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शनिवार, 5 जुलाई, 2025
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बिहार में ECI की वोटर जांच मुहिम से दलित, मुसलमान और गरीबों को बाहर करने का डर

आधार, राशन कार्ड, वोटर ID और मनरेगा जॉब कार्ड जिन दस्तावेज़ को गरीब वोटर असल में रखते हैं, उन्हें बिहार में पहचान और निवास साबित करने वाले ECI के दस्तावेज़ की लिस्ट में शामिल ही नहीं किया गया है.

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जैसे 2016 में नरेंद्र मोदी सरकार की ‘नोटबंदी’ से भारत के लाखों छोटे और मध्यम कारोबार बर्बाद हो गए थे, वैसे ही अब चुनाव आयोग की ‘वोटबंदी’ से बिहार के करोड़ों गरीब और हाशिए पर जीने वाले लोगों के वोटिंग अधिकार खत्म होने के कगार पर हैं.

24 जून को चुनाव आयोग ने बिहार में वोटर लिस्ट का विशेष पुनरीक्षण करने का ऐलान किया, जो एक महीने तक चलेगा. इस दौरान 1 जनवरी 2003 तक वोटर लिस्ट में शामिल 3.16 करोड़ वोटरों को दोबारा अपनी जानकारी की पुष्टि करनी होगी. बाकी 4.74 करोड़ वोटर्स (चुनाव आयोग का दावा 2.96 करोड़ है) को पहचान और निवास का सबूत देना होगा, वह भी सिर्फ 11 तय दस्तावेज़ में से किसी एक के ज़रिए — जैसे जन्म प्रमाण पत्र, 10वीं की मार्कशीट, जाति प्रमाण पत्र या निवास प्रमाण पत्र.

खास बात यह है कि इस सूची में वह पहचान पत्र शामिल ही नहीं हैं, जो बिहार के गरीब या ग्रामीण इलाकों के लोग आमतौर पर रखते हैं — जैसे आधार कार्ड, राशन कार्ड, वोटर ID, मनरेगा जॉब कार्ड या ड्राइविंग लाइसेंस.

सरकार के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के मुताबिक, बिहार में 2001 से 2005 के बीच जन्मे सिर्फ 2.8% लोगों के पास जन्म प्रमाण पत्र है. इसके बावजूद, नई उम्र के वोटरों से उनके माता-पिता का जन्म प्रमाण भी मांगा जा रहा है. यह सीधे तौर पर लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है — वह भी उस संस्था की तरफ से, जो लोकतंत्र की रखवाली करने वाली मानी जाती है.

सनद रहे, पिछले साल महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जब कांग्रेस पार्टी ने निष्पक्ष चुनाव को लेकर सवाल उठाए थे, तब चुनाव आयोग ने मशीन से पढ़े जा सकने वाले वोटर रोल देने से इनकार कर दिया था. पारदर्शिता की जगह आयोग ने चुनाव नियमों में संशोधन कर दिया और मतदान केंद्रों के CCTV फुटेज और इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड तक पहुंच सीमित कर दी. अब तो आयोग ने सिर्फ बचाव में रहने की बजाय वोटरों के संवैधानिक अधिकारों पर खुला हमला शुरू कर दिया है.

बिहार में वोटर लिस्ट संशोधन की मार गरीबों पर

बिहार में चुनाव से ठीक पहले शुरू हुआ यह वोटर लिस्ट संशोधन अभियान विपक्ष से एक बार भी सलाह लिए बिना शुरू कर दिया गया. खुद चुनाव आयोग ने 2 जुलाई को विपक्षी नेताओं को बताया कि वह वोटर लिस्ट से करीब 20% वोटरों के नाम हटाने की तैयारी कर रहा है. चुनाव से पहले 1.6 करोड़ वोटरों को लिस्ट से हटाना सीधा लोकतंत्र पर हमला है.

इस पूरे विवादित अभियान के कुछ बुनियादी तथ्य देखिए:

  • चुनाव आयोग 7.89 करोड़ वोटरों की जांच सिर्फ एक महीने (26 जुलाई तक) में पूरी करना चाहता है. यह न सिर्फ बेहद मुश्किल, बल्कि असंभव है. खासतौर पर तब, जब बिहार में अगले चुनाव की घोषणा तीन महीने के भीतर होने की संभावना है. ऐसे में अगर किसी वोटर का नाम गलत तरीके से हटाया गया, तो उसे कानूनी कार्रवाई या अपील करने का मौका ही नहीं मिलेगा.
  • बिहार के लाखों मजदूर हर साल गर्मी के महीनों में पंजाब, हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के खेतों में मजदूरी करने जाते हैं. अब उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह इस अचानक शुरू किए गए सत्यापन अभियान में हिस्सा लेने बिहार लौटें?
  • उत्तर बिहार में इस समय भारी बारिश और बाढ़ का खतरा है, जो कई इलाकों में शुरू भी हो चुकी है. ऐसे में क्या यह संभव है कि जिनके घर और खेत पानी में डूब रहे हैं, उनसे वोटर लिस्ट के लिए दस्तावेज़ मांगे जाएं?
  • यह फैसला बिल्कुल गरीबों को मतदान से बाहर रखने के लिए ही लिया गया लगता है. बिहार में इसका सीधा असर दलितों, अति-पिछड़े वर्गों और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर पड़ेगा. इसे संयोग नहीं माना जा सकता कि इसका सबसे बड़ा फायदा बीजेपी को ही मिलेगा, भले ही उसकी कुछ सहयोगी पार्टियां इससे असहज हों.

अब ज़रा 2003 के वोटर लिस्ट संशोधन से तुलना करिए—तब यह प्रक्रिया लोकसभा चुनाव से एक साल पहले और विधानसभा चुनाव से पूरे दो साल पहले हुई थी. तब लोगों को दस्तावेज़ जुटाने और कानूनी रास्ता अपनाने का पूरा समय मिला था, लेकिन इस बार यह सबकुछ बेहद तेज़ी से, चुनाव से महज़ दो महीने पहले किया जा रहा है — जिसका साफ मकसद यह है कि जिनके नाम हटाए जाएंगे, उन्हें कोई मौका ही न मिले.


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बिहार में NRC वाला असम मॉडल लागू करने की तैयारी

यह कोई संयोग नहीं है कि बिहार में यह वोटर लिस्ट अभियान ठीक उसी वक्त शुरू किया गया है, जब गृह मंत्री अमित शाह अपनी भाषाओं में कथित अवैध घुसपैठियों के खिलाफ सख्त रुख दिखा रहे हैं. असल में चुनाव आयोग ने जब सबसे पहले यह अभियान शुरू करने का ऐलान किया था, तब उसने कहा था कि “विदेशी अवैध घुसपैठियों के नामों को हटाना” इस प्रक्रिया का मुख्य मकसद है. बाद में दबे तरीके से यह बात उनके बयानों से हटा दी गई, लेकिन असलियत यह है कि बीजेपी, दुनियाभर के दक्षिणपंथी नेताओं की तरह, इस पुरानी रणनीति को फिर से आज़मा रही है — ताकि बिहार और असम जैसे राज्यों में उसके खिलाफ बढ़ रहे गुस्से और भ्रष्टाचार के आरोपों से ध्यान भटकाया जा सके.

ज़रा असम का उदाहरण देखिए — वहां दशकों से बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा गरमाया हुआ है. 2019 में बने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (NRC) से 19 लाख लोगों के नाम हटा दिए गए थे, जबकि असम सरकार पहले 50 लाख अवैध घुसपैठियों का दावा करती थी. इसके बावजूद, अब तक अदालतें और ट्रिब्यूनल मिलकर सिर्फ 30,000 लोगों को ही विदेशी घोषित कर पाए हैं. इनमे से भी केवल कुछ सौ लोगों को ही बांग्लादेश भेजा जा सका है.

यह साफ दिखाता है कि असली अवैध घुसपैठिए बेहद कम हैं — अधिकतर वे गरीब और असाक्षर लोग हैं जो इस पूरे NRC जाल में फंस गए. जब असम जैसे राज्य में ऐसा हुआ, तो फिर बिहार में, जहां अवैध घुसपैठ की समस्या असम से कहीं कम है, हालात अलग क्यों होंगे?

सच्चाई यह है कि वोट देने का अधिकार गरीबों और वंचितों के पास इकलौता हथियार है. एक ऐसी समाज व्यवस्था में, जहां ऊंची जातियां और अमीर लोग राजनीति और नीतियों पर दबदबा रखते हैं, वहां गरीबों और हाशिए के लोगों के पास हर पांच साल में सिर्फ एक मौका होता है — ऐसी सरकार चुनने का, जो शायद उनके लिए बेहतर भविष्य ला सके.

चुनाव आयोग को संविधान ने इसलिए खास दर्जा दिया है, ताकि वह इस अधिकार की रक्षा करे. अगर इस वक्त आयोग में बैठे लोग इस जिम्मेदारी से मुंह मोड़ते हैं, तो इतिहास उन्हें कभी माफ नहीं करेगा.

(लेखक अमिताभ दुबे कांग्रेस के सदस्य है. व्यक्त विचार निजी हैं. उनका एक्स हैंडल @dubeyamitabh है.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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