मंगल ग्रह पर जाने जैसे पलायनवादी उपायों से परे हमें यह समझना चाहिए कि पर्यावरण को लेकर हम ज़रूरी कदम क्यों नहीं उठा सके हैं.
जब भी पृथ्वी के वातावरण की ख़राब स्थिति को लेकर कोई बात सामने आती है तब चेतावनी दी जाती है कि इंसानी हरकतों की वजह से पृथ्वी पर बोझ पड़ रहा है. इसके गंभीर परिणामों के जिक्र के साथ ही चर्चा उठती है कि कैसे हमें अपने रहने के तौर तरीकों में बदलाव करना होगा. नए लक्ष्य भी निर्धारित किए जाते हैं.
सन 1972 में क्लब ऑफ रोम रिपोर्ट से लेकर सन 1992 का रियो सम्मेलन, सन 1997 में क्योटो समझौता और सन 2015 में पेरिस समझौते तक तमाम चेतावनियां जारी की गईं और लक्ष्य भी बार-बार बदल दिए गए. परंतु यह सबकुछ किसी काम का नहीं रहा.
इंसानों के रहने का तौर तरीका जस का तस बना रहा. सन 1990 आते-आते पहली बार ऐसा हुआ कि मनुष्यों के क्रियाकलापों का बोझ पृथ्वी की वहन क्षमता से बाहर हो गया. तब से अब तक हालात और बिगड़ते गए हैं. हमें अब निरंतर अतिरंजित और अप्रत्याशित मौसम का सामना करना पड़ रहा है. अब वैज्ञानिक पहले से कहीं अधिक गंभीर परिणामों की चेतावनी दे रहे हैं.
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इनका सामना करने के लिए और आपातकालीन कदम उठाने के लिए एक दशक से भी कम की समय सीमा तय की जा रही है. जैसे-जैसे मनुष्य का विकास हुआ, पर्यावरण का विनाश होने लगा. जैरेड डायमंड ने सन 1991 में ही अपनी पुस्तक ‘द राइज ऐंड फॉल ऑफ द थर्ड चिंपैंजी’ में लिख दिया था कि विनाश की प्रलयकारी शक्ति उस स्थिति में पहुंच चुकी है जहां उसे रोकना संभव नहीं है.
क्योंकि डीएनए आसानी से नहीं बदलता है. इसलिए हमें यह मान लेना चाहिए कि भविष्य में भी अतीत की कहानी दोहराई जाएगी. यानी बातें तो बड़ी-बड़ी होंगी लेकिन कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा. एक बार फिर धरती के तापमान में होने वाली वृद्धि और उससे जुड़ी त्रासदी का जिक्र होगा. चर्चा होगी कि कैसे इसके चलते खाद्य श्रृंखला में शामिल लाखों जीव-प्रजातियां अप्रत्याशित रूप से नष्ट हो जाएंगी. परंतु वैश्विक त्रासदी से निपटने की तैयारी किस प्रकार की जाए?
शायद यह पता लगाकर कि कौन से क्षेत्र पहले प्रभावित होंगे और बाकी क्षेत्रों की तुलना में जल्दी प्रभावित होंगे? हाल में आयी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यूजीलैंड में अमीर लोग दूसरा या तीसरा मकान खरीद रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि उन्हें शायद दूरदराज में छिपने की जगह मिल जाएगी. परंतु न्यूजीलैंड बहुत छोटा सा देश है जो बहुत अधिक प्रवासी भी नहीं चाहता है. गरीब प्रवासियों को रोकने का सिलसिला हर तरफ चल रहा है. इनमें से अधिकांश पर्यावरण शरणार्थी हैं. भारत भी इस सिलसिले से बाहर नहीं है.
स्पेसएक्स (SpaceX) के सीईओ एलन मस्क बहुग्रहीय जीवन के बारे में सोच रहे हैं और वह मंगल जैसे ग्रहों पर कॉलोनी बसाना चाहते हैं ताकि तीसरे विश्व युद्ध की स्थिति में बचाव संभव हो. हालांकि कुछ लोग कहेंगे कि पर्यावरण के मोर्चे पर पहले ही तीसरे विश्व युद्ध जैसे हालात बन चुके हैं. विपरीत परिस्थितियों में अंतरग्रहीय यात्रा और जीवन कम से कम मनुष्यों के लिए तो उपयुक्त नहीं हो सकते.
ऐसे पलायनवादी उपायों से परे हमें कम से कम यह समझना चाहिए कि आखिर क्यों हम जरूरी कदम नहीं उठा सके हैं. इससे हमें समस्या को ठीक से समझने में मदद मिलेगी. पहली बात, पर्यावरण सम्मेलन व्यापार वार्ताओं की तर्ज पर तैयार किए गए. यानी एक देश की प्रतिबद्धता दूसरे देश की पेशकश से जुड़ी रहती है. यह व्यापार के मामले में भी लागू होता है क्योंकि मुक्त व्यापार में सबका लाभ है. परंतु पर्यावरण की बात करें तो अमीर देश गरीबों की हालत में सुधार के लिए अपनी जीवनशैली बदलने को तैयार नहीं हुए.
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दूसरा, खतरे की चेतावनी सन 2050 या सन 2100 को लेकर दी जा रही थी. ये तारीखें निर्णय लेने वालों के जीवन की परिधि से बाहर थीं. अधिकांश लोगों की चिंताएं कहीं अधिक त्वरित थीं. तीसरा, उठाए गए कदम और हासिल नतीजों में संबंध स्थापित नहीं होता. उदाहरण के लिए पंजाब में अपनी फसल के अवशेष जला रहा किसान दिल्ली की जहरीली हवा के बारे में कुछ नहीं सोचता. स्पष्ट है कि प्रदूषण फैलाने वाला कीमत नहीं चुकाता. चौथा, किफायती इंजन जैसे तकनीकी उपाय कोई हल नहीं हैं क्योंकि ये अंतत: खपत को बढ़ावा देते है.
क्या आर्थिक विचार में बदलाव से हल निकल सकता है? नोबेल समिति ने विलियम नॉर्डहास को सम्मानित करके इस दिशा में प्रयास किया है. दूसरी ओर जीडी अग्रवाल गंगा के लिए अनशन करते हुए अपने प्राण गंवा बैठे. हम प्राकृतिक संपदा का उपयोग तभी तक कर सकते हैं जब तक वह मौजूद होगी. एक दिन अचानक वह समाप्त हो जाएगी. गलत मत समझिए, हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं.