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Thursday, 25 April, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावजब स्वप्नसुंदरी को चाट खिलाने की होड़ भी भाजपाइयों को रास नहीं आई

जब स्वप्नसुंदरी को चाट खिलाने की होड़ भी भाजपाइयों को रास नहीं आई

‘हेमा जी! अपना वह धन्नो वाला डायलाग सुना दीजिए.’ उन्होंने फरमाइश करने वाले मतदाताओं को निराश नहीं किया, हौले से मुसकुरायीं और सुना दिया-‘चल धन्नो!

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2009 के लोकसभा चुनाव की बात है. भारतीय जनता पार्टी की स्टार प्रचारक और हिन्दी फिल्मों की अपने वक्त की बेहद लोकप्रिय अभिनेत्री हेमामालिनी उत्तर प्रदेश की फैजाबाद लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह का प्रचार करने आईं. यों, यह कहना ज्यादा सही होगा कि लल्लू सिंह ने कड़े मुकाबले में अपनी खस्ताहालत देखकर अनेक पापड़ बेलकर इसरार कर उन्हें बुलवाया, ताकि युवा मतदाताओं को अपनी ओर खींच सकें. चूंकि भगवान राम की अयोध्या इसी लोकसभा क्षेत्र में समाहित है, इसलिए वे यह तोहमत अपने सिर नहीं लेना चाहते थे कि भाजपा, और तो और, रामजन्मभूमि वाली सीट पर भी अपनी हार नहीं टाल पाई.

खैर, हेमा फैजाबाद आईं तो एक बड़ी ही मनोरंजक घटना हुई. ऐतिहासिक गुलाबबाड़ी मैदान में आयोजित जनसभा में मतदाताओं को सम्बोधित करके वे मंच से उतरने ही वाली थीं कि किसी ओर से फरमाइश आई, ‘हेमा जी! अपना वह धन्नो वाला डायलाग सुना दीजिए.’ उन्होंने फरमाइश करने वाले मतदाताओं को निराश नहीं किया, हौले से मुसकुरायीं और सुना दिया-‘चल धन्नो! तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है.’

लेकिन वापस जाने के लिए फैजाबाद की हवाईपट्टी पर पहुंचीं तो पता चला कि उन्हें ले जाने वाला विमान कुछ तकनीकी दिक्कतों के कारण घंटा-सवा घंटा देर से पहुंचेगा. भाजपा के स्थानीय वरिष्ठ नेताओं ने इससे हुई असुविधा के लिए खेद जताते हुए उनसे आग्रह किया कि तब तक वे कुछ खा-पी लें. पहले तो उन्होंने अनिच्छा जताई, लेकिन बाद में बहुत मनुहार के बाद कहा कि उनका कोई चटपटी चीज, जैसे चाट आदि, खाने का मन हो रहा है, तो नई समस्या पैदा हो गई.


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फैजाबाद शहर से काफी दूर स्थित, आम तौर पर निर्जन रहने और चुनाव के वक्त स्टार प्रचारकों के विमानों के उड़ने-उतरने पर ही गुलजार होने वाली हवाई पट्टी पर चाट कहां मिले? लेकिन हेमा जैसी अभिनेत्री को यह कहने का मौका भी कैसे दिया जाये कि वे फैजाबाद में रुकीं तो उन्हें चाट तक नहीं मिल पाई? सो भी जब भाजपा के कार्यकर्ताओं व नेताओं में से ज्यादातर किसी न किसी समय स्वप्नसुंदरी के तौर पर उनके दीवाने रह चुके थे.

कार्यकर्ताओं व नेताओं में से दर्जनों ने आनन-फानन में अपनी कारें व मोटर साइकिलें, जो भी जिसके पास थी, निकालीं और चाट की जुगत में शहर की ओर भागे. फिर तो उन्होंने जहां से भी और जितनी भी चाट मिली, उसे लेकर सबसे पहले वापस हवाई पट्टी पहुंचने की उतावली में रेस ही लगा डाली.

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जाहिर है कि इस रेस में किसी एक को ही जीतना था. जो जीता यानी सबसे पहले पहुंचा, हेमा ने उससे थोड़ी-सी चाट व पकौड़ियां लीं और बाकी अन्य उपस्थित लोगों में बांट देने को कहा. इसके थोड़ी ही देर बाद उनका विमान आ गया और वे ‘हाय-हेलो’ करती हुई उसकी ओर बढ़ गईं.


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लेकिन उत्साह से भरे भाजपा कार्यकर्ता उनके जाने के काफी देर बाद तक चाट लेकर वहां पहुंचते, खीझते और अपनी खोटी किस्मत को कोसते रहे. यह कहकर कि उन्हें अपनी हेमा, बसंती या कि स्वप्नसुन्दरी को चाट खिलाना भी नसीब नहीं हुआ. चाट लेकर लाये भी, तो उसे ‘लाखैरों’ में बांट देना पड़ा! तिस पर कोढ़ में खाज यह कि स्वप्नसुन्दरी का फैजाबाद आना भी लल्लू सिंह के कुछ काम नहीं आया. उनकी हालत खस्ता की खस्ता ही रह गई और मतगणना हुई तो वे कांग्रेस के डाॅ. निर्मल खत्री के मुकाबले भारी अंतर से हार गये. उनकी इस हार का गम तभी गलत हुआ जब पता चला कि भाजपा आस-पास की लोकसभा सीटों पर भी खेत रही है और देश में उसकी सरकार नहीं बनने जा रही.

बड़े नेता बनाम बड़ा मतपत्र!

चुनाव में प्रत्याशियों की जीत व हार में कैसे-कैसे अजीबो-गरीब कारक भूमिका निभाते हैं, इसकी एक मिसाल भारतीय जनसंघ के नेता अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा 1962 में बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से लड़ा गया चुनाव भी है, जिसमें वे कांग्रेस की महिला प्रत्याशी सुभद्रा जोशी से दो हजार वोटों के मामूली अन्तर से हार गये थे.

उनकी इस हार में दूसरे कारकों के अलावा उनके चुनाव क्षेत्र के थारू जनजाति के मतदाताओं का अज्ञान भी सिर चढ़कर बोला था.

दरअसल, तब तब लोकसभा व विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हुआ करते थे और मतदाताओं को दो प्रत्याशियों के लिए दो अलग-अलग मतपत्रों पर मोहरें लगानी पड़ती थीं. दोनों मतपत्रों के कागज का रंग तो अलग होता ही था, प्रत्याशियों की संख्या के अनुसार उनके आकार में भी भिन्नता होती थी.

उस चुनाव में बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से अटल जी और सुभद्रा जोशी कुल दो ही बड़े प्रत्याशी थे, जिस कारण लोकसभा चुनाव का मतपत्र बहुत छोटा था, जबकि विभिन्न विधानसभा चुनाव के मतपत्र बड़े-बड़े थे.

बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले गैसड़ी विधानसभा क्षेत्र में थारू जनजाति के मतदाताओं की बहुतायत है. वे मतदान करने आये तो उनको यह मानने में बहुत असुविधा हुई कि अटल जी जितने बड़े नेता का मतपत्र सबसे छोटा भी हो सकता है. उन्होंने बड़े मतपत्र पर, जो उनके हिसाब से अटल का था, जनसंघ के दीपक निशान पर खूब मोहरें लगाईं और छोटे मत पत्र को तवज्जो ही नहीं दी.

फल यह हुआ कि गैसड़ी विधानसभा क्षेत्र के जनसंघ के विधायक प्रत्याशी सरदार बलदेव सिंह अपने कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी से भारी अंतर से जीत गये जबकि अटल जी को उस क्षेत्र में इतने कम वोट मिले कि दूसरे विधानसभा क्षेत्रों में मिली बढ़त भी कुछ काम नहीं आई और वे कुल मिलाकर 2000 वोटों से हार गये.

अमिट स्याही की दिलचस्प दास्तान

मतदान के बाद मतदाताओं की उंगलियों में जो अमिट स्याही लगाई जाती है और जो उन्हें दुबारा मतदान से रोकती है, उसके बारे में कई तथ्य बहुत दिलचस्प हैं.

मसलन बैलेट पेपर की जगह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें आ जाने और मत पत्रों के इतिहास में समा जाने के बाद भी इस स्याही का उपयोग बना हुआ है. यह स्याही मैसूर, कर्नाटक की पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड नाम की कम्पनी बनाती है जिसकी स्थापना मैसूर के भूतपूर्व राजा नलवाड़ी कृष्णराजे वाडियार ने 1937 में की थी. 1953 में इस कम्पनी का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया. तब से इसके उत्पादन का अधिकार सिर्फ एमपीवीएल के पास है.


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कहते हैं कि इस स्याही को बनाने का तरीका सिर्फ एक ही व्यक्ति को ज्ञात रहता है और वही कम्पनी का क्वालिटी कंट्रोल प्रबंधक होता है. वह अपनी सेवानिवृत्ति के बाद इस पद पर आने वाले नये अधिकारी को इसकी जानकारी दे जाता है.
इस स्याही का इस्तेमाल 1962 के आम चुनाव से शुरू किया गया और मांग व जरूरत के हिसाब से इसे दूसरे देशों को निर्यात भी किया जाता है. फिलहाल, यह एक सौ रुपये से थोड़ी ज्यादा कीमत में दस मिलीग्राम मिलती है और इसकी इतनी मात्रा से आठ सौ मतदाताओं की उंगलियों में अमिट निशान लगाया जा सकता है.

(लेखक जनमोर्चा में स्थानीय संपादक हैं)

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