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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतमादरेवतन गमगीन न हो, दिन अच्छे आने वाले हैं, पाजियों और मक्कारों को हम सबक सिखाने वाले हैं!

मादरेवतन गमगीन न हो, दिन अच्छे आने वाले हैं, पाजियों और मक्कारों को हम सबक सिखाने वाले हैं!

देश और समाज के लिए सबके अपने-अपने सपने थे, जिन्हें जनता के बीच ले जाया जाता था और उन्हें पूरा करने के लिए वोट मांगे जाते थे.

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आजकल नेता और प्रत्याशी प्रायः मतदाताओं को अपने विरोधियों का डर दिखाकर वोट मांगते हैं- हमें नहीं जिताया तो वे आ जायेंगे, जो बहुत सतायेंगे! लेकिन पहले ऐसा नहीं था. देश और समाज के लिए सबके अपने-अपने सपने थे, जिन्हें जनता के बीच ले जाया जाता था और उन्हें पूरा करने के लिए वोट मांगे जाते थे. हां, कई बार सपने भी दिखाये जाते थे. इमरजेंसी के बाद 1977 के आम चुनाव में वोट मांगने वाले जनता पार्टी कार्यकर्ता आजादी के पहले क्रांतिकारियों द्वारा गाया जाने वाला एक गीत गुनगुनाते हुए आते थे- मादरेवतन गमगीन न हो, दिन अच्छे आने वाले हैं. पाजियों और मक्कारों को हम सबक सिखाने वाले हैं!

वे मतदाताओं से कहते थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने नागरिकों की आजादी छीनकर उन पर दूसरी गुलामी थोप दी है, इसलिए गुलामी के दौरान के जोश व जज्बा जगाने वाले आजादी के तराने फिर से गाने की जरूरत है. वे कोर्ट से हार चुकी हैं और अब वोट से हराने की जरूरत है.

अंततः मतदाताओं ने भी इसकी जरूरत महसूस की थी और गाते-गाते न सिर्फ कांग्रेस बल्कि रायबरेली में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और अमेठी में उनके बेटे संजय गांधी तक को चुनाव हराकर ‘दूसरी आजादी’ पा ली थी.


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इतना ही नहीं, पदासीन प्रधानमंत्री को चुनाव हराने का रिकार्ड भी बना डाला था, जो अभी तक अटूट है. अलबत्ता, उस चुनाव में सत्ता में आई जनता पार्टी का आज कोई अता-पता नहीं रह गया है.

मुकाबले में बराबरी की लालबहादुर शास्त्री की वह चाहत

1957 में इलाहाबाद सीट से चुने गये लालबहादुर शास्त्री 1962 में फिर इसी सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी थे. चुनाव प्रचार के एक दो दिन ही बचे थे और मुकाबला कड़ा न होने के बावजूद अपने सारे मतदाताओं तक पहुंचने की ख्वाहिश में वे दिन-रात एक किये हुए थे. एक सभा को संबोधित करके लौट रहे थे, तो देखा कि उनके विरुद्ध चुनाव लड़ रहे एक प्रत्याशी की जीप बीच रास्ते में खराब हो गई है और उसके चिंतित समर्थक कह रहे हैं कि जब तक मिस्त्री आयेगा और जीप की मरम्मत करके उसे चलने लायक बनायेगा, तब तक सभा के निर्धारित स्थल पर पहुंचने का समय ही नहीं रह जायेगा. जब तक पहुंचेंगे, सभा में आये मतदाता ऊबकर और नाराज होकर लौट चुके होंगे.

उन दिनों न आजकल जितनी जीपें व कारें हुआ करती थीं कि फौरन दूसरी का इंतजाम हो जाये और न ही यातायात के साधन इतने सुगम थे कि दूर-दराज के इलाकों में सुविधापूर्वक पहुंचा जा सके. हां, आजकल जितनी राजनीतिक कटुता भी नहीं थी और न ही राजनीतिक मतभेद या विरोध इस हद तक पहुंचते थे कि मनभेद हो जाये और आपसी संवाद खत्म होकर रह जाये!

शास्त्री जी ने अपनी जीप रुकवाई और पसीना-पसीना हो रहे अपने प्रतिद्वंद्वी के पास जाकर प्रणाम करने के बाद पूछा कि क्या वे उसकी कोई मदद कर सकते हैं? प्रतिद्वंद्वी को कोई उत्तर नहीं सूझा. उसकी हिचक को समझकर शास्त्री जी ने प्रस्ताव किया कि चूंकि उन्हें भी उसी रास्ते जाना है, वे उसे अपनी जीप में बैठाकर उसकी सभा के स्थल तक ले चलते हैं. वहां दोनों बारी-बारी से मतदाताओं से अपनी बात कह लेंगे. मतदाता दोनों को सुनने के बाद खुद फैसला कर लेंगे कि उन्हें अपना वोट किसे देना है? प्रतिद्वंद्वी इस पर राजी नहीं हुआ तो भी शास्त्री जी ने उसकी मदद से मुंह नहीं मोड़ा. खुद उधर से गुजर रही अपने एक समर्थक की जीप में बैठ गये और अपनी जीप प्रतिद्वंद्वी को दे दी. एक समर्थक ने एतराज जताया तो बोले-हमारे विरोधी मतदाताओं से अपनी बात कहने नहीं जा सके तो मुकाबला बराबरी का नहीं रह जायेगा न!

धर्म, सम्प्रदाय या जाति के नाते वोट मिले तो क्या!

पता नहीं, चुनावों को अपनी नीतियों व सिद्धांतों को जनता के बीच ले जाने के सुनहरे अवसर के रूप में देखने और उनमें जीत या हार को ज्यादा महत्व न देने वाले डाॅ. राममनोहर लोहिया के आज के उन अनुयायियों को यह जानकर कैसा लगेगा, जो परिवर्तन की बात करते-करते व्यवस्था के पैरोकार बन गये और परिवर्तन के लिए संघर्ष का रास्ता छोड़कर निजी नफे व नुकसान की अवसरवादी राजनीति की ओर चल पड़े हैं!

उत्तर प्रदेश में तत्कालीन फैजाबाद {वर्तमान में अम्बेडकरनगर} जिले के अकबरपुर कस्बे में स्थित डाॅ. लोहिया की जन्मभूमि में उनके एक अभिन्न सहयोगी थे. चौधरी सिब्ते मोहम्मद नक़वी. डाॅ. लोहिया फर्रुखाबाद का बहुचर्चित और ऐतिहासिक लोकसभा उपचुनाव लड़ रहे थे, तो उन्होंने सिब्ते को चुनाव प्रचार के लिए वहां बुलाया था. लेकिन जब सिब्ते लखनऊ से उनके साथ एक पुरानी मोटर पर बैठकर फर्रुखाबाद जा रहे थे, तो किसी साथी ने कह दिया कि सिब्ते भाई चल रहे हैं, तो अब मुसलमानों के वोट हमें आसानी से मिल जाएंगे.

इतना सुनना था कि डाॅ. लोहिया ने मोटर रुकवाकर सिब्ते को उतारा और अकबरपुर लौट जाने का आदेश सुना दिया. साथियों से बोले-जो भी वोट मिलने हैं, हमारी पार्टी की नीतियों और सिद्धांतों के आधार पर मिलें तो ठीक. कार्यकर्ताओं के धर्म, सम्प्रदाय या जाति के नाते वोट मिले तो क्या मिले!

सिब्ते और साथियों ने बहुतेरा कहा कि वे अपने फैसले पर एक बार फिर सोच लें, लेकिन लोहिया अडिग रहे और सिब्ते को लौट जाना पड़ा.

मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमंत्री काल में लखनऊ में मायावती के आंबेडकर पार्क की तर्ज पर लोहिया पार्क का निर्माण शुरू कराया तो इन्हीं सिब्ते ने उनको कड़ा पत्र लिखकर पूछा था कि तुम लोहिया का कद उनके नाम पर बने पार्कों और मूर्तियों से तय करना चाहते हो? डाॅ. लोहिया इसके मोहताज नहीं हैं. वास्तव में उनको याद करना चाहते हो तो अपने कर्मों  से याद करो, उनके रास्ते पर चलकर, उनके सपनों की सरकार चलाकर. तब मुलायम ने उनको जवाब देना भी ठीक नहीं समझा था.

जब चौधरी चरण सिंह ने अपने ही प्रत्याशियों को हरवा दिया!

भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की विरासत के दावेदार चैधरी अजित सिंह का इंडियन नेशनल लोकदल पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सिमटकर रह गया है, लेकिन किसान नेता के तौर पर चरण सिंह की अनूठी नैतिकताओं के किस्से आज भी समूचे उत्तर प्रदेश में दंतकथाओं की तरह कहे और सुने जाते हैं. खासकर 1980 में हुए लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के, जो उनके नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के पतन के बाद हुआ और जिसमें वे जनता पार्टी को तोड़ने, जिस कांग्रेस के खिलाफ चुने गये थे, उसी के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने और संसद का सामना तक न कर पाने जैसी तोहमतें झेल रहे थे.

एक किस्सा यों है कि वे अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार महराजगंज स्थित सिसवां में अपनी पार्टी के प्रत्याशी के पक्ष में आयोजित जनसभा को संबोधित करने जा रहे थे. रास्ते में पड़ने वाली एक अन्य सीट के प्रत्याशी ने बिना उन्हें विश्वास में लिये इस उम्मीद के सहारे दूसरे स्थान पर मतदाताओं की भीड़ जुटा रखी थी कि स्वागत करने के बहाने उन्हें रोककर सभा को संबोधित करने को कह देगा तो वे इनकार भी भला कैसे करेंगे?


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हुआ भी एकदम उसकी उम्मीद के मुताबिक, लेकिन ‘भव्य’ स्वागत के बावजूद चौधरी चरण सिंह अभिभूत नहीं हुए. साफ कह दिया कि वे केवल उसी सभा को संबोधित करेंगे, जो उनके निर्धारित कार्यक्रम का हिस्सा है.

प्रत्याशी ने कहा कि उनके आने का प्रचार करके ही उसने मतदाताओं को इकट्ठा किया है और वे ऐसे ही चले जायेंगे तो उसकी भद पिट जायेगी. इस पर उन्होंने उसकी सभा में जाकर माइक हाथ में लिया और मतदाताओं से कहा, ‘इस प्रत्याशी ने मेरे आने का झूठा प्रचार करके आप लोगों को यहां बुला रखा है. यह दगाबाज है. इसको वोट देंगे तो आगे और दगा करेगा. आगाह किये दे रहा हूं. फिर न कहिएगा कि मैंने बताया क्यों नहीं था.’

बेचारा प्रत्याशी अपना-सा मुंह लेकर रह गया उसकी भद तो पिटी ही, चुनाव भी हार गया

एक और किस्सा यों है कि चौधरी चरण सिंह अपने एक प्रत्याशी के पक्ष में भाषण करके सभा के मंच से उतरे ही थे कि किसी ने उनको एक परचा पकड़ाया. परचे में प्रत्याशी का ‘जीवन चरित’ छपा था. दूसरे शब्दों में कहें तो वह उसके आपराधिक इतिहास का कच्चा चिट्ठा था. उन्होंने कुछ पल परचा पढ़ने में लगाया और दोबारा मंच पर जा पहुंचे. मतदाताओं से कहा कि अभी-अभी उन्हें एक परचा दिया गया है. आप लोगों को भी मिला होगा. परचे में लिखी बातें सही हैं तो आप लोग इस प्रत्याशी को कतई वोट न दें. चाहे इसके प्रतिद्वंद्वी को दे दें. हमने इसको टिकट देने में जो गलती की है, वह गलती आप भूलकर भी न करें. कहते हैं कि यह सुनकर उनका प्रत्याशी गश खाकर गिर पड़ा. नतीजा आने पर तो उसको ढेर होना ही था.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)

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