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Thursday, 10 October, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टनेटफ्लिक्स की चमकीला और ट्रूडो के कनाडा में क्या समानता है? दोनों ही पंजाब की असलियत से दूर है

नेटफ्लिक्स की चमकीला और ट्रूडो के कनाडा में क्या समानता है? दोनों ही पंजाब की असलियत से दूर है

चमकीला की हत्या से पहले के हफ्तों में हर दूसरे दिन हत्याएं की जा रही थीं. इन सबकी अनदेखी कर देना अगर अपराध नहीं है तो बौद्धिक कायरता है.

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क्रिकेट की भाषा में कहें तो यह आम चुनाव जबकि रोमांचक मोड़ में अपने आखिरी ओवरों में चल रहा है तब किसी ‘ओटीटी’ फिल्म के बारे में कोई क्यों बात करे? भले ही वह (नेटफ्लिक्स पर आई) इम्तियाज़ अली की बहुप्रशंसित फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ ही क्यों न हो?

यह फिल्म 1988 के शुरू के दिनों के पंजाब के बारे में है, जब वहां उग्रवादियों का राज था. यह फिल्म 8 मार्च को ग्रामीण पंजाब के बेहद लोकप्रिय सुपरस्टार अमर सिंह चमकीला की हत्या के साथ खत्म होती है.

हम इस कॉलम में फिल्मों की समीक्षा नहीं लिखते, लेकिन यह फिल्म हमें उस हकीकत से जुड़ने को मजबूर करती है जिसे हम भूल जाना पसंद करते हैं. सच्चाई यह है कि जो लोग असुविधाजनक वास्तविकताओं को भूलना पसंद करते हैं उन्हें उन वास्तविकताओं को फिर से भुगतना पड़ता है.

तो आगे बढ़ते हुए तीन बातें पहले कह दूं —

  • यह फिल्म भी उतनी ही ज्यादा और अनैतिक रूप से उतनी ही दोषपूर्ण है जितनी वे तमाम भारतीय फिल्में होती हैं जो समकालीन दौर के इतिहास पर आधारित होती हैं, संदर्भ से बिलकुल कटी हुईं. फिल्म में 1988 में पंजाब में जारी उग्रवाद का छिटपुट ज़िक्र तो है, लेकिन प्रायः इसकी अनदेखी की गई है.
  • आगे मैं संदर्भ के बारे में विस्तार से बताऊंगा, लेकिन वह हत्या स्वर्ण मंदिर में चलाए गए ‘ऑपरेशन ब्लैक थंडर’ के ठीक दो महीने पहले की गई थी. शुक्रवार, 10 मई 2024 को जब यह कॉलम लिखा जा रहा है, उस ‘ऑपरेशन’ के 36 साल पूरे हो रहे हैं. इसके बाद से कोई आतंकवादी / उग्रवादी / क्रांतिकारी तत्व सिखों के धर्मस्थलों में सबसे महिमामंडित इस धर्मस्थल में घुस नहीं पाया है.
  • तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कनाडा ने हरदीप सिंह निज्जर की कथित हत्या के आरोप में तीन “भारतीय नागरिकों” (सभी पंजाबी और संभवतः सिख) को गिरफ्तार किया, लेकिन इस बीच कनाडा और ज़्यादातर एंग्लो-विश्व से जुड़े देशों के समर्थन से पंजाब में फिर से उसी आग को भड़काने की एकजुट कोशिश की जा रही है. इस कोशिश को कनाडा के प्रधानमंत्री और उसके विपक्ष के नेता ने पिछले सप्ताह वैधता प्रदान करने की कोशिश की जब वे उस सिख धार्मिक आयोजन में शामिल हुए जिसमें अलगाववादी/उग्रवादी नारे लगाए गए और भड़काऊ पोस्टर और चित्र प्रदर्शित किए गए.

यहां स्पष्ट कर दें कि 1981 से 1993 तक के उग्रवाद के दौर में कुछ उग्रवादी नेता भागकर कनाडा और ब्रिटेन पहुंच गए थे, लेकिन तब उन्हें कोई राजनीतिक समर्थन नहीं मिला था और वे पाकिस्तान की ओर मुड़ गए थे, लेकिन आज अलगाववादी नेता केवल और मुख्यतः कनाडा में जमे हैं और उन्हें वहां पूरा राजनीतिक समर्थन मिल रहा है.

1980 वाले दशक के मुकाबले आज एक फर्क यह भी आया है कि ऐसे अभियानों को पंजाब में कोई समर्थन नहीं दिया जा रहा है और सिख धर्मस्थलों पर अमन-चैन है. यह एक सकारात्मक बात है, लेकिन नकारात्मक बात यह है कि पूरी तरह से विदेश में चलाया जाने वाला यह अभियान कनाडा की घरेलू वोट बैंक की राजनीति में उलझ गया है. सबसे घृणित विध्वंसकारी गतिविधि को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर समर्थन दिया जा रहा है. यह इस दृष्टि से भी नकारात्मक है कि भारतीय खुफिया तंत्र को दूसरे देश में जाकर तथाकथित खालिस्तानियों से लड़ने की ज़रूरत पड़ रही है जबकि अपने देश में उनका कोई नामोनिशान नहीं है. ऐसी तमाम चीज़ों का नतीजा अच्छा नहीं होता.

कनाडा का मानना है कि निज्जर के कथित तीन हत्यारे भारतीय ‘एजेंसियों’ के इशारे पर काम कर रहे थे, लेकिन हमें मालूम है कि वे तीनों स्टूडेंट वीज़ा पर कनाडा पहुंचे थे और उन्होंने कभी किसी स्कूल या कॉलेज में पढ़ाई नहीं की. वह माफिया के कच्चे किस्म के शूटर थे. यही नहीं, उनका नाम तीन और उन हत्याओं में भी आया है, जिनके साथ किसी ‘भारतीय एजेंसी’ को नहीं जोड़ा गया है.

हत्याएं और जवाबी हमले आज कनाडा में आम हो गए हैं. भारत के कुछ कुख्यात सशस्त्र माफिया गिरोह कनाडा के इन गिरोहों के जरिए भी अपना काम कर रहे हैं जबकि इन गिरोहों के सरदार जेलों में बंद हैं. उदाहरण के लिए, लॉरेंस बिश्नोई गुजरात की साबरमती जेल में बंद है. पंजाब के माफिया, ‘पॉपुलर कल्चर’ (मुख्यतः म्यूजिक) वाले, ड्रग्स और हथियारों की तस्करी, अवैध प्रवासियों का धंधा आदि करने वाले तत्व इस घातक मिलीभगत में शामिल हैं और उनका पालन-पोषण कनाडा की सुस्त (और मैं तो कहूंगा, इस मिलीभगत में शामिल) व्यवस्था कर रही है.

अब यह सवाल तो कनाडा वालों को उठाना चाहिए कि वे कचरे के समान बहते इन तीन निकम्मों जैसों को भारत के पंजाब से अपने यहां क्यों आयात कर रहे हैं. हमें मालूम है कि हमारे पंजाब में अवैध प्रवासियों को भेजने का बड़ा धंधा चलता है, जिसे लोग ‘कबूतरबाज़ी’ के नाम से जानते हैं.

वैसे, इनके लिए वीज़ा की व्यवस्था कैसे की जाती है? जी-7 और ‘फाइव आइज़’ के देशों की वीज़ा/ सुरक्षा व्यवस्था इतनी छिद्रिल, लापरवाह और भ्रष्ट है कि इतने सारे ‘छात्र’ अंदर आते-जाते रहते हैं. पंजाब से सस्ते में मिलने वाले कामगारों की क्या इतनी मांग है? या किसी एक दल को ज्यादा से ज्यादा वोटों की ज़रूरत है? कनाडा भारत से माफिया को आयात कर रहा है. ये माफिया प्रायः आपस में ही लड़ते रहते हैं. यह लड़ाई अब भारत में भी पहुंच गई है. गायक सिद्धू मूसेवाला की हत्या इसका एक उदाहरण है.


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मूसेवाला की हत्या से भारत इसलिए चौंका क्योंकि वह एक पूरे देश में एक स्टार जैसे थे. 1988 में अमर सिंह चमकीला, जो कि एक दलित थे और जिनका असली नाम धनी राम था, जिन्हें 28 की उम्र में मार दिया गया, एक लोकल स्टार थे. वे कामगार वर्ग से थे और उनके गाने इतने गंवई थे कि उस समय पंजाब में हत्याओं की गिनती करते घूम रहे हम जैसे लोग उनकी लोकप्रियता से तब तक रूबरू नहीं हुए थे जब तक हमारे टैक्सी ड्राइवर अपनी गाड़ी में उनके कैसेट नहीं बजाने लगे.

चमकीला पर बनी फिल्म बताती है कि उनकी हत्या इसलिए की गई क्योंकि ‘किसी’ को उनके गाने अश्लील लगे और उन्होंने उनसे इस तरह के गाने न लिखने को कहा, मगर वे नहीं माने क्योंकि उनके श्रोता ‘असली’ माल चाहते थे. यह सीधी-सी बात है, या फिल्मकार को यह इतना सीधा मामला लगा. यहीं पर संदर्भ छूट गया, लेकिन मेरा मानना है कि जो फिल्म हमारे इतिहास के अहम दौर को लेकर बनाई गई है उसमें संदर्भ को अगर जानबूझकर या सुविधा के लिए छोड़ दिया जाता है तो उसे रचनात्मक स्वतंत्रता नहीं माना जा सकता. यह लगभग अपराध जैसा है. फिल्म में यह संकेत नहीं किया गया है कि चमकीला की हत्या उग्रवादियों/आतंकवादियों ने की. फिल्म ‘आतंकवाद’ शब्द का ज़िक्र तक नहीं करती.

चमकीला के गाने द्विअर्थी शब्दों से भरे होते थे, लेकिन वे गाने, ग्रामीण पंजाब में उस समय या आज जो गंवई गाने सुने जाते हैं उनसे बुरे भी नहीं थे. चमकीला की लोकप्रियता ने उनके प्रतिद्वंद्वियों को, जो मुख्यतः ऊंची जातियों के थे, बहुत परेशान कर दिया था. तो क्या किसी ने उनकी सुपारी दे दी? हमें यह नहीं मालूम. इस मामले में आज तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया. आतंक के उस साम्राज्य में हत्या सबसे सुरक्षित अपराध था.

अगर उनकी हत्या अश्लीलता के लिए की गई तो, उनकी हत्या के सिर्फ दो सप्ताह बाद पंजाबी के सबसे चहेते प्रगतिशील कवि पाश (असली नाम : अवतार सिंह संधु) की हत्या क्यों की गई? उनकी कविताएं समानता और समतावादी क्रांति की बातें करती थीं. उनकी सबसे मशहूर कविता थी — ‘सब तों खतरनाक हुंदा है सपनेयां दा मर जानां’. क्या किसी ने ऐसी कविता के लिए उनकी हत्या की होगी?

वे एक नक्सलवादी रह चुके थे, काफी समय तक जेल में बंद रहे और अपने राज्य में हो रही हिंसा के खिलाफ विदेश में बसे पंजाबियों की अंतरात्मा को जगाने के लिए विदेश यात्रा करके लौटे ही थे. विदेश में वे ‘एंटी-47’ नामक समूह से जुड़ गए थे. ‘47’ ‘एके-47’ से लिया गया था, जिसे पाकिस्तानियों की ओर से खुलकर बांटा जा रहा था. इस हथियार ने उस करीब एक दशक में पंजाब में कम-से-कम 25,000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. पाश की हत्या अगर ‘47’ के बूते मनमानी करने वालों ने नहीं की तो फिर किसने की?

मैं आपको उन सप्ताहों में की गईं सामूहिक हत्याओं की पूरी सूची दे सकता हूं. चमकीला की हत्या से पहले के दो महीने में और उसके बाद करीब 500 लोगों का कत्ल किया गया.

चमकीला की हत्या से पहले के सप्ताहों में हर दूसरे दिन हत्याएं की जा रही थीं. इन सब बातों की अनदेखी कर देना अगर अपराध नहीं है तो बौद्धिक कायरता है. ऐसा लगता है कि बॉलीवुड के आत्मतुष्ट फिल्मकार अब हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि 1988 में पंजाब और सिखों ने जो भी झेला वो किसी बुरे अपराध का नतीजा था. ट्रूडो का कनाडा अपनी इमिग्रेशन व्यवस्था की जांच से निकलकर अपने देश में घुस आए सिख प्रवासी गिरोहों को आज इसी चश्मे से देख रहा है. यह आगे के समय में कई तरह के खतरे पैदा कर सकता है.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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