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Monday, 23 December, 2024
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आर्थिक सर्वेक्षण में न्यायालयों में लंबित मुकदमों पर जताई चिंता, नहीं चलेगी तारीख पर तारीख

शीर्ष अदालत में सिर्फ 190 कार्यदिवस ही हैं. जबकि उच्च न्यायालयों में औसतन 232 और अधीनस्थ अदालतों में 244 कार्यदिवस हैं.

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न्यायपालिका की स्थिति में सुधार के लिये प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की पहल और उनके द्वारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे गये पत्र के बीच वर्ष 2018-19 के आर्थिक सर्वेक्षण ने भी अदालतों में लंबित करीब साढ़े तीन करोड़ मुकदमों के तेजी से निबटारे के लिये उच्च न्यायालयों में 93 और निचली अदालत में 2,279 न्यायाधीशों के पदों के सृजन पर जोर दिया है.

तीन करोड़ से अधिक मुकदमें कोर्ट में पड़े हैं लंबित

नेशनल ज्यूडीशियल डाटा ग्रिड के आंकड़ो के अनुसार इस समय अधीनस्थ अदालतों में 3,12, 39,723 मुकदमे लंबित हैं. इनमें 76,11,130 मुकदमे साल से भी ज्यादा पुराने हैं. जबकि 3,86,077 मुकदमे 20 से 30 साल पुराने हैं. इसी तरह, उच्च न्यायालयों में  43, 56, 816 मुकदमे लंबित थे. इनमें 27,35, 632 एक साल से भी ज्यादा समय से लंबित हैं. इनमें 44,358 मुकदमे 30 साल से भी ज्यादा 1,03,307 मुकदमे 20 से 30 साल और 6,84,771 मुकदमे 10 से 20 साल पुराने हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण में जताई चिंता

आर्थिक सर्वेक्षण में न्यायालयों में लंबित मुकदमों की स्थिति पर चिंता व्यक्त की गयी है और साथ ही न्यायपालिका में उत्पादकता बढ़ाने पर भी जोर दिया गया है. न्यायपालिका की उत्पादकता बढ़ाने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में कार्य दिवसों में वृद्धि करने का सुझाव दिया गया है.

इस समय, शीर्ष अदालत में सिर्फ 190 कार्यदिवस ही हैं. जबकि उच्च न्यायालयों में औसतन 232 और अधीनस्थ अदालतों में 244 कार्यदिवस हैं. सर्वेक्षण के अनुसार इसके विपरीत केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के लिये साल में औसतन 244 कार्यदिवस होते हैं.

सर्वेक्षण के इस सुझाव से एकदम स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अवकाशों में कटौती होनी चाहिए. यदि ऐसा होता है कि निश्चित ही शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में लंबित मुकदमों का बोझ कम करने में मदद मिलेगी.

सवाल है कि कौन से अवकाश कम किये जा सकते हैं? उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में होने वाले ग्रीष्मकालीन और शीतकालीन अवकाशों में यह कटौती सहजता से की जा सकती है. इस बिन्दु पर विचार किया जाना चाहिए.


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इस समय देश के उच्च न्यायालयों के लिये न्यायाधीशों के 1079 स्वीकृत पद हैं, जबकि कानून मंत्रालय के न्याय विभाग के अनुसार छह जुलाई को उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 403 पद रिक्त थे. न्यायाधीशों के पद रिक्त होना एक सतत प्रक्रिया है. लेकिन ऐसा लगता है कि रिक्त होने वाले पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया निर्धारित समय सीमा के भीतर शुरू नहीं होती है.

आर्थिक सर्वेक्षण में दिये गये सुझाव के अनुसार अगर उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 93 पद बढ़ा दिये जाये, तो स्वीकृत पदों की संख्या 1172 हो जायेगी लेकिन इस बात की तो कोई गारंटी नहीं है कि पद रिक्त होने से कम से कम छह महीने पहले ही ऐसे पद पर नियुक्ति की प्रक्रिया भी शुरू हो जायेगी. उच्च न्यायालयों में अगर न्यायाधीशों के रिक्त पदों की संख्या न्यूनतम रखनी है, तो इसके लिये उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा इसके लिये छह महीने पहले ही कवायद शुरू करनी होगी.

जहां तक सवाल निचली अदलतों का है तो आर्थिक सर्वेक्षण ने इसमें 2279 पदों को जोड़ने का सुझाव दिया है. अधीनस्थ अदालतों में 2013 में न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की संख्या 19518 थी, जो इस समय 22, 474 हो गयी है. इसके बावजूद इसमें औसतन पांच हजार पद हमेशा ही रिक्त रहते हैं. अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के पद रिक्त होना और बुनियादी सुविधाओं की कमी भी मुकदमों की लंबित संख्या बढ़ाने में अहम भूमिका निभाते हैं. अब यदि निचली अदालतों में 2279 पद जोड़ दिये जाये, तो इनकी संख्या 24753 हो जायेगी. लेकिन साथ ही राज्य सरकारों को अधीनस्थ अदालतों में रिक्त पदों को तेजी से भरने के लिये इच्छा शक्ति का परिचय देना होगा.

अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की नियुक्तियां राज्य सरकार और संबंधित उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आती हैं. इसके बावजूद, निचली अदालतों में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों के पद बड़ी संख्या में रिक्त रहना शीर्ष अदालत और केन्द्र के लिये चिंता का सबब रहे हैं.

अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पद भी हैं बड़ी वजह

शायद यही वजह है कि न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने प्रधान न्यायाधीश का पदभार ग्रहण करते समय कहा था कि निचली अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर प्राथमिकता के आधार पर नियुक्तियां करने के  प्रयास किये जायेंगे. प्रधान न्यायाधीश ने इस संबंध में काफी ठोस कदम उठाये हैं.

इस सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश, ओडीशा, पश्चिम बंगाल और बिहार पर विशेष ध्यान देने पर जोर दिया गया है, लेकिन जहां तक अधीनस्थ अदालतों का संबंध है, तो इस मामले में तो अनेक राज्यों में स्थिति चिंताजनक है.

शीर्ष अदालत ने जब अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों के मामले में विचार शुरू किया, तो पता कि निचली अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है. जहां करीब 1360 पद रिक्त हैं. जबकि मध्य प्रदेश में रिक्त पदों की संख्या 706 और बिहार में 684 है. कमोबेश गुजरात और दिल्ली में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. इनमें न्यायाधीशों के 380 और 281 पद रिक्त हैं.

अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों पर नियुक्तियों के मामले में राज्य सरकारों और उच्च न्यायालयों के ढुलमुल रवैये को देखते हुये अब अधीनस्थ अदालतों में रिक्त न्यायिक पदों पर भर्तियों की कमान उच्चतम न्यायालय ने अपने हाथ में ले ली है. शीर्ष अदालत लगातार राज्य सरकारों और उच्च न्यायालय से अधीनस्थ न्यायपालिका में रिक्त स्थानों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पूरी करने की समय सीमा निर्धारित करने के साथ ही राज्यों के मुख्य सचिवों से प्रगति रिपोर्ट प्राप्त कर रही है.

इस बीच, केरल उच्च न्यायालय द्वारा अधीनस्थ अदालतों में न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के लिये निर्धारित न्यूनतम अंक प्राप्त करने में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के विफल रहने के मद्देनजर शीर्ष अदालत ने इस साल जनवरी में इन वर्गो के लिये न्यूनतम अंक कम करने का सुझाव दिया था.


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चूंकि, राज्यों में अधीनस्थ न्यायपालिका में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गो के लिये आरक्षण की मांग उठती रही है. केन्द्र सरकार केरल में उत्पन्न स्थिति का सहारा लेते हुये अधीनस्थ न्यायपालिका में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा शुरू करने का प्रस्ताव आगे बढ़ाया. ताकि, संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से इसके लिये परीक्षा आयोजित की जा सकें. चूंकि इस तरह की परीक्षा का आयोजन संघ लोक सेवा आयोग के माध्यम से कराने का विचार है. इसलिए आयोग न्यायिक सेवा में अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गो के लिये आरक्षण का पैमाना तैयार कर सकता है.
केन्द्र सरकार का मानना है कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के माध्यम से परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले अभ्यर्थियों को राज्य का काडर दिया जा सकता है और इस तरह से वंचित वर्गो के लोगों को न्यायिक सेवा में समुचित प्रतिनिधित्व मिल सकेगा.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार के प्रथम कार्यकाल में यह सुझाव परवान नहीं चढ़ सका था. लेकिन नयी सरकार में विधि एवं न्याय मंत्रालय का कार्यभार ग्रहण करने के चंद दिन बाद ही 19 जून को कानून मंत्री ने पत्र लिखकर एक बार फिर सभी राज्यों के मुख्य सचिवों और उच्च न्यायालयों से इस बारे में राय मांगी है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायिक सुधारों की दिशा में प्रधान न्यायाधीश द्वारा किये जा रहे प्रयासों के साथ ही आर्थिक सर्वेक्षण में व्यक्त राय के मद्देनजर सरकार उच्च न्यायालयों के साथ ही अधीनस्थ अदालतों में भी न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने पर गंभीरता से विचार करेगी. ताकि अदालतों में लंबित मुकदमों को तेजी से निबटाया जा सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)

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