह कहना चाहते हैं कि इससे पहले हम भारतीय नहीं थे?”

मैं उन्हें यह मनाने की पूरी कोशिश करता हूं कि वे अपने संस्मरणों की किताब पूरी करें, क्योंकि जैसा कि किसी भी पुराने भू-राजनीतिक और भावनात्मक मुद्दे के साथ होता है, अतीत भविष्य का मार्गदर्शन कराता है. हम सबको उनसे बहुत कुछ सीखना चाहिए, सच्चे दिल से. उदाहरण के लिए, 1987 में राजीव गांधी के दौर में हुए चुनाव को अब्दुल्ला के पक्ष में करने के लिए जो गड़बड़ी की गई थी उसका वे खंडन करते हैं. वे कहते हैं, “अगर हमने गड़बड़ी की थी तो अली शाह गिलानी और उनके चार लोग चुनाव कैसे जीत गए थे?”


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कॉमरेड का परचम

कश्मीर के एक और पुराने नेता हैं जो सनसनीखेज संस्मरण लिख सकते हैं, हालांकि वे उस विचारधारा के हैं जिसकी यहां मौजूदगी की कल्पना भी आप नहीं करते होंगे. ये नेता हैं मोहम्मद यूसुफ तारीगामी. माकपा का परचम उन्होंने कई वर्षों तक इस राज्य में फहराए रखा, राज्य विधानसभा के वे चुनाव प्रायः जीतते रहे. वे चर्चा में तब आए थे और एक वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में 1967 में उभरे थे जब वे छह दिन की लड़ाई के बाद फिलिस्तीन के पक्ष में हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए थे.

उनके साथ एक घंटा बिताइए, वे आपको बताएंगे कि उन पर कितने जानलेवा हमले हुए. एक बार एक छोटी रैली में हुए हमले में तो उनके बगल में खड़े नौ लोग मारे गए थे. वे यह भी बताएंगे कि वे कई बार जेल भेजे गए और एक बार तो जेलर ने उन्हें बुलाकर यह कह दिया कि उन्हें पेरोल दिया जा रहा है जबकि उन्होंने इसकी मांग नहीं की थी. पेरोल इसलिए दिया गया था कि उनकी पत्नी पहली संतान को जन्म देने के बाद चल बसी थीं.

बाद में तारीगामी ने दूसरी शादी की लेकिन बाद में उनके श्वसुर की हत्या कर दी गई. लेकिन कभी साहस न खोने वाले कॉमरेड, जो आज 77 साल के हो गए हैं, मानते हैं कि हालात सुधरे हैं, और सबसे अहम बात यह है कि कानून के प्रति सम्मान बहाल हुआ है. वे कहते हैं कि सरकार को आगे बढ़ना चाहिए, वह ‘प्रबंधन’ करने से आगे बढ़कर लोगों को साथ लेकर चलने की कोशिश करे.

साहस क्या चीज है, यह जानना चाहते हैं? यह शारीरिक ही नहीं बल्कि नैतिक और वैचारिक भी होना चाहिए. तारीगामी उस वामपंथी-उदारवादी जमात को दोष देते हैं, जो पूर्व राज्यपाल जगमोहन को कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और तकलीफ़ों के लिए जिम्मेदार बताता था. वे कहते हैं, “मैंने ऐसा कभी नहीं कहा, न कभी कहूंगा. पंडितों को आतंकवादियों ने भगाया.”

वे मारे गए प्रमुख पंडितों के नाम, बड़े जनसंहारों और अत्याचारों की गिनती गिनाते हैं, जिनमें सेशन जज नीलकंठ गंजू का नाम शामिल है जिन्होंने जेकेएलएफ के मक़बूल भट को मौत की सजा सुनाई थी और जिन्हें हम भूल गए हैं.

तारीगामी भी दूसरे प्रमुख नेताओं के बगल में किलेनुमा कोठी में रहते हैं. वे मुझे बड़े उत्साह से वह कहानी सुनाते हैं कि “यह बंगला मुझे कैसे और क्यों दिया गया”. यह कहानी उन पर हुए कई जानलेवा हमलों की है, जिनमें से कई में वे बाल-बाल बचे थे. यह कहानी निरपवाद रूप से उस हर एक शख्स की है, जो कश्मीर में सार्वजनिक जीवन में रहा. इसीलिए उन्हें और ज्यादा श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे डटे रहे हैं, राजनीतिक प्रक्रिया को चालू रखा है, और वे राष्ट्रीय संपत्ति के समान हैं.

सबसे कठिन ज़िम्मेदारी

भारत में सबसे कठिन, सबसे चुनौतीपूर्ण, खतरनाक और नाशुक्र जिम्मेदारी कौन-सी है? इस सवाल का जवाब छोटा-सा है— यह जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल (अब उप-राज्यपाल) का पद है. यहां का राजभवन अविश्वसनीय रूप से खूबसूरत है. इसे भारत की सबसे खूबसूरत जेल भी कहा जा सकता है.

लेकिन यह शक्ति का बड़ा केंद्र है. पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के धोतीधारी नेता मनोज सिन्हा का दिमाग काफी सक्रिय रहता है. बिना किसी निर्वाचित विधानसभा वाले केंद्रशासित क्षेत्र का मुख्य प्रशासक होने के नाते वे शायद देश के सबसे शक्तिशाली अधिकारी हैं. हालात को सुधारने के लिए उन्होंने जो कदम उठाए हैं वे उनकी गिनती करते हैं. इनमें शीर्ष उग्रवादी/अलगावादी नेताओं के करीबी रिश्तेदारों को नौकरी न देना भी शामिल है.

उन्होंने कहा, “अतीत में संकट का निबटारा इसी तरह किया जाता था.” वे बताते हैं कि हड़तालों और पत्थरबाजियों से राहत पाने के लिए अलगाववादियों के परिजनों को किस तरह नौकरी और ठेकों का प्रलोभन दिया जाता था. यह सब अब बंद हुआ है. उनके प्रशासन ने इस तरह नौकरी पाने वालों की खोज की है और उनकी बर्खास्तगी करने के लिए अनुच्छेद 311 का इस्तेमाल किया जा रहा है.

यहां की 1.35 करोड़ आबादी में 4.8 लाख सरकारी नौकरियों की मंजूरी दी गई है. इनके अलावा 1.7 लाख कर्मचारियों को दैनिक स्तर पर सात साल बाद नौकरी पक्की करने के लिखित वादे के साथ नौकरी पर रखा जाता है. यहां गोरखधंधा चल रहा था. लेकिन इसके सिवा लोगों के लिए दूसरे आर्थिक अवसर भी नहीं थे. इसकी तुलना बिहार से कीजिए, जहां 14 करोड़ की आबादी पर 5.17 लाख नौकरियों की मंजूरी दी गई है.

लोग काम करने नहीं आते थे, सुबह-शाम आकर केवल अपनी हाजिरी लागा दिया करते थे. अब सिन्हा ने फोटो पहचान पत्र जारी करवाए हैं और भर्ती पर अंकुश लगाया है. ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी सरकारी ठेके अब ई-टेंडर के जरिए दिए जाते हैं. बिना कागजी कार्रवाई के कोई ठेका मौखिक आदेश से नहीं दिया जाता.

सिन्हा बताते हैं, “मैं जब यहां आया था तब दिग्विजय सिंह ने मुझे फोन किया था कि उनके किसी परिचित ने ठेके का कोई काम किया था लेकिन उसे करीब आठ साल से कोई भुगतान नहीं किया गया है.” इसी तरह की मदद के लिए देवेंद्र फडणवीस ने फोन किया था कि उनके निर्वाचन क्षेत्र के एक आदमी का भुगतान अटका हुआ है.

सिन्हा ने बताया कि उनके अधिकारियों ने कागजात की जांच की मगर ऐसे ठेके दिए जाने या काम किए जाने का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला, सब कुछ हवा में था.

दूसरी जगहों जैसी ‘सामान्य’ स्थिति

सबूत दीवारें भी देती हैं— कश्मीर के राजनीतिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक केंद्र, श्रीनगर के लाल चौक की दीवारें.
लाल चौक से झेलम नदी तक जाने वाली एक पुरानी गली में न्यू मार्केट की एक दुकान पर मुझे ‘ई-टेंडरिंग’ का एक साइनबोर्ड दिखा. दुकान के मालिक ओवैस चार कंप्यूटरों और डिजिटल सिग्नेचर सर्टिफ़िकेट्स (डीएससी) के ढेर के आगे बैठे थे.

वे लोगों को ‘ई-टेंडरिंग’ दर्ज करने में मदद करते हैं. उनके ग्राहकों को उन पर इतना भरोसा है कि उन्होंने अपने डीएससी उनके पास छोड़ रखे हैं. वे बताते हैं कि पहले वे गारमेंट्स का व्यवसाय किया करते थे. वे कहते हैं कि लेकिन आज प्रति ई-टेंडर 200 रुपये की दर से वे गारमेंट्स के मुक़ाबले ज्यादा कमाई कर सकते हैं.

मैं पूछता हूं कि तब पुराने कारोबार का क्या होगा? वे कहते हैं, यही दुकान तब भी थी मगर आज यहां ‘ई-टेंडरिंग’ में मदद करने वाला कारोबार चल रहा है.

सिन्हा सामाजिक बदलाव को भी आगे बढ़ा रहे हैं. वे कहते हैं, पहले जम्मू-कश्मीर को आबकारी से केवल 6 करोड़ रुपये की कमाई होती थी, आज 365 करोड़ की कमाई हो रही है. यह कैसे हुआ? क्योंकि उन्होंने शराब लाइसेंस पर ज़ोर दिया. अब शराब की 14 दुकानें हैं लेकिन वे और ज्यादा दुकानें चाहेंगे. यहां भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह सामान्य स्थिति होनी चाहिए. बेशक बिहार और गुजरात को छोड़कर— इसे आप मेरा कुछ व्यंग्यात्मक मगर सच्चा कटाक्ष मान सकते हैं.

A signboard pointing to a liquor vend | Illustration: Soham Sen | ThePrint
शराब की दुकान की ओर इशारा करता एक साइनबोर्ड | चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

लाल चौक पर सैलानियों की भीड़ है, कोई सेल्फी ले रहा है और कोई ग्रुप फोटो ले रहा है, अर्द्धसैनिक बलों के जवान थोड़े चौंकन्ने होकर तटस्थ रूप से देख रहे हैं. करीब दर्जन भर खाए-पिए कुत्ते आराम फरमा रहे हैं, जैसे इस्तांबुल के लोकप्रिय पर्यटन स्थलों पर बिल्लियों को आराम करते देखा जा सकता है.

लाल चौक पर ऊंचे घंटाघर के सामने खड़े सबसे प्रभावशाली पुराने सनातन धर्म धर्मशाला का इतनी तेजी से पुनर्निर्माण हो रहा है जितनी तेजी से नितिन गडकरी हाइवे बनवा रहे हैं.

Dogs lounging at Lal Chowk in Srinagar | Illustration: Prajna Ghosh | ThePrint
श्रीनगर के लाल चौक पर आराम करते कुत्ते | चित्रण: प्रजना घोष | दिप्रिंट

इसके आसपास घूमकर आप उस इलाके के केंद्र में पहुंच जाते हैं, जो कभी माइसुमा से गावकदल (जहां झेलम की एक सहायक नदी अपनी बड़ी बहन से मिलती है) के बीच विरोध प्रदर्शन के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्र था. गावकदल वह जगह है जहां 21 जनवरी 1990 को भारी जनसंहार हुआ था और 50 से लेकर करीब 100 कश्मीरी प्रदर्शनकारी सीआरपीएफ की गोलीबारी में मारे गए थे. यह वह दौर था जब कश्मीरी पंडितों को खदेड़ा जा रहा था, नयी सेना कार्रवाई कर रही थी और झेलम के किनारे के इलाके सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गए थे.

आज कई लोगों को यह स्वीकार करने में परेशानी होगी, लेकिन सुरक्षा व्यवस्था के कई लोग और भाजपा के पक्ष के भी लोग इसे ‘श्रीनगर में पाकिस्तान’ नाम देंगे. यहां दोनों ओर झरोखों और नक्काशीदार खिड़कियों से सजी लकड़ी की बालकनी वाले पुराने खूबसूरत मकानों के बीच से गुजरती गलियों पर मेरे साथ चलते हुए आप किसी छोटी बेकरी से चाय के साथ ली जाने वाली नमकीन ब्रेड खरीदने लगिए तो लोग आपके पास आकर जमा हो जाएंगे और “आप” मीडिया वालों की बदहाली की बातें करने लगेंगे, और कहेंगे कि जो “थोड़े से सच्चे पत्रकार” बचे हैं उनके लिए काम करना कितना मुश्किल हो गया होगा.

A wooden balcony (jharokha) in Srinagar | Illustration: Soham Sen | ThePrint
श्रीनगर में एक लकड़ी का झरोखा | चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

यह बातचीत अलगाववादी नेता यासीन मलिक के पुश्तैनी मकान के लगभग सामने होती है. मलिक फिलहाल 25 जनवरी 1990 को वायुसेना के चार अधिकारियों की हत्या के मामले में मुकदमे का सामना कर रहे हैं. ऐसी बातचीत लखनऊ, पटना, अमृतसर, कोयंबटूर, हैदराबाद, बेंगलूरू, कोलकाता, कहीं भी हो सकती है, भारत के किसी भी हिस्से में.

घाटी के लिए 77 साल से जारी खूनी दुश्मनी

कश्मीर घाटी काफी छोटा-सा क्षेत्र है— 135 किलोमीटर लंबा और 32 किमी चौड़ा. यह मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बंटा हुआ है— उत्तरी हिस्से में बारामुला से लेकर उरी, गुलमर्ग, सोपोर, कुपवाड़ा, गूरैस आदि हैं. मध्यवर्ती हिस्से में श्रीनगर और उससे जुड़े जिले हैं. और दक्षिण के बड़े हिस्से में अनंतनाग, पुलवामा, और शोपियां शामिल हैं.

शोपियां से पुरानी, जहांगीर काल की मुगल रोड शुरू होती है जो पीर पंजाल पहाड़ों के पार इसी नाम के दर्रे से पुंछ और उसके आगे राजौरी और जम्मू तक तक पहुंचाती है. पुंछ और रजौरी को अब अनंतनाग लोकसभा क्षेत्र (मतदान शनिवार को) में शामिल कर दिया गया है. इस तरह यह अब ‘शुद्ध’ रूप से घाटी की सीट नहीं रह गई है. इसके कुछ पुराने विधानसभा क्षेत्र श्रीनगर, पुलवामा, और शोपियां के कुछ हिस्सों में चले गए हैं.

72 लाख की आबादी के कारण यह काफी सघन आबादी वाला क्षेत्र है. यहां बागानों और धान के खेतों की अंतहीन कतारों के बीच कस्बे और गांव बसे हैं जो आज भी पुरानी पारंपरिक वास्तुशिल्प से जुड़े हैं और यह जुड़ाव नये निर्माणों में भी झलकता है. कश्मीर के गांव भारत में सबसे स्वच्छ गांवों में शुमार हैं.

मैं किसी रिपोर्टर द्वारा अपनाई जाने वाली काफी बदनाम चाल चलते हुए अपने ड्राइवर से सवाल करता हूं कि घाटी में इतना ज्यादा नया कंस्ट्रक्शन और इतनी तरक्की कैसे दिख रही है? इसका स्रोत क्या है? वह कहता है, जो लोग इतने अच्छे-अच्छे मकान बना रहे हैं उन्होंने ‘दोनों’ तरफ से पैसे बनाए हैं.

घाटी में जो कुछ अच्छा दिख रहा है वह यह भी बता रहा है कि उसके साथ इतना गलत क्या हो रहा है. इन दशकों में सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला कारोबार वह रहा है जिसे हम लड़ाई से जुड़ा उद्यम कह सकते हैं. भारत और पाकिस्तान, दोनों की सेनाएं, राजनयिक, और सबसे महत्वपूर्ण खुफिया एजेंसियां घाटी के लिए 77 साल से खूनी लड़ाई लड़ती रही हैं. दोनों मुल्कों ने बेहिसाब नकदी खर्च की है. भारत में नेताओं, व्यवसायियों, और सरकारी अधिकारियों की कई पीढ़ियां उस पैसे को सफाचट करती रही हैं, जो केंद्र सरकार इस मसले के नाम पर लुटाती रही है.

इस लड़ाई से लगभग सभी कश्मीरी नेताओं और उनके वंशजों ने लाभ कमाया है. लेकिन अब्दुल्ला परिवार को छोड़कर किसी ने खुल कर यह नहीं कहा कि वे भारतीय हैं, कि घाटी अगर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रही तो उसका कोई भविष्य नहीं होगा. बाकी सबको दोमुंहेपन में फायदा दिखता है. लेकिन अब उनमें से कुछ का मन बदल रहा है.

काँग्रेस-एनसी, अपनी पार्टी-पीडीपी

भाजपा को कश्मीर में एक नयी राजनीतिक जमात बनाने के लिए पांच साल मिले लेकिन वह विफल रहा. यह नाकामी इतनी तीखी रही कि उसने घाटी की तीन सीटों पर अपने उम्मीदवार तक नहीं खड़े किए. इससे पहले कि आप यह कहें कि ‘काँग्रेस ने भी तो नहीं खड़े किए’, मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा कि उसकी सहयोगी नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) को घाटी की तीनों सीटें दी गई हैं, काँग्रेस जम्मू में दो और लद्दाख की एकमात्र सीट पर लड़ रही है.

केंद्र अगर पंचायत चुनाव करवाने में सफल रहता तो वह एक नयी राजनीतिक जमीन तैयार कर सकता था. लेकिन इसके लिए अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को आरक्षण देने की खातिर कानून बदलना पड़ता और इसके लिए संसद से संवैधानिक संशोधन मंजूर करवाना पड़ता. नयी दिल्ली में इसके लिए किसी के पास समय नहीं था. इसलिए केंद्र सरकार ने इसे ऊपर से थोपने का फैसला किया. उसने पुरानी पार्टियों का मुक़ाबला करने के लिए नयी पार्टियां बनाने की खातिर स्थानीय प्रतिभाओं की तलाश की.

इसका सबूत चाहिए तो गृह मंत्री अमित शाह की इन अपीलों पर गौर कीजिए— ‘एनसी (अब्दुल्ला), पीडीपी (मुफ़्ती) या काँग्रेस को छोड़ आप जिसे चाहें उसे वोट दें’. यानी इसका अर्थ यह हुआ कि अपनी पार्टी को वोट दें, जिसकी स्थापना जबरदस्त सफल उद्यमी, कभी मुफ़्ती घराने के वफादार रहे अल्ताफ़ बुखारी ने की है, जो राज्य में मंत्री भी रहे. बुखारी कृषि विज्ञान में ग्रेजुएट हैं और उनका कहना है कि वे दिल्ली यूनिवर्सिटी के विख्यात एफएमएस से “1980 बैच” के डिप्लोमाधारी हैं.

घाटी में उनका कारोबार है, लेकिन उनकी अधिकांश दौलत कहीं और से आती है, उदाहरण के लिए गुजरात के वलसाड में उनके एग्रो-केमिकल कारखानों से. वे भारत में सबसे बड़े गोंदोले (केबल कार) बनाते और लगाते हैं. देहरादून से मसूरी तक की केबल कार लगाने का उनका प्रोजेक्ट लगभग पूरा हो रहा है. इसके बाद वे ऐसा बड़ा प्रोजेक्ट वाराणसी में लगाने जा रहे हैं, हालांकि उसके जैसा समतल स्थान आपको कहीं भी मिल सकता है. कई बुजुर्ग और युवा कश्मीरी आपको यही बताएंगे कि बुखारी की पार्टी भाजपा का एक मुखौटा ही है.

अनंतनाग के पास ब्रेण्टी बट गांव में चुनाव प्रचार के बीच ब्रेक के दौरान उन्होंने जब हम सबको कमल की डंडियों और पनीर के साथ पकाए गए मांस समेत पूरा कश्मीरी भोजन कराया था, उसी बीच मैंने उनसे पूछा कि “क्या आप भाजपा के करीब हैं? क्या आप दिल्ली के साथ मिलकर काम कर रहे हैं?” जवाब में वे यह सवाल उछालते हैं, “बेशक मैं उसके करीब हूं. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है. अगर आप दिल्ली के साथ मिलकर काम नहीं करेंगे तो क्या इस्लामाबाद के साथ काम करेंगे?”

कश्मीर भी एक आइपीएल है

बुखारी का मानना है कि कश्मीर की त्रासदी यह है कि यहां हर कोई दिल्ली के साथ काम कर रहा है मगर दिखावा यह कर रहा है कि वह दिल्ली के साथ नहीं है. और वे दूसरी तरफ भी नजर बनाए रखते हैं. यह बदलना चाहिए. कश्मीरियों का भविष्य दिल्ली के साथ काम करने और दोहरेपन से मुक्त होने में ही है. क्या बुखारी कामयाब होंगे? वे तो यही कहेंगे कि जीत उनकी होगी. लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें नाकाम होने की भी फिक्र नहीं है.

वे अपने लिए एक नया भविष्य देखते हैं. यह पुराने ढंग के राजा की पार्टी जैसे है. वे सिर्फ यह चाहते हैं कि केंद्र ने जिन लोगों को सजा दी है उन पर मेहरबानी की नजर डाले, उन हजारों लोगों पर, जो लंबे समय से जेलों में बंद हैं, जिनमें से कई लोग दूर के राज्यों की जेलों में हैं. बुखारी कहते हैं कि इन युवाओं के साथ सुलह की जाए. पत्थरबाजी करने वाले या आतंकवाद में शामिल युवाओं में कोई भी 20 साल से ऊपर का नहीं होगा. उन सबके सामने पूरा जीवन पड़ा है. बुखारी अपने कुछ कार्यकर्ताओं से भी मुझे मिलाते हैं जिन्हें हर शाम पुलिस थाने में हाजिरी लगानी पड़ती है क्योंकि 1990 के दशक में उन्हें पत्थरबाजी करते पाया गया था.

ऐसी बातें हमें बुखारी के उतने ही युवा प्रतिद्वंद्वियों से भी सुनने को मिलती हैं, जो बातें करने में उतने ही कुशल हैं. महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी के सदस्य वहीद-उर-रहमान जेलों में बंद युवाओं के साथ सुलहनामे और उन्हें आम माफी देने की मांग करते हैं. महबूबा जब भाजपा के साथ गठबंधन करके मुख्यमंत्री बनी थीं तब वहीद उनके एक प्रमुख सलाहकार थे.

गठबंधन टूटने के बाद पिछले छह वर्षों में से ज्यादा समय वे जेल में बंद रहे. उन पर आतंकवादियों को पैसे से मदद करने के आरोप लगाए गए थे. वे कहते हैं, “हम संविधान को मानते हैं, भारत को मानते हैं. फिर समस्या क्या है? केंद्र हम पर भरोसा क्यों नहीं करता?”

श्रीनगर में एक और नेता हैं सज्जाद लोन. उन्होंने अपने वालिद की पीपुल्स कॉन्फरेंस पार्टी को पुनर्जीवित किया है और बारामुला से चुनाव लड़ रहे हैं. माना जाता है कि दिल्ली उन पर मेहरबान है. उनके वालिद अब्दुल गनी लोन आज प्रतिबंधित और निष्क्रिय हुर्रियत कॉन्फरेंस के संस्थापक और केंद्रीय नेता थे. जाहिर है, उन्हें आइएसआइ के इशारे पर मार डाला गया था.

घाटी में एक आला मौलवी हैं मीरवाइज़ मोहम्मद उमर फारूक़, जो अभी भी एक तरह की नजरबंदी या प्रतिबंध में हैं. मैंने उनसे फोन पर बात की. उन्होंने कहा कि वे तो मुलाक़ात करना पसंद करते मगर इसकी इजाजत नहीं दी जाएगी. मुझे उनके घर जाने की अनुमति नहीं मिलेगी क्योंकि उन्हें केवल करीबी रिश्तेदारों से बात करने की छूट है.

लोन की तरह उनके वालिद भी हुर्रियत के संस्थापकों में शामिल थे और उनकी हत्या भी आइएसआइ के इशारे पर कर दी गई थी. एक समय उन्होंने फारूक़ अब्दुल्ला से हाथ मिलाया था और इस मेल को ‘डबल फारूक़’ नाम से जाना गया था.

आपको हजारों कश्मीर-विशेषज्ञ मिल जाएंगे लेकिन उनमें से कोई जो थोड़ा ईमानदार होगा वही यह स्वीकार करेगा कि कश्मीर की सियासत उसे उलझन में डाल देती है. कल्पना कीजिए कि कश्मीर एक ऐसा आइपीएल है जो 77 साल से जारी है, जिसमें वही खिलाड़ी बार-बार मैदान में उतरते रहे हैं और आप यह भी भूल गए हैं कि कौन कब कहां से आया और कब कहां चला गया. यहां तक कि गूगल का दिमाग भी चकरा गया है.

इस पुराने जमावड़े में एक नया खिलाड़ी शेख अब्दुल राशिद उभरा है, जिसे ‘इंजीनियर राशिद’ के नाम से जाना जाता है. आतंकवादियों को पैसे से मदद करने के आरोप में वे पांच साल जेल में बंद हैं. वे तिहाड़ जेल से बारामुला सीट पर चुनाव लड़ रहे हैं. उनकी सभाओं में सबसे भारी और जोशीली भीड़ जुट रही है. उनकी नामौजूदगी में उनके बेटे अबरार राशिद, जो अभी कॉलेज के छात्र हैं, उनका चुनाव अभियान मसीहाई अंदाज में चला रहे हैं. उनका नारा है— ‘जुल्म का जवाब वोट से’.

पीडीपी की एक सभा में मुझे एक बच्चा दिखा जिसकी टी-शर्ट पर लिखा था— ‘पीस विद डिग्निटी’ (आत्मसम्मान के साथ अमन!). उसने हमारे फोटो एडिटर प्रवीण जैन को विजय चिह्न ‘वी’ का इशारा किया. 1996 के बाद इस बार के चुनाव अभियान में लोगों की जो भीड़ उमड़ रही है वह अभूतपूर्व है.

बारामुला में तो इसने रेकॉर्ड तोड़ दिया. यह हमसे कुछ कहता है. ठीक उसी तरह, जिस तरह अनंतनाग में एक कोचिंग सेंटर का ‘होप अकादमी’ नाम कहता है या बारामुला में एक भीड़ भरे कैफे का ‘कप्पा क्योरिसिटी’ नाम कहता है.

A young PDP supporter | Illustration: Prajna Ghosh | ThePrint
एक युवा पीडीपी समर्थक | चित्रण: प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

यह सब बहुत अच्छा है, या अब तक अच्छा रहा है. लेकिन यह निष्कर्ष मत निकाल लीजिए कि इसका अर्थ यह है कि घाटी में समस्या खत्म हो गई है. यह वहां आए सकारात्मक बदलाव का कुछ ज्यादा बढ़-चढ़कर नतीजा निकालना होगा.

इस चुनाव ने खामोश हुए लोगों को एक नयी आवाज़ दी है, एक खिड़की खोली है, अपना गुस्सा निकालने का एक मौका दिया है, बेशक एक वोट के जरिए ही सही. यह कुंठा से भारी मुक्ति है, और यह प्रक्रिया अभी जारी ही है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
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