मान लीजिए कि आप चंडीगढ़ मेयर चुनाव की अजीब-ओ-गरीब कहानी को फॉलो कर रहे हैं. इसमें सबसे नया अध्याय सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जाने वाला हस्तक्षेप है, जिसके परिणामस्वरूप वास्तव में चुनाव में जीतने वाले व्यक्ति की मेयर के रूप में नियुक्ति हुई है – वह व्यक्ति जिसे धोखे से जीतने नहीं दिया गया था. यदि आप चुनावी लोकतंत्र की चिंता करते हैं, जैसा कि मुझे लगता है कि हम सभी करते हैं, तो आपको इस बात से राहत मिलनी चाहिए कि न्याय मिल गया है.
मैं भी आपकी राहत में शरीक हूं. लेकिन मुझे लगता है कि दो अन्य भावनाओं की भी ज़रूरत है: भय और सावधानी.
भय, चंडीगढ़ में हुई निर्लज्जता की वजह से. मैंने इसके बारे में कुछ हफ़्ते पहले लिखा था. लेकिन यदि आप उस लेख से चूक गए हैं या यदि आपने पिछला महीना मंगल या शुक्र ग्रह पर बिताया है, और इस बात की आपको जानकारी नहीं है कि पृथ्वी पर क्या हो रहा है, तो मैं एक जल्दी से आपको इसके बारे में बता देता हूं.
क्या हुआ
30 जनवरी को चंडीगढ़ के मेयर का चुनाव हुआ. 35 सदस्यीय सदन में आम आदमी पार्टी के पास 13 वोट थे. इसने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, जिसके पास सात सीटें थीं. 35 में से 20 वोटों के साथ, आप उम्मीदवार कुलदीप कुमार की जीत तय थी.
लेकिन चुनाव के पीठासीन अधिकारी, भारतीय जनता पार्टी के सदस्य अनिल मसीह ने सभी वोटों के आने का इंतजार किया और फिर बैठकर व्यक्तिगत रूप से आठ मतपत्रों को खराब कर दिया, जिनमें से सारे के सारे वोट कुलदीप कुमार के थे. उन्होंने इन मत पत्रों को अमान्य कर बीजेपी उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर दिया.
मतगणना कवर कर रहे पत्रकारों ने ऑन एयर पीठासीन अधिकारी पर मत पत्रों के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया. लेकिन मसीह बिना रुके आगे बढ़े और घोषणा की कि भाजपा उम्मीदवार को मेयर के रूप में चुना गया है.
यह स्वीकार करने के बजाय कि गिनती में किसी तरह की कोई समस्या थी, भाजपा – जिसे पता होगा कि क्या हो रहा था – ने अवैध रूप से प्राप्त इस जीत को खुशी से स्वीकार किया और अपने उम्मीदवार की सफलता का जश्न मनाया.
यह कोई बड़ा बहाना नहीं है, लेकिन आप संभवतः यह तर्क दे सकते हैं कि स्थानीय भाजपा पदाधिकारियों के लिए यह छोटी बात हो सकती है. आप यह भी तर्क दे सकते हैं कि मेयर का चुनाव शहर की भाजपा इकाई के लिए एक बड़ी बात है, इसलिए उन्होंने जीत को स्वीकार कर लिया, भले ही यह कितनी भी अवैध तरीके से हासिल की गई हो.
लेकिन फिर भी, कोई भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल इतनी खुलेआम धोखाधड़ी कैसे कर सकता है? इतनी बेशर्मी से?
यह भी पढ़ेंः निजी अधिकार में राज्य का हो कितना हस्तक्षेप, उत्तराखंड के लिव-इन रूल्स खड़े करते हैं कई सवाल
बीजेपी ने इसे नज़रअंदाज़ किया
इससे भी बुरी बात यह है कि एक बार मामला राष्ट्रीय स्तर पर चला गया, तो केंद्रीय भाजपा नेतृत्व में से किसी ने भी – जो संभवतः यह महसूस करता है कि चंडीगढ़ में मेयर का चुनाव राष्ट्रीय दृष्टि से कोई बड़ी बात नहीं है – हस्तक्षेप करने की जहमत नहीं उठाई. फर्जी विजेता का इस्तीफा देना और नए सिरे से चुनाव कराना काफी आसान होता. किसी भी स्थिति में, भाजपा चंडीगढ़ में आप से दल-बदल कराने में व्यस्त है, इसलिए कौन जानता है, जब तक दूसरा चुनाव आएगा, तब तक वह जीत भी चुकी होगी.
लेकिन नहीं. राष्ट्रीय नेतृत्व ने चुनावी प्रक्रिया के इस खुलेआम दुरुपयोग को हल्के में लिया और मीडिया में उसके गुर्गों ने ‘इंडिया गठबंधन के लिए एक बड़ी हार’ घोषित की.
मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया. कोर्ट पीठासीन अधिकारी द्वारा मत पत्रों को खराब करने के फुटेज को देखकर हैरान रह गई. अदालत ने कहा, “यह स्पष्ट है कि पीठासीन अधिकारी ने अपने अधिकार के अंतर्गत जो किया वह गंभीर रूप कदाचार का दोषी है.” जहां तक बेशर्म पीठासीन अधिकारी की बात है तो अदालत ने कहा, “पीठासीन अधिकारी के संबंध में आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 340 के तहत एक मामला बनता है.”
सर्वोच्च न्यायालय के लिए चीयर्स और मुझे यह देखकर खुशी हुई कि उसने कोई कसर बाकी नहीं रखी. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा अगला चुनाव जीतेगी. वास्तव में चंडीगढ़ में छोटे-मोटे मेयर चुनाव के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है. तो फिर इसने अपने पदाधिकारियों को इस चुनाव में इतनी बेशर्मी से धांधली करने की इजाजत क्यों दी?
तो वरिष्ठ नेतृत्व हस्तक्षेप क्यों नहीं करता? यह स्वीकार करने के बजाय कि उसके सदस्यों ने खराब व्यवहार किया, भाजपा भारत के शीर्ष वकीलों के ज़रिएॉ सुप्रीम कोर्ट में अपने दुस्साहस को सही ठहराने की कोशिश करती है?
मैं उन प्रश्नों का कोई उचित उत्तर नहीं सोच सकता. न ही मुझे भाजपा की ओर से कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण मिला है. एक छोटे से चुनाव में धोखाधड़ी करके एक बड़ी राष्ट्रीय जीत को कलंकित क्यों किया जाए? लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति इतनी खुली अवमानना क्यों प्रदर्शित करें?
पिछले सप्ताह पत्रकारों, टिप्पणीकारों और आम नागरिकों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की बहुत प्रशंसा की गई है, न केवल चंडीगढ़ मामले में उसके कार्यों के कारण बल्कि चुनावी बांड को असंवैधानिक करार देने वाले फैसले के कारण भी.
दोनों मामलों में, न्यायालय ने जिस तरीके से काम किया उससे सत्ताधारी व्यवस्था का नाराज़ होना निश्चित था. ऐसे समय में जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सरकार के पामेरियन की तरह काम कर रहा है और सदन में विपक्ष की बिल्कुल कमजोर है, अधिक से अधिक शिक्षित भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि वह इन जैसे मुद्दो पर बोलेगा.
लेकिन हमें सतर्क रहने की जरूरत है. क्योंकि ये रास्ता खतरे से भरा है. सबसे पहले, भाजपा के आलोचकों द्वारा हर फैसले की सराहना के बावजूद, ऐसे कई अन्य ऐसे भी हैं जो सरकार को खुश करने वाले हैं. न्यायालय की कुछ कार्रवाइयों का बचाव करना कठिन हो सकता है: उदाहरण के लिए, उमर खालिद की जमानत याचिका पर भी सुनवाई करने के प्रति कोर्ट की अनिच्छा. और कुछ विवादास्पद हो सकते हैं. मैं अयोध्या मामले में न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के फैसले का सम्मान करता हूं, लेकिन मुझे लगता है कि सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें जिस किसी ने भी राज्यसभा नामांकन स्वीकार करने की सलाह दी थी, वह बिल्कुल गलत सलाह थी.
सुप्रीम कोर्ट विपक्ष का काम नहीं कर सकता
फैसले चाहे कैसे भी हों, हमारे लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर देखना और उससे विपक्ष की आवाज के रूप में काम करने की उम्मीद करना कोई व्यवहारिक दीर्घकालिक समाधान नहीं है. यह वह काम है जो विपक्ष को करना चाहिए – और दुख की बात है कि वह इसे अच्छी तरह से नहीं कर पा रहा है.
इसके अलावा, यह देखते हुए कि हाल के वर्षों में लोकतंत्र की अन्य संस्थाओं ने कैसा प्रदर्शन किया है, क्या आप वाकई मानते हैं कि अगर सुप्रीम कोर्ट विपक्ष की आवाज बन जाता है तो वह अपने वर्तमान स्वरूप में बहुत लंबे समय तक जीवित रहेगा?
तो हां, मुझे खुशी है कि चंडीगढ़ वाले नाटक का पटाक्षेप हो गया. मुझे इस बात की भी ख़ुशी है कि न्यायालय चुनावी बांड मामले में संविधान प्रथम वाले सिद्धांतों पर वापस लौटा. लेकिन यह उम्मीद न करें कि यह सरकार के खिलाफ एक ताकत के रूप में काम करेगी. यह न्यायालय का काम नहीं है. और न ही यह होना चाहिए.
हमें सर्वोच्च न्यायालय से बस यही अपेक्षा करनी चाहिए कि वह अपने समक्ष लाए गए मामलों पर निष्पक्षता से विचार करे और संविधान की भावना के अनुरूप नियम बनाए. अफसोस की बात है कि ऐसा हमेशा नहीं हुआ.
समान रूप से, हमें न्यायालय पर अपनी राजनीतिक मान्यताओं को थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिए और न ही आशा करनी चाहिए कि वह उनके अनुसार निर्णय देगा. मध्यम अवधि में – लंबी अवधि की तो बात ही छोड़ दें – हम सभी मर जाएंगे या मिट जाएंगे; राजनेता, न्यायाधीश, टिप्पणीकार और नागरिक, हम सभी.
यह संविधान ही है जिसे हम सभी तक कायम रहना चाहिए और जीवित रहना चाहिए. जब तक न्यायालय संविधान की रक्षा और संरक्षण कर सकता है, हममें से किसी को भी इससे अधिक की मांग नहीं करनी चाहिए.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका एक्स हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ेंः कांग्रेस डूब रही है, कुछ बाहर जा रहे हैं और कुछ बस कभी भी छोड़ने को तैयार हैं