मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी की खबर के आने के साथ मेरे फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई. टीवी चैनल वाले मेरी बाइट लेने को जैसे आतुर थे. आम आदमी पार्टी से जुड़े मेरे इतिहास के मद्देनजर उन लोगों ने मान लिया था कि मनीष सिसोदिया के इस्तीफे की मांग के कोरस में मैं भी अपना सुर मिलाऊंगा. और, जब इस्तीफा आ गया तो टीवी चैनल वाले ये मानकर चल रहे थे कि आम आदमी पार्टी के नैतिक और राजनीतिक पतन की जो कहानी बड़े जतन से सुनाई जा रही है, उसमें सहमति का अपना स्वर मैं भी मिलाऊंगा. उन्हें उम्मीद थी मैं कोई मसालेदार बाइट दूंगा, कुछ ऐसा कि वे खबरों की हेडलाइन में बता सकें: ‘ आम आदमी पार्टी के संस्थापक की फटकार, कहा: पार्टी का नैतिक पतन हो गया है.’
लेकिन मैंने टीवी चैनल वालों की नहीं सुनी, उनके मन-मुताबिक बाइट देने का कोई सवाल ही नहीं था. मेरा जवाब था कि आम आदमी पार्टी या फिर मनीष सिसोदिया का मैं कोई प्रशंसक नहीं हूं लेकिन मैं सिसोदिया की गिरफ्तारी पर वाह-वाही में ताली नहीं बजा सकता. मेरे लिए सबसे पहली और जरूरी बात यही है कि मैं गिरफ्तारी और उसके इर्द-गिर्द चल रहे सियासी ड्रामे की निंदा करूं.
‘आप’ से बाहर होने के बाद के आठ सालों के दैरान मेरे पास कभी इतना फालतू वक्त या अतिरिक्त ऊर्जा नहीं रही कि मैं उसे पार्टी के अपने पूर्व सहकर्मियों की आलोचना में खपाऊं. जब-जब ऐसे अवसर आए तब-तब हालात ने मुझे आम आदमी पार्टी के बारे में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने को मजबूर किया लेकिन मैं ऐसी बातों से जल्दी उबर भी गया. मुझे गोपन-अशोभन को निंदा-रस में लपेटकर परोसने वाली राजनीति फालतू की चीज लगती है. और, इसके साथ एक बात यह भी है कि सफर में जिनसे पिण्ड छूट गया, उन्हें आप ये इजाजत नहीं दे सकते कि वे आपके वर्तमान जीवन का नियंत्रण करें.
जहां तक मनीष सिसोदिया मामले का सवाल है, मेरी ठंडी प्रतिक्रिया के पीछे एक अलग और कहीं ज्यादा गहरी वजह भी थी जो सिर्फ मेरे निजी या राजनीतिक गति-मति तक सीमित नहीं है. वक्त के इस मुकाम पर अपना ध्यान और ऊर्जा आम आदमी पार्टी के शराब-घोटाले पर केंद्रित करना राजनीतिक कच्चेपन की दलील है. इस मामले में पड़ने का मतलब होगाः ध्यान भटकाने के लिए जो जाल बुना गया है उसमें जानते-बूझते फंसना. गौर से देखिए कि मामले में कैसे खीरे के चोर को हीरे के चोर के बराबर ठहराया जा रहा. जैसे घोटाले आए दिन सामने आते रहते हैं वैसे ही एक घोटाले को सामने लाकर हमारा ध्यान अभी के सबसे बड़े घोटाले से हटाया जा रहा है. यह अनजाने में ही सही लेकिन यही हमें राजनीतिक पाखंड और `भेड़िया आया-भेड़िया आया`वाली भीड़ का साथी बनाता है.
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‘आप’ की आबकारी नीति की सड़ांध
अभी की स्थिति पर ईमानदार प्रतिक्रिया का मतलब यह नहीं कि हम आबकारी नीति को किनारे करते हुए चलें या फिर आम आदमी पार्टी के नेताओं को चट-पट क्लीन-चिट थमा दें. अफसोस, कि विपक्ष के ज्यादातर नेताओं ने यही किया है.
बेशक, उन्होंने मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और नजरबंदी की निंदा की है और ऐसा करके ठीक किया है. सीधे-सीधे किसी एक तरफ खड़े होकर सोचने लग जाना – पक्षपात का ऐसा रवैया हमारे सार्वजनिक जीवन पर हावी हो चुका है. अगर आप बीजेपी की तरफ हैं या फिर आम आदमी पार्टी को नापसंद करते हैं तो यह भाव आप पर इतना हावी हो जाता है कि आप बीजेपी के विरोध की बात भूल जाते हैं. आप मानकर चलते हैं कि सीबीआई ने आरोप मढ़े हैं तो वे आरोप ठीक ही होंगे. फिर आप, सिसोदिया की गिरफ्तारी का समर्थन और आम आदमी पार्टी के खात्मे की भविष्यवाणी करने लग जाते हैं.
इसी तरह, अगर आप मौजूदा सत्तापक्ष के विरुद्ध हैं तो आप आम आदमी पार्टी की तरफ खड़े हो जाते हैं, सिसोदिया को क्लीन चिट थमा देते हैं, उनकी गिरफ्तारी की निंदा करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि पूरा मामला ही मनगढ़ंत है. राजनीतिक फैसले इतने भी सीधे-सादे नहीं होते.
पहली बात यह कि आबकारी नीति एक गंभीर मसला है. मैं अपने इस कॉलम में लिख चुका हूं कि शराब पर नियंत्रण लगाने का मतलब किसी के निजी मौज-मजे पर नैतिकता का डंडा फटकारना नहीं होता. यह एक गंभीर मसला है जिसके साथ मौतों की बढ़ती तादाद, महिलाओं के साथ हिंसाचार और गरीब परिवारों की आर्थिक तंगहाली का मसला जुड़ा हुआ है.
इसमें भी कोई शक नहीं कि अपने पहले मेनिफेस्टो में शराब के उपभोग को कम करने का वादा करने वाली आम आदमी पार्टी की सरकार अपने इस वादे से पलटते हुए बाकी राज्य-सरकारों की तरह शराब के उपभोग और इसके जरिए हासिल राजस्व को बढ़ावा देने की राह पर चल रही है. संयोग देखिए कि मेरे संगठन स्वराज अभियान ने मुक्त-भाव से शराब के ठेके बांटने के आम आदमी पार्टी की रीत-नीत के खिलाफ सबसे पहले अभियान चलाया था. हमने ऐसा 2016 में किया था. पार्टी की आबकारी नीति सचमुच सड़ांध मार रही है.
यहां मुद्दे की बात यह कि मौजूदा शराब-घोटाला विरोधियों के मन की ऊपज नहीं. शुरूआती तौर पर यही लगता है कि कुछ ना कुछ गड़बड़ है: आबकारी नीति में व्यापक फेर-बदल हुई जबकि इससे कोई लोकहित सधता नहीं दिख रहा है. फिर, संदेह की गुंजाइश पैदा करती ढेर सारी चीजें हैं, जैसे— मामले से जुड़े कुछ कागजात, लीक्स, हैंडसेटस् और दलाल.
जनता की सेवा में लगे एक धर्मात्मा नेता की जो कहानी बुनी गई है, उससे ये चीजें मेल खाती नहीं दिखतीं. अब जिम्मा जांच एजेंसियों और अदालत का बनता है कि उपलब्ध सबूत आरोपों को जस का तस साबित कर पा रहे हैं या नहीं. लेकिन, मामला इतना भी भयावह नहीं जितना कि मनगढ़ंत और मामलों में देखने को मिला—जैसे, सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले लोगों के विरुद्ध साजिशन दर्ज कराए गए मामले. अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए यह सरकार अक्सर ऐसे मामलों का सहारा लेते आई है. आम आदमी पार्टी ने हाल के चुनावों में जिस तरह खुले हाथों पैसा खर्च किया है, उसपर जिनकी नजर गई है और इस नाते जिन्हें आम आदमी पार्टी की आमदनी के स्रोत को लेकर आश्चर्य होता रहा है वे मौजूदा मामले को हल्के में नहीं ले सकते.
फिर भी, इन बातों के सहारे ये साबित नहीं होता कि मामले में केंद्र सरकार ने जो कार्रवाई की है वह उचित है.
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असल सवाल पर ध्यान रखिए
तीन सवाल ऐसे हैं जिन्हें जरूर पूछा जाना चाहिए: क्या मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार करना जरूरी था? मिलते-जुलते मामलों में मौजूदा सरकार ने जो कदम उठाए हैं उन्हें देखते हुए क्या गिरफ्तारी को सही कहा जा सकता है? क्या इस मामले की टाइमिंग किसी अन्य कुटिल राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करती है? ये सवाल मामले की वैधानिकता से नहीं जुड़े. जब कोई जज रिमांड दे दे और सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप करने से इनकार करे तो समझिए सिर्फ बाहरी कानूनी सीमा तय की जा रही है. मतलब, सिर्फ यह कहा जा रहा है कि मनीष सिसोदिया की नजरबंदी की कानूनी तौर पर अनुमति दी जा सकती है. लेकिन इससे राजनीतिक शुचिता का दमदार मसला हल नहीं हो जाता. यह प्रश्न नहीं सुलझ जाता कि सीबीआई ने मामले में जो किया वह ठीक था. सीबीआई की कार्रवाई पर जरूर ही बहस होनी चाहिए.
मैं कोई वकील नहीं लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि जांच एजेंसी का हर मामले में आरोपित को गिरफ्तार कर लेना इस देश के कानून के मुताबिक जरूरी नहीं है. भले ही उस पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोप कितने भी संगीन क्यों ना हों.
सीबीआई मनीष सिसोदिया के आवास पर छापा मारकर अपनी जरूरत की चीजें कब्जे में ले चुकी थी. जाहिर है, फिर इस बात का खतरा नहीं था कि सबूत मिटा दिए जाएंगे. इस बात का भी खतरा नहीं था कि उप-मुख्यमंत्री देखते-देखते छू-मंतर हो जाएंगे. जहां तक इस बात का सवाल है कि जांच के दौरान वे सहयोग नहीं कर रहे तो यहां भी स्पष्ट नहीं होता कि नजरबंदी के बाद वे (सिसोदिया) कैसे सहयोग करने लग जाएंगे. हां, सीबीई उनके ऊपर थर्ड-डिग्री के तरीकों के इस्तेमाल की अनुमति ले आए तो और बात है.
अगर सीबीआई भ्रष्टाचार के मामले को लेकर गंभीर थी तो उसे सिसोदिया से जरूरत के मुताबिक पूछताछ करनी चाहिए थी. अन्य सबूतों को इक्ट्ठा करना चाहिए था. मामले को अदालत में दाखिल करके सिसोदिया को दोषी सिद्ध करवाना चाहिए था. इसके बाद ही उन्हें जेल में डालना चाहिए था. मामले में जिस वक्त गिरफ्तारी हुई है उसे देखते हुए लगता है कि सारा कुछ एक सियासी ड्रामा है जिसका मकसद विपक्ष के सारे नेताओं को सबक देने का है. ऐसे में किसी को भी संदेह होगा कि कांग्रेस के महाधिवेशन में राहुल गांधी के भाषण के दिन यानी रविवार को हुई गिरफ्तारी का मकसद कुछ और ही था.
हाल के समय में सीबीआई और अन्य जांच एजेंसियों का जो रिकार्ड रहा है, उसपर नजर रखें तो यह संदेह और पुष्ट होता है. बीते कुछ सालों में मामलों की संख्या तो कई गुणा बढ़ गई है लेकिन सत्ताधारी पार्टी के जांच के दायरे में आनेवाले नेताओं की संख्या घटकर ना के बराबर हो गई है. जो नेता जांच के दायरे में थे, पाला बदलकर बीजेपी में जाते ही उनके ऊपर से जांच का घेरा हट गया. तनिक व्यंग्य में कहें तो अब इस देश में कोई भी सीबीआई पर यह आरोप नहीं लगा सकता कि वह अपना काम नहीं कर रही है. अपने राजनीतिक आकाओं के हक में बदला लेने वाली इन एजेंसियों की रीत-नीत के हम इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अब हमें ऐसी बातों के लिए इन एजेंसियों का नाम तक नहीं लेते. हम ये सवाल पूछते ही नहीं कि क्या फौजदारी के मामलों में इन संस्थाओं का दुरूपयोग करके अपने राजनीतिक विरोधी पर निशाना साधना उचित है? किसी विपक्षी पार्टी के नेतृत्व में चल रहे राज्य-सरकार को उसका संविधान-सम्मत कार्य ना करने देना क्या ठीक बात है? विपक्ष ने ये सवाल पूछकर और गिरफ्तारी की निंदा करके बिल्कुल सही किया.
ये बस पिछले हफ्ते की बात है जब `रिपोर्टर्स कलेक्टिव` ने मोदी सरकार में हुए कोयला-खदानों के आवंटन में हुए घोटाले का पर्दाफाश किया. मामला युपीए सरकार के समय हुए ऐसे ही पर्दाफाश से मिलता-जुलता है. क्या इस मामले में सीबीआई की जांच होगी? क्या कोई गिरफ्तारी होगी? जो सलूक मनीष सिसोदिया के साथ हुआ है वैसा ही सलूक सबके साथ किया जाए तो केंद्र सरकार के कितने मंत्री जेल के अंदर होंगे ? क्या सीबीआई सेबी के मुखिया की भी जांच करेगी जो अडाणी ग्रुप की कंपनियों के हाथों शेयर बाजार में हुए हेरफेर के संगीन आरोपों की अनदेखी करके चल रहे हैं? क्या अडाणी की मदद करने के गरज से आम जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा दांव पर लगाने वाली एलआईसी और एसबीआई के मुखिया की भी जांच सीबीआई करेगी? यह सवाल पूछकर मूल प्रश्न को थोथा साबित करने की तर्क-चतुराई नहीं बल्कि यह याद दिलाने की कोशिश है कि सीबीआई को अपने हर मामले में एक सी कसौटी का पालन करना चाहिए.
और, इसी से जुड़ी है इस लेख की मेरी आखिरी बात. क्या यह संयोग मात्र है कि आम आदमी पार्टी के भ्रष्टाचार का सवाल उसी समय सामने आया है जब सबसे बड़े (पूर्व) धनपति और सबसे ज्यादा ताकतवर नेता की मिलीभगत वाले अब तक के सबसे बड़े घोटाले का सवाल देश के सामने था? दिन-दहाड़े हुई राष्ट्रव्यापी डकैती को ढंकने के लिए समवेत स्वर में हल्ला किया जा रहा है कि देखो अमुक के घर में चोरी हो गई है – क्या छिपाने के इस छल को ना देख पाना हमारा भोलापन नहीं.
जो कभी ईश्वर की सौगंध खाकर भ्रष्टाचार के खात्मे की लड़ाई लड़ने निकले थे वे आज खुद ही भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं— इसे देखकर शायद किसी को मजा आए कि चूहे खाने की आदत तो छूटी नहीं लेकिन बिल्ली हज को निकली थी. लेकिन, हमें ऐसे सोच के प्रलोभन से बचना चाहिए. आम आदमी पार्टी हमेशा केंद्र सरकार के खिलाफ `भेड़िया आया-भेड़िया आया`का शोर करते रहती है. लेकिन, सचमुच भेड़िया आए तो हमें सतर्क रहना होता है. अलग-अलग वजन और किस्म की गलतियां होते रहती हैं. इन गलतियों के धुंधलके में अपने लिए एक पक्ष चुनने का नाम राजनीति है. राजनीतिक रूप से सही फैसला वही होता है जिसमें खीरे की चोर और हीरे के चोर के बीच भेद किया जाए और सामने जो बड़ी तस्वीर खड़ी है, वह हमें साफ-साफ नजर आए.
(योगेंद्र यादव जय किसान आंदोलन और स्वराज इंडिया के संस्थापकों में से हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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