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Wednesday, 20 November, 2024
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आत्मबोधानंद और सरकार दोनों चाहते हैं कि बहती रहे गंगा, फिर क्यों जान दे रहे हैं संत

आत्मबोधानंद 27 साल के एक युवा ‘विकास विरोधी संत’ है. वे कंप्युटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके हैं और पिछले कई सालों से हरिद्वार के मातृ सदन में रह रहे हैं.

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विकसित गंगा मतलब ऐसी गंगा जो सिंचाई के लिए ज्यादा पानी उपलब्ध करवा सके, भरपूर बिजली पैदा कर सके, लाइट एंड साउंड प्रोग्राम से नदी की रातें रोशनी में नहाई हुई हों और उसकी धारा पर तैरते क्रूज रेस्टोरेंट लोगों की पंसद का खान-पान परोस सकें, ऐसी गंगा जो बड़े जहाजों के लिए आवागमन का रास्ता बने, जो नए भारत के निर्माण के लिए रेत पैदा कर सके, हजारों, लाखों और करोड़ो टन कभी खत्म ना होने वाली रेत. विकसित गंगा यानी जहां मछलियों की खेती संभव हो सके, ताकि पूरे साल मछलियां बाजार में उपलब्ध हो ठीक वैसे ही जैसे ऑल वेदर रोड से पूरे साल तीर्थ संभव हो जाए.

ऊपर लिखी सभी बातों से आत्मबोधानंद को प्राब्लम है. उनकी समस्या क्यों और क्या है इस पर बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि आत्मबोधानंद कौन है.

आत्मबोधानंद 27 साल के एक युवा ‘विकास विरोधी संत’ है. वे कंप्युटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके हैं और पिछले कई सालों से हरिद्वार के मातृ सदन में रह रहे हैं.


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 मांगे हैं विकास विरोधी 

वे अपनी गंगा की अविरलता और निर्मलता के मुद्दे पर अनशन कर रहे हैं. आत्मबोधानंद का नाम चर्चा में तब आया जब प्रोफेसर जीडी अग्रवाल गंगा के लिए अनशन करते हुए स्वर्ग सिधार गए. अग्रवाल के जाने के बाद आत्मबोधानंद ने उनकी मांगों को सामने रखकर अनशन शुरु कर दिया. जीडी अग्रवाल की चार मांगे भी विकास विरोधी ही थी –

1. संसद गंगा जी के लिये एक एक्ट पास करे. इसका ड्राफ्ट जस्टिस गिरिधर मालवीय की देखरेख में बनाया गया था.
2. अलकनन्दा, धौलीगंगा, नन्दाकिनी, पिण्डर तथा मन्दाकिनी पर सभी निर्माणाधीन/प्रस्तावित जलविद्युत परियोजना तुरन्त निरस्त करना. (बन चुके बांधों को तोड़ने के लिए उन्होंने नहीं कहा)
3. गंगा तट पर जंगल काटने और रेत खनन पर रोक लगाई जाए, इसके लिए नियम तय किए जाए, विशेष रुप से हरिद्वार कुंभ क्षेत्र में.

4. एक गंगा-भक्त परिषद बनाई जाए जिसमें समाज और सरकार से जुड़े सदस्य शामिल हों. गंगा से जुड़े सभी विषयों पर इसका मत निर्णायक माना जाए.

अब इन चार मांगों में आत्मबोधानंद ने अपनी एक मांग और जोड़ दी कि हरिद्वार के कलेक्टर और एसएसपी को निलंबित किया जाए. यह मांग दिखने में स्थानीय या व्यक्तिगत लगती हैं लेकिन उसकी गहराई में जाइए तो किसी वेब सीरिज का एक एपीसोड तो बन ही जाएगा. बानगी देखिए- मातृ सदन प्रमुख स्वामी शिवानंद को पुलिस सुरक्षा मिली हुई थी, 25 फरवरी 2020 यानी लॉक डाउन के ठीक पहले हरिद्वार में ‘जीवन भय आकलन समिति’ की बैठक हुई, समिति ने हरिद्वार के थाने की रिपोर्ट के आधार पर फैसला लिया कि शिवानंद को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है और उनकी सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मी को हटा लिया गया. तीन सदस्यीय समिति में कलेक्टर और एसएसपी शामिल होते हैं.

अब मातृसदन ने आरटीआई लगाकर उस रिपोर्ट की कॉपी मांगी जिसके आधार पर यह निर्णय हुआ, चूंकि सरकार का हर निर्णय निहायत गोपनीय होता है, इसलिए कई अपीलों के बाद थाने को मजबूरन वह कॉपी शिवानंद को देनी पड़ी जिसमें लिखा था कि उनकी जान को कोई खतरा नहीं है. बस भोले भाले पुलिसवालों से गलती यह हो गई कि वे रिपोर्ट की तारीख नहीं बदल पाए. उस रिपोर्ट पर 2 मार्च 2020 की तारीख थी. यानी 2 मार्च 2020 को पेश हुई रिपोर्ट के आधार पर एक हफ्ता पहले 25 फरवरी 2020 को फैसला लिया गया.

चौड़े सीने की सरकार ने विकास विरोधी संत से बात करने से इंकार कर दिया जिसके जवाब में आत्मबोधानंद ने जल त्याग दिया, फिर सरकार ने चौड़े सीने का बड़ा दिल दिखाते हुए उन्हे जबरदस्ती अस्पताल में भर्ती कर दिया और ग्लूकोज चढ़ा दिया. जिद्दी संत की तपस्या अस्पताल में जारी है.


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चार मांगें और गंगा दिशाहीनता 

आत्मबोधानंद चाहते है कि गंगा भारतीय संस्कृति की तरह बहती रहे और सरकार चाहती है कि गंगा दिशाहीन होकर ना बहे यानी जहां जरूरत हो वहां रूक जाए थोड़ा विकास कार्य करती चले. बस थोड़ा नजरिए का फर्क है.

एक नजर उन कारणों पर डाल लीजिए कि आखिर क्यों जीडी अग्रवाल के समय से चली आ रही मांगें न्यायसंगत नहीं है और सरकार क्यों उन्हे नहीं मानती.

पहली है गंगा एक्ट – सरकार भी गंगा एक्ट पास कराना चाहती है लेकिन आंदोलनकारियों के ड्राफ्ट और सरकारी ड्राफ्ट में फर्क है. सिविल सोसाइटी का ड्राफ्ट कहता है कि हर हाल में गंगा की निर्मलता और अविरलता सुनिश्चित होनी चाहिए सरकारी ड्राफ्ट भी ऐसा ही कुछ चाहता बस पूर्व अनुमति प्राप्त फैक्ट्रियां ट्रीटेड सीवेज डाल सकती हैं. वैसे भी गंगा एक्ट पास करने का मतलब है कानून बन जाना और कानून बन जाने से गंगा किनारे चल रहे खनन, अवैध निर्माण, नाला डालना जैसी गतिविधियां गैरकानूनी हो जाएगी जिससे स्थानीय प्रशासन पर दवाब पड़ेगा. इसलिए सबके हित में यही है कि गंगा एक्ट पास ना हो और प्रधानमंत्री स्वयं समय – समय पर गंगा हित में बड़े निर्णय लेते रहें.

दूसरी मांग है, सभी निर्माणाधीन और प्रस्तावित परियोजना को निरस्त करना – यह समझने की बात है कि पिछले छह साल से सरकार ने किसी भी नई परियोजना को अनुमति नहीं दी है (आंदोलन के दवाब में)और निर्माणाधीन योजनाओं को गंगा खुद ही निपटा रही है जैसे हाल ही में चमोली की ऋषि गंगा और तपोवन विष्णुगाड परियोजना को गंगा ने सलीके से हटा दिया, मोटे तौर पर यह मांग गंगा खुद ही पूरा कर रही है. वैसे भी मुख्यमंत्री रहने के दौरान हर मीटिंग में त्रिवेंद्र सिंह रावत उत्तराखंड के साथ अन्याय पर त्राहीमाम करते थे, हिमालय खोदना उनका मूलाधिकार था, उनका शुक्रगुजार होना चाहिए कि इतने लांक्षन लगने के बाद भी उन्होने मातृ सदन को नहीं खोद दिया.

तीसरी बचकाना मांग है कि जंगल काटने और खनन पर रोक लगाई जाए – अब यदि जंगल ही नहीं कटेगें तो हिमालय में विकास कार्य के लिए जगह कहां से आएगी, पहाड़ों पर जमीन वैसे ही कम होती है. गंगा किनारे बसे लोग यदि रेत बाहर से खरीदेंगे तो उसकी कीमत बहुत ज्यादा हो जाएगी बेहतर यही है कि खनन तेज हो जिससे नया निर्माण संभव हो और देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान हो.

पूर्व मुख्यमंत्री रावत को खनन व्यवसाय काफी पसंद था. वैसे पिछले साल एनएमसीजी ने रायवाला से भोगपुर के बीच खनन पर रोक के लिए आदेश जारी किया था और संबंधित ऐजेंसियों को पत्र भी लिखा था लेकिन जिस देश में राज्य सभा में दिया गया आश्वासन टूट जाता है वहां एक प्रशासनिक आदेश की क्या बिसात. हरिद्वार के अजीतपुर एरिया में हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद खनन जारी है.

अंतिम और चौथी मांग को राष्ट्रविरोधी ही घोषित कर देना चाहिए. इस देश में एक ही भक्त परिषद हो सकती है जो अघोषित रूप से घोषित है. गंगा भक्त परिषद की आवश्यकता ही नहीं. ऐसे परिषद का मतलब होगा गंगा पर निर्णय लेने वाली एक ताकतवर संस्था का निर्माण करना यानी केंद्र को चेतावनी देना .

सरकार और सिविल सोसाइटी को मिलाकर संस्था बनाने का मतलब है देश को दोबारा लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण की ओर धकेलना जबकि यह साबित हो चुका है कि यह दोनों ही त्वरित विकास में बाधा हैं. यदि किसानों से पूछकर ही निर्णय लिया जाता तो नीति ही नहीं बन पाती, जबकि निर्णय उनके हित में ही लिया गया है. बस किसान समझ नहीं पा रहे. कभी कभी लगता है कि किसान, शिक्षा मित्र, प्रतियोगी परिक्षाओं के रिजल्ट का इंतजार कर रहे छात्र, पर्यावरण के बहाने फ्राइडे को स्कूल ना जाने वाले बच्चे, सभी आत्मबोधानंद की तरह ही विकास विरोधी हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)


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1 टिप्पणी

  1. अपना विनाश करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है । दुनिया कोई शक्ति उसमें दखल नहीं दे सकती।

    विकास नहीं होगा तो कमीशन कहाँ से आएगा ?

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